-चौं रे चम्पू! तेरौ लल्ला तौ आस्ट्रेलिया में ई ऐ न?
—उसे गए हुए तो दस साल हो गए चचा! दो साल के लिए पढ़ने भेजा था, काम मिला, नाम मिला, दाम मिला तो वहीं जम गया। इंटरनेट के ज़माने में लगभग रोज़ाना बात होती रहती है। दूरी का अहसास नहीं होता। इधर, दो-तीन दिन से शुभचिंतकों के बड़े फोन आ रहे हैं। बेटा वहां ठीक तो है?
—हां बता, काई परेसानी में तौ नायं?
—नहीं, किसी परेशानी में नहीं है। चचा, मैं पहली बार आस्ट्रेलिया नाइंटी एट में गया था। वहां मिले हिन्दी-उर्दू-संस्कृत पढ़ाने वाले प्रो. हाशिम दुर्रानी, डॉ. पीटर ओल्डमैडो और डॉ. बार्ज। बड़ा अच्छा लगा कि वे लोग हिन्दी-उर्दू पढ़ाने के लिए नए-नए पाठ्यक्रम बना रहे थे। भव्य इमारत, भव्य लोग। अगले साल पुत्र को भेज दिया।
चार सैमिस्टर की पढ़ाई थी। हर सैमिस्टर के चार लाख रुपए देने थे। पहली किस्त मैंने प्रोविडेंट फण्ड से निकाल कर दी और उसे आश्वस्त भी कर दिया कि अगली का जुगाड़ भी लगाएंगे बेटा। सात महीने बीत गए उसने पैसा नहीं मांगा तो चिंता हुई। हड़बड़ा कर फोन मिलाया। उसने हंसते हुए बताया कि उसने पढ़ाई के दौरान ख़ाली वक्त में काम करके इतना पैसा कमा लिया है कि अब फण्ड से पैसा नहीं निकालना पड़ेगा। खुशी भी हुई और स्वावलंबी होते हुए बालक को अब हमारी सहायता की ज़रूरत नहीं है, इस अहसास से कुछ मलाल-सा भी हुआ। भई हम किसके लिए कमा रहे हैं? दिन-रात काम क्यों करता है? पढ़ाई कर ना, जिसके लिए भेजा है। चचा, उस देश में मेहनत और प्रतिभा की कद्र होती है। अगले साल हम चले गए, जब यहां गर्मियों की छुट्टियां हुईं। सिडनी विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा विभाग ने हमें विज़िटिंग स्कॉलर बना दिया। वहां के छात्रों को पढ़ाने का मौका मिला। कई साल मिला। प्रो. हाशिम दुर्रानी ने आपके इस चम्पू की कविताओं के आधार पर पाठ्यक्रम भी बनाया। लाइब्रेरी में निर्बाध प्रवेश के लिए अपना इलैक्टॉनिक कार्ड भी बन गया था। बड़ा आनंद आया चचा। वहां के विश्वविद्यालय पैसा लेते ज़रूर थे पर ज्ञान भी भरपूर देते थे। लेकिन इन पिछले दस वर्षों में शिक्षा ऑस्ट्रेलिया में एक फलता-फूलता उद्योग बन गया। विभिन्न विश्वविद्यालय सब्ज़ बाग़ दिखा कर छात्रों को बुलाने लगे।
—ये जो मैल्बर्न में भयौ, जे कैसे भयौ?
—वही तो बता रहा हूं चचा। पैसा आने लगा, तो वहां के विश्वविद्यालय सदाशयता खोने लगे। हिन्दी-उर्दू पढ़ाने से उन्हें पहले भी पैसा नहीं मिलता था पर चलाते थे। पिछले साल सिडनी विश्वविद्यालय के प्रशासन ने कह दिया कि भारतीय समाज के लोग मिलकर अगर इतने हज़ार डॉलर नहीं देते तो हम ये विभाग बन्द कर देंगे। भारतीय लोग भाषा के नाम पर उतना पैसा दे नहीं पाए और विभाग हो गया बन्द। उन्हें तो चाहिए थी माल-मलाई। फोकट का दूध बांटने के लिए क्यों चढाते कढ़ाई! अब लगभग एक लाख भारतीय विद्यार्थी चढ़ावा चढ़ाते हैं और अपने माता-पिता पर बोझ न बन जाएं, इस नाते रात-रात भर काम करते हैं। हॉस्टिल की सुविधाएं हैं नहीं। विश्वविद्यालय के पास मिलते हैं महंगे मकान, इसलिए दूर-दराज के उपनगरों में कम किराए पर रहते हैं। काम के बाद मौज-मस्ती और पार्टीबाज़ी वहां के नौजवानों का आम सांस्कृतिक शगल है। हमारे मेधावी-मेहनती छात्र अपनी आर्थिक सीमाओं के रहते प्राय: उससे दूर रहते हैं। चचा, वहां के स्थानीय बेरोज़गार नौजवानों को ‘डोल’ के नाम पर हर हफ्ते ढेड़-सौ दो सौ डॉलर का बेरोज़गारी भत्ता मिलता है। कल्याणकारी राज्य के लिए ‘डोल’ एक स्वस्थ परम्परा है। यह डोल उदरपूर्ति के लिए तो काफ़ी है लेकिन मदकची अपराधियों की मौज-मस्ती नहीं हो पाती उसमें। उतने से डोल से तन डोले न मन डोले, ईमान डोले। भारतीय एवं तीसरी दुनिया के छात्र बन जाते हैं इन रुग्ण डोलिये और मनडोलिये अपराधियों के कोमल शिकार। ये छोटी-मोटी घटनाओं की शिकायत तक नहीं करते। देर रात में तरह-तरह का काम करने के बाद, अपनी उस दिन की कमाई, लैपटॉप और मोबाइल के साथ जब ये रेल या बस से उतर कर सुनसान सड़कों पर पैदल चल रहे होते हैं तब निकल आते हैं अपराधियों के पंजे और कसने लगते हैं शिकंजे। अपराध का अस्लवाद नासमझी के कारण धीरे-धीरे नस्लवाद का रूप अख्तियार करने लगता है। ऑस्ट्रेलिया हमारा मित्र देश है, यदि वह विश्वविद्यालयों की धन-लोलुपता पर और अपने अपराधियों पर अंकुश नहीं लगाएगा तो……..।
—तौ का?
