—चौं रे चम्पू! ढाई आखर प्रेम का पढ़ै सो पंडित होय कै दंडित होय?
—चचा जवाब तुम्हारे पास है और सवाल मुझसे पूछते हो। पंडित कैसे हो जाएगा? पंडितों ने तो गोत्र, जाति, धर्म वाले सारे रगड़े फैलाए हुए हैं। वे कहां समझते हैं प्रेम-प्यार की भाषा, वे लाते हैं रार-तकरार की भाषा। अगर कहीं प्यार कर बैठे आप, तो खप से खा जाएगी खाप। उनका कहा मान लो चुपचाप, वरना बन जाओगे मसान की भाप।
—पहलै पाबन्दी बस्स दो-तीन गोत्रन की रहती।
—फिर पांच गोत्रों तक हो गई। सामाजिक समर्थों और आर्थिक रूप से शक्तिशाली लोगों ने पच्चीस गोत्रों तक मामला पहुंचा दिया। जो गोत्र समर्थ हैं, जिसके ज्यादा लोग हैं उन्हीं की खाप पंचायत में वकत होती है। उन्हीं का दबदबा होता है। ढाई आखर तो दब-दबा के रहते हैं। पंचायत में तो पंचाक्षर— ’ख़बरदार’! कितने प्रकार की आर्थिक, सामाजिक, मानसिक कुंठाएं हैं चचा आप कल्पनाएं नहीं कर सकते। यही पंचायत के लोग चुपचाप दलित बस्तियों में मुंह मारते दिखाई दे सकते हैं। ये देह के धर्म को ढाई आखर से नहीं नापते। ये नापते हैं, सात फिट की लाठी के बल से। बाहुबली भुजाएं और भोग। उनके लिए ढाई आखर तो है एक रोग।
—तलवार दुधारी, कट्टा और कटारी!
—पहले प्यार करने वाले कहा करते थे— मार कटारी मर जाना, मगर हाय दिल न लगाना। ठीक कहा चचा, अब खुद कटारी मारने की जरूरत नहीं है, दूसरे ही कटारी मारने के लिए आ जाएंगे। मीरा बाईं कह गईं थीं— जो मैं ऐसा जाणंती, प्रीत किए दुख होय, नगर ढिंढोरा फेरती, प्रीत न करियो कोय। मीरा बाईं तो बहुत पहले समझ गई थीं कि ये कानून को न मानने वाली पंचायतें प्रेमियों पर कुठाराघात करेंगी।
—अरे लल्ला, अगर प्यार में अड़ंगा न लगै तो संसार की आधी ते जादा कहानी तौ खतम है जांगी।
—लेकिन चचा कहानी इतनी दुखांत भी नहीं होनी चाहिए। प्रेम अभी परवान भी नहीं चढ़ा कि आपने उनको फांसी चढ़ा दिया। दिल जुड़ जाते हैं तो कई बार कुटुम्ब टूट जाते हैं, लेकिन फिर कुटुम्ब पिघल भी जाते हैं और प्रेम की सत्ता को स्वीकार कर लेते हैं। यह कहानी तो समझ में आती है, लेकिन मामला अगर गठबंधन के बजाए मूंछ ऐंठन का हो जाए और पंडित फेरे दिलाने से इंकार कर दे तो ढाई आखर क्या करेगा भला। ढाई घर चलने वाले घोड़ों पर सवार होकर पंच आ जाते हैं। शतरंज शत-रंज बन जाती है, जब मौत अपनी बिसात बिछाती है। ढाई घर की चाल चलने वाले घोड़े प्यार के ढाई आखर को कुचल देते हैं। आपने वो दोहा सुना होगा— दृग उरझत, टूटत कुटुम्ब, जुरत चतुर-चित प्रीत, परत गांठ दुर्जन हिए, दई नई यह रीत।
—सुनौ तौ ऐ, पर मतलब समझा।
—चचा जो चीज़ उलझती वही टूटती है, जो टूटती है वही जुड़ती है, और जो चीज जुड़ती है उसी में गांठ पड़ती है। यहां सारा मामला गड़बड़ है। उलझे तो दृग, टूट गए कुटुम्ब, जुड़ गए चतुर चित, गांठ पड़ गई दुर्जनों के हृदय में। अब ये बिहारी के जमाने में नई रीत रही होगी। तब से अब तक पुरानी पड़ चुकी है, लेकिन खत्म होने का नाम नहीं ले रही। दुर्जनों की गांठें कैसे खुलें चचा, सवाल ये है।
—सरकार चौं नाय कछू करै?
