—चौं रे चम्पू! सिडनी ते अब आयौ रे?
—चचा, तीन-चार दिन हो गए।
—तीन चार दिना है गए और आज आयौ ऐ बगीची पै?
—आपकी बगीची के अलावा मेरा एक चमन भी है चचा, वहां आए हुए थे कवि उदय प्रताप सिंह। उन्होंने भी उलाहना दिया कि इतने दिन हो गए न चिट्ठी न पत्री! मैंने उन्हें उनका ही एक शेर सुना दिया— ’मोबाइलों के दौर के आशिक़ को क्या पता, रखते थे कैसे ख़त में कलेजा निकाल कर।’ वाक़ई चिट्ठियों वाले दिन भी क्या ही दिन थे चचा! उनके साथ चिट्ठियों के बारे में लम्बी चर्चा हुई।
—का चर्चा भई, हमूं सुनैं!
—यही कि पाती क्या-क्या काम करती थी, कितने तरह की होती थी। कौटिल्य ने बताया कि पत्र में तेरह तरह के भाव प्रकट होते— निंदा, प्रशंसा, इच्छा, आख्यान, अर्चना, प्रत्याख्यान, उपालंभ, निषेध, प्रतिषेध, प्रेरणा, सांत्वना, भर्त्सना और अनुनय।
—सब रट लए तैंनैं?
—ये भाव तो कौटिल्य के ज़माने के थे, लेकिन यह कुछ अजीब सी बात है कि जिन पत्रों को लिखने की हमारी सबसे ज्यादा इच्छा रहा करती थी, वे अक्सर देर में लिखे जाते थे। तेरह क्या तेरह सौ तरह के भाव आते-जाते रहते थे। मन करता था कि एक चिट्ठी में सब कुछ भर दो। गिरिजा कुमार माथुर कितना सही कहा करते थे कि ख़त निजी अखबार है घर का। पहले थीं पाती, पाती और सिर्फ पाती। ये डब्ल्यू डब्ल्यू डब्ल्यू यानी जगत जोड़ते जाले की माया भला कहां थी? आपको पाती का इतिहास बताऊं चचा?
—बता! भूगोल में घूमिबे बारी पाती कौ इतहास बता।
—चचा! प्रारंभ के भी प्रारंभ में संचार के दूत थे प्रकृति और मनुष्य के बीच। देवदूत जन्म देते थे और यमदूत प्राण लेते थे खींच। फिर पत्र-दूत बने मनुष्य और मनुष्य के बीच। पत्र गंतव्य तक पहुंचते थे भले ही रास्ते में खाई हो, खंदक हो या कीच। फिर पता नहीं कब आए कलम और दवात। लेकिन सब जानते हैं ये बात, कि रामदूत बनकर गए थे हनुमान और लेकर गए थे अंगूठी। मेघों को दूत बनाने की कल्पना थी कालीदास की अनूठी। फिर परिन्दे खगदूत बनकर चिट्ठियां ले जाने लगे, और हम यहां नीचे कबूतर जा-जा-जा गाने लगे। फिर आए तुरगदूत घुड़सवार हरकारे, लेकर जाते थे पत्र प्यारे-प्यारे। सात समन्दर पार जल के दूत जल-पोत जहां सामान ढोते थे, वहां वे पत्र भी थे जो कभी हंसाते थे कभी ख़ुद रोते थे। धरती पर पहियों के भरोसे, पत्र यहां-वहां, कहां नहीं खोंसे? लोहे की पटरी पर रेल चली छुक-छुक, स्टेशन-स्टेशन रुक-रुक, लेकिन हर चिट्ठी में धड़कन, धुंआ और धुक-धुक। वायुदूत भारी-भारी हवाई जहाज, एयरमेल आज भी ले जाते हैं मशीन के बाज। फिर जी तार-संचार के दूत आए, बेतार-संचार के दूत आए और जो सबसे ज्यादा काम आए, वे पंचदूत कहलाए।
—पंचदूत कौन से?
—पहला लाल रंग का लैटर बॉक्स, दूसरी ट्रिन-ट्रिन करती टेलीफोन की घंटी, तीसरा खट-खटाखट तार, चौथा टैलेक्स और पांचवां फैक्स। कितना सूकून मिलता है जब एक हाथ डाल जाता है डाकखाने में चिट्ठी। और कितना सूकून मिलता है जब घर के अंदर आकर गिरती है वो चिट्ठी। चिट्ठियों का पहला दुश्मन आया टेलीफोन। इसने बदल दी संदेश की टोन। क्यों लिखें? नम्बर लगाओ तो इसे पाओ, उसे पाओ, जिसे चाहो उसे पाओ। लेकिन टेलीफोन से भी आगे, जमाना बड़ी तेजी से भागे। पिछड़ गए हवाई जहाज, पिछड़ गई रेल क्योंकि आ गई ई-मेल यानी इलैक्ट्रोनिक मेल। संचार का एक जादुई खेल। यहां न खग हैं, न तुरग हैं, न गाड़ी है, न रेल, न जहाज, न तार। आ गई ब्राउजरों की बहार्। वर्ल्ड वाइड वेब में ले जाने वाली नई-नई तकनीकें। बच्चे सब जानते हैं, बेहतर हो उन्ही से सीखें। नेट की दुनिया स्वछंद है। वेब ब्राउजरों के बढ़ते कदम और हर कदम पर इंटरनेट बुलंद हैं। लिखो चाहे जितने लंबे किस्से, पर ई-मेल एड्रेस के होते हैं दो हिस्से। आधा इधर, आधा उधर। बीच में एट दा रेट का निशान, पलभर में करेगा पाती प्रदान।
—अच्छी रही चर्चा!
—हां, ई-मेल है ही ऐसी पाती, जिसमें न पर्चा, न खर्चा। लेकिन हमारी पीढ़ी के पास तो लेखनी भी है और कीबोर्ड की लहर भी है, आधी इधर भी है आधी उधर भी है।
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2 comments:
तेरहवां भाव छपने से रह गया!
कृपया बताएं...
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