Friday, September 25, 2009

हिन्दी के शुतुरमुर्ग और चतुर मुर्ग

—चौं रे चम्पू! का चल रह्यौ ऐ इन दिनन?

—रमज़ान का महीना खत्म हुआ, चाँद की नूरानियों से मुहब्बतें जगमगा उठीं, ईद का गले-मिलन हो चुका। इन दिनों नवरात्र के समारोह चल रहे हैं, रामलीलाएं चल रही हैं। दशहरा पर रावण के मरने का इंतज़ार है। हां, ...और चल रहा है हिन्दी पखवाड़ा।

—हिन्दी पखवाड़े में भासान कौ गले-मिलन है रह्यौ ऐ कै अंग्रेजी की ताड़का के मरिबै कौ इंतजार?

—क्या बात कह दी चचा! मैं तो गले-मिलन सम्प्रदाय का हूं। हिन्दी की भलाई इसी में है कि भारत की विभिन्न भाषाएं उससे गले मिलें। अपने-अपने भावों और अनुभावों का आदान-प्रदान करके अभावों के घावों को भरें। हिन्दी को अपनी सहोदरा और सहेली भाषाओं से ईदी मिले। और चचा, अंग्रेज़ी की ताड़का रावण की तरह कभी मर नहीं सकती। उसे ताड़का कहना भी ग़लत है अब। पूरा विश्व उसकी ओर ताड़ रहा है और वह ताड़ की तरह ऊंची होती जा रही है। भारत में उस ताड़ पर लटके हिन्दी के नारियल धरती पर हरी घास की तरह फैलती अपनी भाषा के विस्तार को देखते हुए भी अनदेखा करते हैं। वे मानने को तैयार नहीं हैं कि हिन्दी को आज पूरी दुनिया से ईदी मिल रही है। हिन्दी के अख़बार देश में सबसे ज़्यादा पढ़े जाते हैं। हिन्दी फिल्मों और टेलिविज़न धारावाहिकों ने अपनी पहुंच न केवल देश में बल्कि विदेशों तक में बढ़ा ली है। बोलने वाले लोगों की संख्या की दृष्टि से हिन्दी अगर नम्बर एक पर नहीं है तो नम्बर दो पर तो अवश्य है। अंग्रेज़ी के ताड़ पर चढ़े लोगों को हिन्दी के विस्तार के आंकड़े पसन्द नहीं आते।

—कौन लोग ऐं जिनैं पसन्द नायं आमैं?

—चचा क्या बताएं? दोस्त लोग ही हैं। जैसे मैं अड़ जाता हूं, वैसे वे भी अड़े हुए हैं। वे पूर्ण यथार्थ से आंखें मूंदकर अपने अनुमानों और खंड-यथार्थ पर आधारित आंकड़े पेश करते हैं। जिस देश का जनतंत्र अस्सी प्रतिशत हिन्दी बोलने-समझने वालों पर टिका है उसे पाँच प्रतिशत अंग्रेज़ी बोलने वाले चला रहे हैं। माना कि अंग्रेज़ी बड़ी समृद्ध भाषा है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसका प्रभाव है। वह चीन, जापान, रूस जैसे देशों द्वारा भी अपनाई जा रही है, जिन्होंने अपनी भाषा में ज्ञानोत्पादन और उच्चस्तरीय शिक्षा-साहित्य का न केवल प्रबंध कर लिया था, बल्कि उसके ज़रिए उपलब्धियां पाकर भी दिखा दी थीं। चचा, आज हिन्दी भी बढ़ रही है और अंग्रेज़ी भी। हिन्दी को मुहब्बत की ईदी मिल रही है और अंग्रेज़ी को औपनिवेशिक लंका की स्वर्ण मुद्राएं। अंग्रेज़ी पैसा कमा कर दे रही है और हिन्दी मुहब्बत। ज़ाहिर है कि दोनों की अपनी-अपनी ताक़त हैं। मुहब्बत हार भी सकती है और पैसे को हरा भी सकती है।

—मुहब्बत कभी नायं हार सकै लल्ला। मुहब्बत के रस्ता में कौन आड़े आय रए ऐं जे बता?

