—चौं रे चम्पू! बिचार बड़ौ कै जीवन?
—ये भी कोई पूछने की बात है? जीवन हर हाल में बड़ा होता है चचा।
—अब बता, बिचारधारा बड़ी कै जीवनधारा?
—ये प्रश्न कठिन है! विचारधारा के लिए जिन लोगों ने जीवन दे दिए, वही महान कहलाए। बच्चा धरती पर आते ही जिज्ञासा की आंख खोलता है। जिज्ञासा विचार की जननी होती है। किशोर होते-होते जिज्ञासाएं एक नासमझ शोर में बदल जाती हैं। जवान होते-होते उस शोर में से कोई एक आवाज़ साफ सुनाई देने लगती है जो एक जज़्बा बन जाती है। फिर जज़्बाती जवानी अपनी और अपने आसपास की मुक्ति के लिए नव-जनित जुनून को अपनी जीवनधारा बनाने लगती है।
—तू तौ अपनी सुना!
—चचा अपन भी जब किशोर थे तब शाखा में जाते थे। ‘नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे...’ गाते थे। देश-भक्ति हिलोरें मारती थी। लेकिन क्या हुआ कि एक दिन गुरू जी ने विचार-चिंतन के दौरान कहा-- इन म्लेच्छ मुसलमानों ने हमारी संस्कृति का सर्वनाश कर दिया है। बात भाई नहीं चचा। अरे, सन छप्पन में हमारा घर जब भूचाल में गिर पड़ा था, तब उसे फिर से बनाने वाले सारे राज-मिस्त्री मुसलमान थे। रामलीला में रावण, मेघनाद और कुंभकर्ण के पुतले बनाने वाले सारे कारीगर मुसलमान थे। अपने क़स्बे में कलंगी-तुर्रा ख़याल-गायकी के अधिकांश लोग मुसलमान थे। बड़ा मीठा गाते थे। ननिहाल में मुझे पुस्तक-कला, काष्ठ-कला, चर्म-कला और गणित सिखाने वाले मास्साब मुसलमान थे। मैंने भगवा गुरू जी को रास्ते में आते-जाते प्रणाम करना तो नहीं छोड़ा पर शाखा का रास्ता छोड़ दिया चचा। जवानी की दहलीज पर खड़े जज़्बात दुनिया को बदलने के लिए कोई जुनून चाहने लगे। मथुरा में मिले कॉमरेड सव्यसाची, उन्होंने सुनाई वर्ग-संघर्ष की दास्तान। कुछ-कुछ समझ में आई, बाकी दिल्ली में कॉमरेड सुरजीत ने सुनाई। उनकी कक्षाओं के लिए विट्ठल भाई पटेल हाउस जाते थे। वे बताते थे कि धर्म एक छद्म-चेतना है, अफीम है। मान लिया। ......जवानी का दूसरा जुनून होता है प्रियतम की तलाश। विचार के साथ अनजाने ही जीवन-तलाश भी जारी थी। मिल गई हमें हमारी प्राण-प्रिया। उसे साथ लेकर जाने लगे कॉमरेड की कक्षाओं में। प्राण-प्रिया ने कक्षा से बाहर आकर कहा कि धर्म अगर छद्म है तो ये खुद दाढ़ी क्यों रखते हैं? पगड़ी क्यों पहनते हैं? अपनी तरह से मैंने समझाया कि परिधान संस्कृति है। धर्म और संस्कृति अलग-अलग चीज़ें हैं। पर प्राण-प्रिया नहीं मानी। अगली कक्षा में पूछ ही लिया। उन्होंने मुस्कुरा कर उसे अपना पारिवारिक विधान और परंपरागत परिधान बताया और कहा कि क्रांति के लिए परिवार का दिल तोड़ना ज़रूरी नहीं है। कॉमरेड की यह बात तर्कसंगत लगी। जुट गए क्रांति के लक्ष्य के लिए। फिर बहुत तरह से मोह-भंग हुए चचा। विचारधाराओं में लाइनें अलग-अलग थीं। उनकी रूस की लाइन, हमारी चीन की लाइन, कुछ नक्सल हो गए। चारू मजूमदार और कानू सान्याल के अनुसार सत्ता बन्दूक की नली से निकलती थी। हमारे कुछ कॉमरेड्स को प्राण-प्रिया के साथ हमारा अधिक समय बिताना रास नहीं आया। सो मामला पार्टी की सदस्यता तक नहीं जा सका। बचपन के गांधी-नेहरू यदा-कदा विचारों में अंगड़ाई लेने लगते थे, लेकिन उनके चेले प्रभावित नहीं कर पाए। तो, हर समय राजनीति की सांस लेने के बावजूद किसी दल के सदस्य नहीं बने।
—अच्छौ भयौ। इंसान कूं इंसान की तरियां देखिबे कौ सऊर तौ बच गयौ।
—अपने असल गुरू हैं मुक्तिबोध। बार-बार उनका ज़िक्र करता हूं। उन्होंने कहा था—‘तय करो किस ओर हो तुम, सुनहले ऊर्ध्व आसन के दबाते पक्ष में, या अंधेरी निम्न कक्षा में तुम्हारा मन? तय करो किस ओर हो तुम।‘ विचारधारा में कंफ्यूजन कम फ्यूजन ज़्यादा होने लगा। उलझन के साथ सुलझन। सोमनाथ चटर्जी चालीस साल पार्टी की सेवा करने के बाद सुनहले ऊर्ध्व आसन के दबाते पक्ष में बैठे हैं या वहां बैठ कर अंधेरी निम्न कक्षा का हित-चिंतन कर रहे हैं, सोचने की बात है। सुलझाते-सुलझाते सोल्झेनित्सिन हो जाओ। वो भी सुपुर्दे-ख़ाक हो गए, सुरजीत सुपुर्दे-राख हो गए, सोमनाथ पार्टी-विधान छोड़ कर संविधान की सुपुर्दे-साख हो चुके हैं। चचा, नतीजा ये निकला कि सब अच्छे हैं, सब बुरे हैं और विचारधारा से बड़ी होती है जीवनधारा।
—अब आयौ ऐ न लाइन पै!
