—चौं रे चम्पू! मिठाई की जगै नमकीन दै गयौ, तोय सरम नायं आई?
—तुमने सुना नहीं चचा, अधिकांश मिठाइयां सिंथैटिक दूध और सिंथैटिक खोये से बनाई जा रही हैं? बगीची पर रह कर जो सेहत आपने बनाई है उसे बिगाड़ने का मुझे कोई अधिकार नहीं। मावे में गैया मां का दूध नहीं है। उसमें है पाउडर, सूजी, मैदा, वनस्पति या चर्बी वाले तेल, और तो और ब्लॉटिंग पेपर भी। मावे की मिठाइयां चार-पांच दिन में खराब हो जाती हैं। नमकीन चलेगी महीने भर।
—नमकीन कौन से तेल में तली ऐ, जाकौ ज्ञान है तोय? मिलावट तौ नए जमाने कौ उपहार ऐ, दूध की नदियन के देस में दूध-दही कौ अकाल! कमाल है गयौ भइया।
—चचा पिछले दिनों एक रेल यात्रा में कवि उदय प्रताप सिंह जी ने दूध की कमी के दो दिलचस्प कारण बताए। पहला ट्रैक्टर और दूसरा फर्टिलाइजर।
—सो कैसै भैया?
—देखिए खेती-बाड़ी का सारा काम बैलों के भरोसे होता था। जुताई, बुवाई, बिनाई, बरसाई, सिंचाई और अनाज की सप्लाई, सारा काम बैल करते थे। हल, रहट और गाड़ी, बैल रहते थे इनके अगाड़ी। घर में गैया न हो तो बैल कहां से आएं? ट्रैक्टर ने बैल, गैया और बछिया की ज़रूरत ख़त्म कर दी। इन्हीं से मिलता था खाद के रूप में गोबर, उसकी जगह आ गए यूरिया जैसे फर्टिलाइजर। हमारे देश में गोवध को पाप भी माना जाता है। सो लोगों ने पालना ही बन्द कर दिया। अब दूध के लिये निहारो, सिंथैटिक पाउडर की तरफ और होने दो पुलिस-प्रशासन की नाक के नीचे धड़ल्ले से मिलावट का कारोबार।
—तेरे उदय प्रताप की बात में दम ऐ। लाला भगवान दीन नै गैया पै एक कवित्त लिखौ ओ। हमेसा अपनी सुनायौ करै, आज हम तेऊ सुनि लै … ‘थोरे घास पानी में अघानी रहै रैन दिन, दूध, दही, माखन मलाई देत खाने को। / पूतन तें खेती करवाय देत अन्न-वस्त्र, जाके धड़ चाम आंत गोबर ठिकाने को। ऐसी उपकारी की कृतज्ञता बिसारि अब, भारत निवासी मारे फिरें दाने-दाने को।’
—यानी समस्या सौ साल पहले भी थी, लेकिन तब तक ट्रैक्टर, फर्टिलाइजर नहीं आए थे। अब के ‘भारत निवासी’ उपभोक्ता में बदल गए हैं चचा। बाज़ार की चीजें ज़रूरतों को व्यर्थ ही बढ़ा रही हैं। पहले दीपावली-दूज पर खांड-बताशे बांटे जाते थे। ज्यादा हुआ तो बेसन-बूंदी के लड्डू! अब देखिए, एक से एक फ़ैंसी मिठाई बाज़ार में आई। मिलावटी हवा-पानी के सेवन से हम हर प्रकार की मिलावट को पचाने में समर्थ होते जा रहे हैं। माना कि दवाइयां आदमी की उम्र बढ़ा रही हैं, पर साथ में मिलावट का ज़हर भी पिला रही हैं। लाला भगवान दीन होते तो देखते कि भगवान की कृपा से भारत में लाला भी बढ़े हैं और दीन भी। एक अरब सत्रह करोड़ की आबादी वाले देश में लगभग दो तिहाई लोग गांव में रहते हैं और गावों में घुसता जा रहा है शहर। शहर हमारे ग्रामीण-जन को उपभोक्ता में तब्दील कर रहा है। दांतुन, रीठा, मुल्तानी मिट्टी और रेह के दिन अब लद गए। अब वहां टूथपेस्ट, शैम्पू, डिटर्जैंट और कॉस्मैटिक्स पहुंच चुके हैं, क्योंकि इनसे पहले पहुंच चुका था टी.वी.। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय व्यापारियों के लिए धंधे का भविष्य गावों में ही है। शहर के उपभोक्ता अपनी ज़रूरतों की चीज़ें कर्ज़ ले लेकर खरीद चुके हैं। अब दुपहिए, चौपहिए, गांवों की मांग बन रहे हैं। गांवों में कारों की खरीदारी में दस प्रतिशत का इज़ाफा हुआ है। महिन्द्रा स्कोर्पिओ पहले बीस प्रतिशत जाती थी, अब पैंसठ प्रतिशत। मोबाइल इस्तेमाल करने वाले दस करोड़ लोग गांवों में रहते हैं। गांवों में गाय नहीं मिलती तो क्या, पॉप गायन मिलने लगा है। गांव हो या शहर, अमीरी जी भर कर नाच रही है और गरीबी ट्रैक्टर शाह के द्वारा कुचली हुई हालत में खेत की मेंड़ पर पड़ी है। एक ओर उपभोक्ता के सामने मिलावटी माल का शानदार पोषण है तो दूसरी ओर अन्न का अभाव और कुपोषण है। आज भारत का उपभोक्ता-बाज़ार विश्व में बारहवां स्थान रखता है, बाज़ार के ग्लोबल गुरू कहते हैं कि यह दो हज़ार पच्चीस तक नम्बर वन के आस-पास आ जाएगा।
—आंकड़े दिखाय कै डरा मती! मोय तौ अपनी गैया की सानी कन्नी ऐ और पानी दैनौ ऐ। खालिस दूध की खीर खाइबे आ जइयो, मोय नमकीन खाय कै गमगीन नायं हौनौ।
Friday, October 23, 2009
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10 comments:
अशोक जी इस व्यंग्य के लिये बधाई स्वीकार करें ।
बहुत ही उत्कृष्ट कोटि का व्यंग्य सर... बधाई..
बहुत नीक लगा भाई...बहुतै....
गाँव में सभी सुविधाएँ उपलब्ध तो हैं, लेकिन फिर भी हमारे किसान आत्महत्या करने पर मजबूर हैं.
मैंने उडीसा में एक गाँव में एक ७० साल की बुढिया को हैण्ड पम्प पर टूथ ब्रश करते हुए देखा सिर्फ आधा कपडा पहने हुए . वहीँ पास में दो लोग मिलकर नाली से बास्केट में रस्सी बाँध खेत की सिंचाई कर रहे थे.
विकास और पिछडापन एक साथ.
GURU JI
SAADAR BLOGASTE
ACHCHHA HAI, BADIYA HAI
AUR TAJGI BHARAA HAI.AAPKA YAH LEKH...
Sir ,I have seen you recently in NTPC vindhyanagar and witnessed some of your works , but this piece is a masterstroke . Hats off to you sir
प्यारे दोस्तो, प्रशंसा किसे अच्छी नहीं लगती, आपको व्यंग्य अच्छा लगा, मैं मानता हूं कि आपने व्यंग्य नहीं किया, हृदय से चाहा है। पहले मेरे ब्लॉग में पायल अपनी मरज़ी का फोटो डाल दिया करती थी, अब वह एनडीटीवी में काम करने लगी है, व्यस्त हो गई है। मैं भी हिन्दी अकादमी तथा अन्य संस्थाओं के कार्यजाल में फंसा हुआ हूं। उसकी कमी बेहद अखरती है, पर हर किसी को अपनी प्रगति करने का अधिकार है। मेरी पायल को हार्दिक शुभकामनाएं हैं। जहां रहे ख़ूब अच्छा काम करे। मेहनत करे नाम कमाए। अगली बार कोशिश करूंगा कि ख़ुद चित्र भी डालूं। मेरे पास चित्रों का अनंत ख़ज़ाना है। पर कम्बख़्त वक्त तो मिले। पायल के कारण पराश्रयी हो गया था, अब निराश्रयी होकर काम करूंगा। ब्लॉग पर आते रहिए और भी मज़ेदार माल परोसूंगा। लवस्कार! अशोक चक्रधर
badhiya vyangya hai... aur main vyangya kar raha hun.. ha ha ha..
बहुत खूब अच्छी अच्छी रचना
बहुत बहुत आभार
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