—अरे चचा सरकार में भी तो वही लोग होते हैं। जिस प्रांत में ऐसा सब हो उसके अधिकारी भी तो वहीं से निकल कर आते हैं, वे भी उसी समाज के हिस्से होते हैं, उनका दिमाग भी वही समाज बनाता है, वो कोई संविधान पढ़कर बैठते हैं वहां पर। वे कानून की किताबों के अनुसार समाज को थोड़े ही चलाते हैं। जब तक भयंकर हाहाकार और मारकाट न हो जाए, पुलिस भी एफआईआर नहीं लिखती है। पुलिस के जवान भी खाप पंचायत के चौधरियों की मूंछ के नीचे पले हुए बच्चे ही होते हैं। मूंछों के साए में पलने के बाद उनकी मूंछें कोई अलग किस्म की नहीं होती हैं। ठीक कहा आपने— ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो दंडित होय।
—चल मेरौ अगलौ सवाल सोचि कै रख कै महिमामंडित कब दंडित हुंगे?
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
9 comments:
टी वी पर प्रेमी प्रेमिका का , जो अब तक पति पत्नी भी बन चुके थे , साक्षात्कार आ रहा था । पत्नी बहुत कुछ बोले जा रही थी । ज़ाहिर है , बोलने में बहुत तेज़ थी । पति महोदय की जब बारी आई बोलने की , तो उसने कहा --हमने प्यार किया है । उसके बाद जितने भी सवाल पूछे गए , उसका एक ही ज़वाब था --हमने प्यार किया है । इसके अलावा वह कुछ नहीं बोल पा रहा था ।
फिर एक दिन , जो ज्यादा दूर नहीं था , सारा प्यार उड़नछू हो गया । फिर पुलिस , कोर्ट कचेहरी और टी वी वालों का तमाशा ।
एक और (प्रेम ) कहानी का अंत हो गया , बिना किसी खाप के ।
दस में से नौ प्रेम कहानियों का अंत शायद ऐसे ही होता है ।
आखिर क्या है ये प्रेम , जिस पर कितने ही हीर रांझे , शीरी फरहाद कुर्बान और न जाने कितने फसाद हो चुके हैं ?
गुरु जी आपका लेख तो अच्छा है.किन्तु मैं सगोत्र विवाह के पक्ष में नहीं हूँ.हमारा धर्म हिन्दू धर्म एक वैज्ञानिक धर्म है जिसमे सगोत्र विवाह मना है जैसा कि मुझे ज्ञात है एक गोत्र में विवाह से उत्पन्न संतान शारीरिक व मानसिक रूप से गड़बड़ झाला हो सकती है और हम मुस्लिमों की भाति कबीलाई संस्कृति के हैं नहीं जो अपने गोत्र की लड़की यानि अपनी चचेरी बहन आदि से ही ब्याह रचा लेते है.
sundar laikh..sumit se main bhi sahmat hun
भाई जी . व्यंग्य पढकर आनन्द फ्राई हो गया ।
गुरु जी!
सादर ब्लॉगस्ते!
कृपया निमंत्रण स्वीकार करें और पधारें "सुमित के तड़के गद्य" पर " एक पत्र ए.टी.एम. के पापा के नाम " आपकी प्रतीक्षा में है...
Maan-niya Chakradhar ji,
Aap jaise guni aur vidhwan mahapurush k kisi lekh ki vivechana toh hum jaise ausat darje k prani k liye sambhav nahi parantu yadi mujhe kuch kehna hi ho toh yahi kahunga ki vishay-vastu ko yadi ek taraf rakh diya jaaye to bhasha-shilp aur jo aapki gavai shaili hai wo nishchit roop se man-mohak hai, haan yadi vishay k sandarbh mai dekha jaaye toh s-gotra vivah halanki abhi bhi hamare hindu samaj mai varjit he hai...parantu kuch is prakar ki ghatnaye hone par unki aisi bhayanak pariniti toh nishchit he sarahniya nahi hai....aakhir pashuta ki bhi kuch seemaye hai...pashu bhi keval apna pait bharne haitu he vadh karta hai...apni thoti vichardhara aur paashvik mansikta ki shanti k liye aisa bhayanak kratya nindaniya hai..chahe uska aadhar kuch bhi ho...
aapke agle lekh ki pratikasha mai..
shubhekshu..
Dharmender Giri...
Delhi Police, Delhi.
sir i m gr8 fan of urs , i like both ur articles and poems, galiyan is ma favourite one.
http://bejubankalam.blogspot.com/
BAATEN HAIN BATON KA KYA?? PAR MAIN CHAHTA HOON KI VISHAY PAR AAP HASYA VYANG ROOPI KAVITA K MADHYAM SE AESA LIKHEN DIL ROYE ,ATMA TADPE AUR KHAP PANI-2 KO TARSE.
AAPKA MAIN BACHPAN SE HI MURID RAHA HOON , ISKE MADHYAM SE AAJ YE SOBHAGYA PRAPTA HUA KI AAP KO APNE MAN KI BAAT BATA SAKOON.
APKA PRASHANSHAK AUR ANUYAAYI ,KYUNKI KAVITA LEKHAN KI VIDHA MAINE AAP HI SE PAYEE,
MAHENDRA MANI MISHRA
mahendramanim@gmail.com
आपकी प्रतिक्रियाओं और सलाहों के लिए आभारी हूं।
Post a Comment