Friday, August 08, 2008
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13 comments:
अशोक जी ये चचा और चम्पू की बात मुझे बेताल और राजा की कहानी जैसी लगती है.... बेताल पूछता है और राजा उसका जवाब... सही सही देता है... अद्भुत संगम है इस नए चचा और चम्पू का....
पढ़कर मजा आ गया।
"विचारधारा में कंफ्यूजन कम फ्यूजन ज़्यादा होने लगा" बिलकुल सही कहा है आपने।
***राजीव रंजन प्रसाद
आपने उपमान गजब के होते हैं और स्थापनाएं उससे भी गजब। मजा ही आ गया।
और हाँ पेन्टिंग भी जोरदार है।
बहुत खूब.
मज़ेदार.
पढ़कर मजा आ गया।
आपने सच ही तो कहा है जो भी कहा है
vah dada kamal hai
jabalpur kab aa rahe hain
चम्पू..ऐं चक्रधर चचा ऐसा कैसे सोच लेते हैं?
आपकी सोच और भाषा पर पकड़, दोनों को सलाम!
मुझे पता नही था की आप एक बेहतरीन चित्रकार भी है.
आपकी पोस्ट बहुत अच्छी है...
बाय गौड ये आजादी की सालगिरह है या मुसीबत? दिल्ली वालो के लिए देश के लिए मनाया गया कोई भी उत्सव किसी मुसीबत से कम नहीं होता. दुनिया के सारे देश अपने कौमी त्यौहार बहुत खुशी से मनाते हैं मगर हमारे देश में कोई भी उत्सव बिना डर के नहीं मनाया जाता. उसकी वजह है की यहाँ नेताओ से लेकर भिकारी तक सब अपराधी हैं. मुसीबत तो उन नागरिको की है जिनको सरकार ज़बरदस्ती इन कौमी त्योहारों को मनाने को बाध्य करती है. 26 जनवरी हो या 15 अगस्त कोई भी दिन दिल्ली वालो के लिए किसी मुसीबत से कम नहीं होता. 'आतंकवादी भले कोई वारदात न करें मगर दिल्लीवालों के मन में दहशत का आतंक तो मचा ही देते हैं.' दिल्ली की सुचारू रूप से चलने वाली तमाम नागरिक व्यवस्थाये रुक जाती हैं. मेट्रो रेल का परिचालन बंद हो जाता है. सडको पर चेक्किंग इतनी ज़्यादा की जैसे नागरिको ने ही कोई गलती की है. पुलिस और सुरक्षा एजेन्सीयो को अपने नेटवर्क पर कोई यकीन नहीं है इसलिए अच्छा यही है सडको पर चेक्किंग इतनी बढ़ा दो की लोग ख़ुद ही घर से बहार न निकले. मेरे विचार में तो आने वाले समय में सरकार ये चेतावनी भी जारी कर सकती है की "15 अगस्त और 26 जनवरी को कृपया अपने घरो से ना निकले क्यूंकि कहीं भी किसी भी साइकिल में बम हो सकता है. कोई भी मारुती वेगन आर विस्फोटको से लदी हो सकती है. अपनी सुरक्षा आपके हाथ आज पुलिस व्यस्त है नेताओ के साथ." इतना सब देखकर तो लगता है की पिछले 61 सालो में नेताओ ने हमारे देश की कितनी दुर्गत बना दी है. यकीन कीजिये कौमी त्यौहार पर दिल से यही निकलता है की "भाड़ में गया नेशनल सेलेब्रेशन" सेलेब्रेट भी कोई बन्दूक की नोक पर कर सकता है? चलिए आज 13 अगस्त तो आ ही गई है. परमपिता परमात्मा से दुआ करते हैं नेशनल सेलेब्रेशन ठीक ठाक से हो, बिहारियो, बाग्लादेशियो, और सभी बहार के प्रान्तों से आए माननिये नागरिको समेत हम दिल्लीवालो को भी चैन की साँस मिले. बाय गौड अगर राज ठाकरे ने अपनी बात सही ढंग से कही होती तो शायद सबसे पहले समर्थन मैं देता. मगर एक अच्छा और क्रांतिकारी विचार राजनीति की भेंट चढ़ गया. छोडिये इस पर बाद में बात करेंगे. -अमित माथुर, दिल्ली, amitmathur.ht@gmail.com
पढकर आनंद आया सरजी !
जन्माष्टमी पर सब सुनेगे क्रंदन
जन्म लेंगे जब देवकी नंदन
गोपियों संग होगी रास लीला
यशोदा पुत्र का होगा अभिनन्दन
कवि छिप बैठे छज्जे से सटके
गुप-चुप माखन खायेंगे डटके।
आदरणीय गुरुदेव को
जन्माष्टमी की शुभकामनाएं
Painting bahut sundar hai.
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