—चौं रे चम्पू! मुंबई है आयौ? का पकवान उड़ाए वहां पै?
—चचा,मुंबई की ख़ास चीज़ें खाईं, जैसे, उसल, मिसल और टीआरपी।
—उसल, मिसल का होयं? और जे टीआरपी तौटैलीवीजन वारेन की कोई चीज ऐ!
—ठीक कह रहे हो चचा! उसल में सफ़ेद मटर होती है, मिसल में नमकीन सेव मसल कर डाले जाते हैं। टीआरपी का मतलब है तीखा रगड़ा पेटिस। ये सब महाराष्ट्र के पुराने खाद्य हैं, जिनसे वहां के श्रमजीवी अपना दिन का काम चलाते हैं।टेलीविज़न की टीआरपी भी तीखा रगड़ा पेटिस ही है। कार्यक्रम में जितना तीखा डालोगे, रगड़ा मारोगे और पेटियां उतार दोगे, उतनी ही तुम्हारी टी.आर.पी. बढ़ जाएगी। इतना तीखा मसाला कि आंखों से आंसू निकल पड़ें। वे आंसू भावनाओं के कारण तो निकलेंगे नहीं। मिर्च के कारण निकलेंगे। किसी को क्या पता कि चैनलों द्वारा अपनी टी.आर.पी. बढ़ाने के लिए ये मिर्च दर्शकों की आँखों में झोंकी जा रही है। धारावाहिकों में नकली आँसू तो चलो ठीक हैं, कहानी की माँग है।रिएलिटी शोज़ में आँसू किस बात के? तुम्हारा बच्चा जीत गया या हार गया, दर्शकों में बैठे माता-पिता से कहा जाता हैआंसू निकालो, खामखां निकालो। ग्लिसरीन आंखों में डाल देते हैं। आंसू चाहिए आंसू। वो भी धांसू!
—अच्छा!
—और नहीं तो क्या!जनता को तीखी भावनाओं की लपेट में लेना है। दूसरी चीज़ रगड़ा। रगड़ा-झगड़ा जब तक नहीं होगा, तब तक व्यूवर कहां से मिलेगा। तीसरी पेटिस, कमर से पेटियाँ भी उतार दो। नंगई ज़िन्दाबाद!इधर स्वयंवर के ड्रामे के बादन्याय का नया अखाड़ा खोला गया है। उसमें पहले से तैनात सिक्योरिटी गार्ड भी रहते हैं। यानी,यह स्क्रिप्ट का अंग है कि झगड़ा होना ही होना है। योजनाबद्ध तरीके से मां-बहन की गाली दोगे और उसकी जगह बीप डाल दोगे, गाली तो समझ में फिर भी आएगी। मनुष्य गाली-गलौज और जूतम-पैजार का तमाशा देखना बड़ा पसन्द करता है।
—हां,जब दो लोग लड्यौकरैं तौ मजा तौ आवै ई आवै।तमासबीन कह्यौ करें, और बाजै,और बाजै।
—लड़ाई जल्दी छूट जाए तो भी मज़ा नहीं आता। प्राचीन काल में रोमन साम्राज्य में ग्लैडिएटर लड़ाए जातेथे।
—जे ग्लैडिएटर कौन हते?
—इटली और आसपास के देशों में हज़ारों-हज़ार गुलाम थे। इतने सस्ते कि एक घोड़े की कीमत एक गुलाम की कीमत से दसियों गुना अधिक होती थी। रोमन लोग कौडियों के मोल इन गुलामों को खरीद लाया करते थे। तब कुछ रोमन सौदागरों ने धनी रोमन नागरिकों के मनोरंजन के लिए एक खेल निकाला। ग़ुलामों की लड़ाई का खेल। दो ग़ुलाम एक दूसरे को जान से मार देने तक लड़ाए जाते थे, जानवरों की तरह। रोमन इनके तमाशों को देखते थे, हंसते, खुश होते थे और खून निकलता देखकर तालियां बजाते थे। जब उनमें से कोई एक खून से लथपथ, तडपता हुआ, एकाएक दम तोड देता था तो और अधिक तालियां बजाते हुए उछलते थे। इन्हीं लड़ने वाले ग़ुलामों को ग्लेडिएटर कहा जाता था जो अपने ही ग़ुलाम साथियों से बिना किसी शत्रुता के लड़ते थे। उनसे लड़ते थे, जिनसे वे प्यार करते थे। हिदायत ये होती थी कि एकदम से नहीं मार डालना है। धीरे-धीरे ऐसे मारो कि अगला तड़प-तड़प कर मरे। मरने में घंटा आधा घंटा तो लगे। जैसे-जैसे खून दिखाई देगा, वैसे-वैसे तालियां बजेंगी। तब भी चचा, एक एपिसोड होता था पैंतालिस मिनट का।
—भली चलाई!
