—सच्चे नायक अपने आप कभी आगे नहीं आते चचा, आगे लाए जाते हैं। अपने आप आगे आते हैं खलनायक।
—तौ राज खलनायकन कौ ऐ?
—नहीं चचा, लोकतंत्र में खलनायक कभी राज नहीं कर सकते।
—कमाल ऐ? नायक आगे नायं आमैं, खलनायक राज नायं कर सकैं, फिर राज-काज कौन चलाय रह्यौ ऐ?
—वो एक तीसरी प्रजाति है चचा। न नायक, न खलनायक, वे हैं दखलनायक। ये दखलनायक हमेशा दखल देते हैं। नायक और खलनायक आगे न आ जाएं, इसलिए दखल देते हैं। बात थोड़ी उलझी हुई सी लग सकती है चचा।
—तू सुलझाय दै।
—चचा, सब जानते हैं कि खलनायक मूर्ख और अहंकारी होता है। उस पर तरस आता है। अपनी झूठी अकड़ और बड़बोलेपन के कारण उस पर हंसी भी आती है। लोग उससे डरते और किनारा करते हैं। लेकिन सब जानते हैं कि उसे एक न एक दिन मरना है। और खलनायक सदियों से मरते आ रहे हैं। उनके मरने पर खुशियां मनाई जाती हैं। चचा, ये दखलनायक, खलनायक से ज़्यादा ख़तरनाक होता है, क्योंकि, न तो अहंकारी होता है और न ही मूर्ख। न राक्षसी अट्टहास करता है और न बड़बोला होता है। ये सारे काम नेपथ्य में करता है। पर्दे के पीछे। इसका सबसे पहला काम होता है नायकों की काट करना। चचा, नायक और खलनायक दोनों भोले होते हैं। अंतर इतना ही है कि खलनायक अहंकारी होता है और नायक स्वाभिमानी। नायक समर्पण और निष्ठा के साथ जनहित में काम करता है। खलनायक निजिहित में मनमानी। दोनों के द्वारा किए गए कार्यों के परिणाम साफ दिखाई देते हैं। नायक काम का दिखावा नहीं करता। वह श्रेय भी नहीं चाहता पर एक चीज़ उसे सहन नहीं हो पाती।
—वो कौन सी चीज?
—वो ये कि कोई उसके काम पर उंगली उठाए। यही उससे सहन नहीं होता। और इन दखलनायकों का काम उंगली उठाना ही होता है। पर दखलनायक चालाक होते हैं, वे उसके सामने उंगली नहीं उठाते।

—दखलनायक के प्रभाव में महाप्रभु चौं आ जायं रे?
—क्योंकि नायक और महाप्रभु में सीधा-संवाद प्राय: नहीं होता। जहां-जहां महाप्रभु नायकों की पहचान रखते हैं, वहां काम अच्छा होता है, लेकिन हमारे देश के महाप्रभु या तो अंधे हैं या फिर उनके भी अपने धंधे हैं। वे नायकों की उपेक्षा करते हैं।
—ऐसौ चौं भइया?
—महाप्रभु ‘ना’ सुनना पसंद नहीं करते और नायक हर बात के लिए ‘हां’ नहीं करता। दखलनायक के पास महाप्रभुओं के लिए ‘हां’ के अलावा और कुछ नहीं होता और अपने अधीनस्थों के लिए ‘ना’ के अलावा कुछ नहीं होता। दखलनायक बिचौलिए होते हैं।

—चम्पू! भासा में तेरी दखलंदाजी ते मोय बड़ौ मजा आवै।