—ज़्यादा नहीं बहुत थोड़े लोग हैं। लेकिन जब वे बात करते हैं तो उसमें दम नज़र आता है। ऐसे लोग जाने तो हिन्दी के कारण जाते हैं, लेकिन अपनी धाक अंग्रेज़ी के कारण जमाते हैं। अंग्रेज़ी का हौआ दिखाकर घनघोर निराशावादी बात करते हैं कि हिन्दी सिर्फ ग़रीबों-गुलामों की भाषा बनकर रह जाएगी। उनके सामने अगर कह दो कि हिन्दी फैल रही है तो उनके चेहरे फूल जाते हैं। वे हिन्दी अख़बारों, हिन्दी चैनलों से ही उदरपूर्ति करते हैं पर इधरपूर्ति करने के बजाए उधरपूर्ति करते हैं। ऐसे ही एक अंतरंग मित्र का कहना है कि हिन्दी वालों की हालत शुतुरमुर्ग जैसी है जो खतरा देखकर अपनी गर्दन रेत में घुसा देता है।

—तैनैं का जवाब दियौ?

—मैंने कहा दोस्त प्रवर हिन्दी में चतुर मुर्ग भी बढ़ते जा रहे हैं, जो हिन्दी के शुतुरमुर्ग की चोंच को रेत से निकालने में लगे हुए हैं। उसे बता रहे हैं कि अंग्रेज़ी हमला नहीं कर रही है शुतुरमुर्ग, सहयोग दे रही है। हिन्दी के शब्दकोश को निरंतर शब्द प्रदान कर रही है। अभी तक अंग्रेज़ी ने भाषाई मुर्ग़ों को लड़ाया है। अब वक्त आया है कि हम मुर्ग़े अपनी कलंगी ऊपर करके शुतुरमुर्ग को दिखाएं और उसे बताएं कि तू पक्षियों में सबसे बड़ी प्रजाति का है। तेरी गर्दन और पैर सबसे लंबे हैं। तू वृहत है और आवश्यकता पड़ने पर बहत्तर किमी प्रति घंटे की गति से भाग सकता है जो इस पृथ्वी पर पाये जाने वाले किसी भी अन्य पक्षी से अधिक है।

—और कोई फंडा?

—शुतुरमुर्ग से मिलता है सबसे बड़ा अंडा।

8 comments:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

"मुहब्बत कभी नायं हार सकै लल्ला। ..."

अरे चच्चा, ई मुहब्बत-वुहब्बत बातें हैं, बातों का क्या...आज के ज़माने में असल चीज़ तो रुपया है, बाप बड़ा, ना भैया:)

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

हिन्दी को अब अंग्रेजी का पिछलग्गू मानने के बजाय हिन्दुस्तानी भाषाओं का अग्रदूत बनाना होगा। केवल हिन्दी ही एक मात्र ऐसी भाषा है जो भारतवर्ष को एकता के सूत्र में पिरो सकती है।

अंग्रेजी निश्चित रूप से अन्तर्राष्ट्रीय भाषा है और दुनिया के अलग-अलग हिस्सों को जोड़ने के काम आती है। लेकिन भारत के ९० प्रतिशत लोगों के लिए यह देश ही पूरी दुनिया है। भारत को जोड़े रखने के लिए हिन्दी को अपनाना पड़ेगा।

आपकी पोस्ट बहुत सामयिक और प्ररक है।

अजित गुप्ता का कोना said...

मैं त्रिपाठी जी की बात से सहमत हूँ कि हिन्‍दी को अपने देश में अग्रणी बनाना होगा। आज उसे अंग्रेजी नहीं पछाड़ रही अपितु हमारी अपनी भाषाएं ही उसके राह का कांटा बन रही हैं।

डॉ टी एस दराल said...

हिंदी के प्रोत्साहन में आपका प्रयास प्रशंसनीय है. इस प्रयास में हम आपके पीछे पीछे हैं.
वैसे अंग्रेजी अपनी जगह और हिंदी अपनी जगह, दोनों ठीक हैं.

शिवम् मिश्रा said...

हिन्दी पखवाड़े की बहुत बहुत शुभकामनायें आपको !

Satya Vyas said...

अंग्रेज़ी के ताड़ पर चढ़े लोगों को हिन्दी के विस्तार के आंकड़े पसन्द नहीं आते।
sat vachan ...........

Sumit Pratap Singh said...

गुरु जी,
सादर ब्लॉगस्ते,
हम हिंदी माता के पुत्र हिंदी की पताका विश्व में फहराएंगे.
जय हिंद! जय हिंदी!

vishal hurkute said...

hindi ki baatan to ghani hogi pan yaa baat batavo ki ke khati koi kare kai, aapna chhoa-chhoriyane english schoolan me padhave or fir keve bharat me bina english ke ab chalo nee jave yaa ko koi baat nee hoi bhaya.