—’स्पार्टकस’नाम के उपन्यास में गुलाम हब्शी ने कहा, पत्थर भी रोते हैं। वह रेत भी सुबकती है जिस पर हम चलते हैं। धरती दर्द से कराहती है, पर हम नहीं रोते। स्पार्टकस बोला, हम ग्लैडिएटर हैं। ग्लैडिएटर, ग्लैडिएटर से दोस्ती मत कर। हम इंसान नहीं हैं। हम इंसान के रूप में बोलने वाले औजार हैं। हब्शी ने कहा, क्या तुम्हारा दिल पत्थर का है स्पार्टकस?उसे जवाब मिला, मैं एक ग़ुलाम हूं और गुलाम के पास दिल नाम की कोई चीज़ नहीं होती। होती भी है तो पत्थर की। आजकल टी॰आर॰पी॰ की दौड़ में कलाकार पत्थर के बन गए हैं। मज़े के आगे दिल गायब है चचा!दर्शक को संवेदनशून्य करने के घिनौने षड्यंत्र। मुझे डर है कि टीवी पर जान से मारने का खेल शुरू न हो जाए। इंसान को ऊसल-मूसल में मसलो और टीआरपी के लिए सबसे तीखा रगड़ा पेटिस परोसो।
—आज धनतेरस पै ऐसी बात मत कर लल्ला!
—चचा,मुंबई की ख़ास चीज़ें खाईं, जैसे, उसल, मिसल और टीआरपी।
—उसल, मिसल का होयं? और जे टीआरपी तौटैलीवीजन वारेन की कोई चीज ऐ!
—ठीक कह रहे हो चचा! उसल में सफ़ेद मटर होती है, मिसल में नमकीन सेव मसल कर डाले जाते हैं। टीआरपी का मतलब है तीखा रगड़ा पेटिस। ये सब महाराष्ट्र के पुराने खाद्य हैं, जिनसे वहां के श्रमजीवी अपना दिन का काम चलाते हैं।टेलीविज़न की टीआरपी भी तीखा रगड़ा पेटिस ही है। कार्यक्रम में जितना तीखा डालोगे, रगड़ा मारोगे और पेटियां उतार दोगे, उतनी ही तुम्हारी टी.आर.पी. बढ़ जाएगी। इतना तीखा मसाला कि आंखों से आंसू निकल पड़ें। वे आंसू भावनाओं के कारण तो निकलेंगे नहीं। मिर्च के कारण निकलेंगे। किसी को क्या पता कि चैनलों द्वारा अपनी टी.आर.पी. बढ़ाने के लिए ये मिर्च दर्शकों की आँखों में झोंकी जा रही है। धारावाहिकों में नकली आँसू तो चलो ठीक हैं, कहानी की माँग है।रिएलिटी शोज़ में आँसू किस बात के? तुम्हारा बच्चा जीत गया या हार गया, दर्शकों में बैठे माता-पिता से कहा जाता हैआंसू निकालो, खामखां निकालो। ग्लिसरीन आंखों में डाल देते हैं। आंसू चाहिए आंसू। वो भी धांसू!
—अच्छा!
—और नहीं तो क्या!जनता को तीखी भावनाओं की लपेट में लेना है। दूसरी चीज़ रगड़ा। रगड़ा-झगड़ा जब तक नहीं होगा, तब तक व्यूवर कहां से मिलेगा। तीसरी पेटिस, कमर से पेटियाँ भी उतार दो। नंगई ज़िन्दाबाद!इधर स्वयंवर के ड्रामे के बादन्याय का नया अखाड़ा खोला गया है। उसमें पहले से तैनात सिक्योरिटी गार्ड भी रहते हैं। यानी,यह स्क्रिप्ट का अंग है कि झगड़ा होना ही होना है। योजनाबद्ध तरीके से मां-बहन की गाली दोगे और उसकी जगह बीप डाल दोगे, गाली तो समझ में फिर भी आएगी। मनुष्य गाली-गलौज और जूतम-पैजार का तमाशा देखना बड़ा पसन्द करता है।
—हां,जब दो लोग लड्यौकरैं तौ मजा तौ आवै ई आवै।तमासबीन कह्यौ करें, और बाजै,और बाजै।
—लड़ाई जल्दी छूट जाए तो भी मज़ा नहीं आता। प्राचीन काल में रोमन साम्राज्य में ग्लैडिएटर लड़ाए जातेथे।
—जे ग्लैडिएटर कौन हते?
—इटली और आसपास के देशों में हज़ारों-हज़ार गुलाम थे। इतने सस्ते कि एक घोड़े की कीमत एक गुलाम की कीमत से दसियों गुना अधिक होती थी। रोमन लोग कौडियों के मोल इन गुलामों को खरीद लाया करते थे। तब कुछ रोमन सौदागरों ने धनी रोमन नागरिकों के मनोरंजन के लिए एक खेल निकाला। ग़ुलामों की लड़ाई का खेल। दो ग़ुलाम एक दूसरे को जान से मार देने तक लड़ाए जाते थे, जानवरों की तरह। रोमन इनके तमाशों को देखते थे, हंसते, खुश होते थे और खून निकलता देखकर तालियां बजाते थे। जब उनमें से कोई एक खून से लथपथ, तडपता हुआ, एकाएक दम तोड देता था तो और अधिक तालियां बजाते हुए उछलते थे। इन्हीं लड़ने वाले ग़ुलामों को ग्लेडिएटर कहा जाता था जो अपने ही ग़ुलाम साथियों से बिना किसी शत्रुता के लड़ते थे। उनसे लड़ते थे, जिनसे वे प्यार करते थे। हिदायत ये होती थी कि एकदम से नहीं मार डालना है। धीरे-धीरे ऐसे मारो कि अगला तड़प-तड़प कर मरे। मरने में घंटा आधा घंटा तो लगे। जैसे-जैसे खून दिखाई देगा, वैसे-वैसे तालियां बजेंगी। तब भी चचा, एक एपिसोड होता था पैंतालिस मिनट का।
—भली चलाई!