—मैं अपने परिचय में गर्व से लिखता हूं ‘पूर्व विज़िटिंग प्रोफ़ेसर, सिडनी यूनिवर्सिटी’, हटा दूंगा चचा।
Friday, June 05, 2009
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13 comments:
बहुत ही संतुलित प्रस्तुति...
वाह चकल्लस के आनंद...
बहुत बढिया प्रस्तुति।
क्या भारत की शिक्षा व्यवस्था ऐसी नहीं बन सकती कि देश की प्रतिभाओं को बाहर का मुँह न देखना पड़े?
हर साल भारतीय छात्र कई हजार करोड रुपये फीस की एवज में आस्ट्रेलिया को दान देते जा रहे हैं. इतने रुपयों में हिंदुस्तान में कई आला दर्जे के विश्वविद्यालय खोले जा सकते हैं. लेकिन हम ऐसा बिलकुल नहीं करेंगे. गोरी चमडी की गुलामी हमें हमेशा भाती रहेगी.
achha hai !
"अपराध का अस्लवाद नासमझी के कारण धीरे-धीरे नस्लवाद का रूप अख्तियार करने लगता है"-
great observation.
गुरूजी, आपने अपने इस पोस्ट मैं जो लिखा है, उससे मैं शत-प्रतिशत सहमत हूँ. परन्तु मुझे लगता है की यह सिर्फ इस मुद्दे के छात्र पक्ष की बात है. क्या आपको नहीं लगता की नस्लवाद की जड़ें जितनी प्रतीत होती हैं, उससे बेहद गहरी हैं? क्या वजह है की ना केवल विदेशी छात्र, अपितु बुजुर्ग विदेशी लोग एवं विदेशी संसथान (पुलिस) भी कहीं ना कहीं इस भेदभाव मैं लिप्त है?
मेरा मानना है की बात इस बवंडर की उत्पति आर्थिक कारणों के साथ-साथ वही सदियों पुरानी संकीर्ण मानसिकता के कारण भी हुई है.
कृपया इस बारे में अपने विचार प्रस्तुत कर मुझे इस विषय को और अच्छी तरह से समझायें.
धन्यवाद
आपका प्रशंसक एवं शिष्य
अभिषेक
अरे भाई चक्कर चाचा...जय हो...जय हो....!!....वो क्या है कि पहले तो राम-राम ही बोले था मैं....मगर जद से यो गुलजार जी ओर रहमान जी को गीत आस्कोर पायो ना...तब सै जय हो-जय हो कहन की आदत पढ़न लाग री सै....ओर बता चक्कर चाचा तू किसोक सा....तैने तो मस्ती-ही-मस्ती होसी....क्यूँ ठीक बोल्यो ना मैं..??....में तो आज ही आयो तेरो ब्लॉग पे...तू तो चाचा इत्तै भी मस्ती ही कातै सै....ठीक है....ठीक है भाई....काट....तेरी ही जिंदगानी...तू नहीं काटेगा तो कौन काटेगा.....ठीक है....बाकी बातां बाद में....फिलहाल तो तू आत्थै मजो ले....!!
आदरणीय भाईसाहब प्रणाम
ओम जी को लेकर एक पोस्ट लगाई है जिसमें आपके और ओम जी के रिशतों का जिक्र है । समय हो तो देखें । http://subeerin.blogspot.com/
आपका अनुज
सुबीर
In ghatnaon ki pristhbhumi ki sarthak jaankari mili is post se. Dhanyavad.
यह हिंसा नसलवादी है या नहीं का पता तो इस बात से भी लग सकता है की क्या सिर्फ भारतीय छात्रों पर ही हमला होता है या और देशों के छात्रों पैर भी. क्या सिर्फ भारतीये छात्र ही रात को कम कर के लोटते है ?
Very thought provoking...!
&
Why do we look forward to education abroad???...does India not provide quality education...if yes,.....WHY?
Or is it the gloss that attracts us all...???
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