—’स्पार्टकस’नाम के उपन्यास में गुलाम हब्शी ने कहा, पत्थर भी रोते हैं। वह रेत भी सुबकती है जिस पर हम चलते हैं। धरती दर्द से कराहती है, पर हम नहीं रोते। स्पार्टकस बोला, हम ग्लैडिएटर हैं। ग्लैडिएटर, ग्लैडिएटर से दोस्ती मत कर। हम इंसान नहीं हैं। हम इंसान के रूप में बोलने वाले औजार हैं। हब्शी ने कहा, क्या तुम्हारा दिल पत्थर का है स्पार्टकस?उसे जवाब मिला, मैं एक ग़ुलाम हूं और गुलाम के पास दिल नाम की कोई चीज़ नहीं होती। होती भी है तो पत्थर की। आजकल टी॰आर॰पी॰ की दौड़ में कलाकार पत्थर के बन गए हैं। मज़े के आगे दिल गायब है चचा!दर्शक को संवेदनशून्य करने के घिनौने षड्यंत्र। मुझे डर है कि टीवी पर जान से मारने का खेल शुरू न हो जाए। इंसान को ऊसल-मूसल में मसलो और टीआरपी के लिए सबसे तीखा रगड़ा पेटिस परोसो।
—आज धनतेरस पै ऐसी बात मत कर लल्ला!
9 comments:
रिएल्टी शोज का सही कच्चा चिट्ठा उतारा है । आपने बहुत सही उदाहरण दिया । आधुनिक युग में भी हम प्राचीन पुरुषों की तरह बर्ताव कर रहे हैं । कलाकार तो पैसे के लिए कुछ भी करने को तैयार रहते हैं । पैसा है ही ऐसी चीज़ । लेकिन आम आदमी इनमे क्या ढूंढता है , यह समझ नहीं आता । कलाकारों को टी वी पर पागल जानवरों जैसी हरकत करते हुए देखकर अपने टी वी देखने पर शर्म आती है । इसलिए कभी देखते नहीं ।
लेकिन टी आर पी बढ़ाने के लिए भी तो अपनी जनता ही जम्मेदार है ।
गंभीर मुद्दे भी इन खोखले दिमाग टीवी संचालकों की वजह से मसखरापन के रूप में पड़ोसे जा रहें है जिसे देश और समाज के सेहत तथा तर्कसंगत मानवीय व्यवहार के लिए गंभीर खतरा कहा जा सकता है ......
व्यंग का सहारा लेकर अपने बात कहना , क्या बात है| बधाई तो कम है
बहुत बढ़िया व्यंग ..
guru shresth ko pranaam,
happy diwali !
bahut achhe se aapni kalai kholi in sreality walon ki, lekin guru ji Rakhi sawant to in sabse bahut aag enikal gayi, "rakhi ka insaaf". nahi dekhe ka, accha kiya jo nhi dekhe, barna ..... khair, shaandar vyang ke liye badhai!
बाखरवाडी खा लेते तो चम्पू मिया भी ग्लेडियेटर बन जाते ग्लेड ली :) दीपावली की शुभकामनाएं॥
मजौ सौ आय गयौ, भौतई दिनन के बाद आज ब्रज बोलीं में सच्ची सच्ची बात कह डारी!हम्मबैई जो!
गोवर्धन माहराज की जय!
kya baat hai shradhey...shabdon ka tamacha wakyon ka ghunsa...
lekhan ki gun or vyang ka rukka...
kasam se mza aa gya....
रिएल्टी शो की रिएल्टी नहीं क्रुएल्टी है और ऐसी क्रुएल्टी कि जिसपर इमोशनल अत्याचार होता है वो खुद मज़ा लेता है।
तमस और चाणक्य रास्ते में दम तोड़़ देते हैं और ...... सरपट दौड़ते हैं। जय टीआरपी प्रबंधन विशेषज्ञों की।
अधिकॉंश सीरियल see real से कोसों दूर नाट्य शास्त्र की आधार भाव-भंगिमाओं की प्रस्तुति तक सीमित हैं, लेकिन चल रहे हैं; शायद इसी को व्यवसायिक कौशल कहते हैं।
जो बिकता है, वो मिलता बाज़ारों में
दर्शक शामिल हैं स्वैच्छिक लाचारों में।
कथा, शिल्प की मॉंग नहीं जब दर्शक में
जान कहॉं से पाओगे किरदारों में।
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