—चौं रे चम्पू! का भयौ ओ अयोध्या में?
—बारह अक्टूबर इक्यानवै को, अयोध्या में तीन महान संगीतकारों, पं. भीमसेन जोशी, उस्ताद अमजद अली खां और उस्ताद अमीनुद्दीन खां डागर के साथ मैं भी गया था एक सद्भावना कार्यक्रम में। उसकी टेप मिल गई मुझे। बीस साल पुराना संगीत सुना, बातें सुनी।
—बात का सुनीं?
—काफ़ी तनाव के दिन थे चचा! हम चारों लोग नि:शुल्क गए थे। संचालन करते हुए मैंने कहा— संगीत के क्षेत्र की हमारी ये विभूतियां अन्तरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हैं। इन्होंने निर्णय लिया कि अयोध्या जाएं और वहां अपने हृदय की बात संगीत के माध्यम से कहें। संगीत हमारी सांसारिक उत्तेजनाओं को शांत करता है। मैं हास्य-व्यंग्य का कवि माना जाता हूं, लेकिन आज संगीत के इन महारथियों का सारथी बन कर आया हूं। यह नगरी संस्कृतियों की मिलन-स्थली है। इस नगरी में कुछ ऐसा-वैसा होने लगता है, तो पूरे देश का दिल धड़कता है। आज हम लोग पूरे देश को एक चेतना और दृष्टि देने का संकल्प लिए हुए हैं। सन उन्नीस सौ इक्यानवै से कविता में निवेदन किया कि हे नाइंटी वन तू इतना कर दे! ये जो खाइयां-सी खुद गई है न, दिलों में, नफ़रत और पराएपन की, इन्हें भर दे। इन्हें भरने के लिए हमारे रहनुमाओं में फ़िकर दे, फ़िकर भी जमकर दे। संप्रदायवादियों को टक्कर दे, और टक्कर भी खुलकर दे। ज़रूरतमंदों को ज़र दे, और ज़र भी जरूरत-भर दे। उनके घरों में जगर-मगर दे। कलाकारों को पर दे और पर भी सुंदर दे। उनमें चेतना ऐसी प्रखर दे कि खिडक़ियां खुल जाएं हट जाएं परदे। हमारे तथाकथित नेताओं को और भी मोटे उदर दे। उदर ढकने को और भी महीन खद्दर दे। ध्रुपद को अमीनुद्दीन डागर दे। भाई अमजद के सरोद के सुरोंकी गागर दे। पं. भीमसेन जोशी के सुरों का सागर दे। अच्छा, ये सब तो दे, पर तू इतना तो ज़रूर कर दे, ये जो खाइयां-सी खुद गई हैं न दिलों में नफ़रत और पराएपन की इन्हें भर दे।
—तारी पिट गई हुंगी जापै तौ?
—हां चचा। फिर उस्ताद अमजद बोले कि मेरी अपनी ख़्वाहिश रहती है कि हमारे देश के और विदेश के जो पवित्र स्थल हैं वहां जाकर अपना मत्था टेकूं। इससे मुझे दिली शांति मिलती है। अफ़सोस सिर्फ़ इस बात का है कि जिन हालात में हम लोग यहां आए हैं, अगर उसके बजाय यहां नॉर्मल हालात होते तो ज़्यादा अच्छा होता। कलाकार लोग ज़्यादातर राजनीति में इंवॉल्व नहीं होते, लेकिन हम समाज से अलग भी नहीं हैं। देश में जो कुछ होता रहता है, अच्छा-बुरा, उसकी ख़बरें मिलती रहती हैं। हमें अपने बच्चों के बारे में सोचना है कि उन्हें अच्छा भविष्य मिले। देशवासियों का आपसी रिश्ता रूहानी और अटूट है। हमें कुछ तोड़ना नहीं, जोड़ना चाहिए। चचा, डागर साहब ने भी मौहब्बत का संदेश दिया।
—पंडिज्जी का बोले?
—उन्होंने कहा- ‘गाने वाले अपनी तरफ़ से ज़्यादा बोलते नहीं हैं, साथ में कविराज भी बैठे हैं, इनका भी असर होगा शायद। दो शब्द मैं भी बोल रहा हूँ। गाने में कोई धर्म नहीं है, गाना ही धर्म है। जिसके गले से या वाद्य से या नृत्य से जनता के ऊपर असर होता है, वह कलाकार कुछ न कुछ कर सकता है, लेकिन जब तक उसको ख़ुद को आनंद नहीं होता वह दूसरों को आनंदित नहीं कर सकता है। इन दिनों जो कुछ चल रहा है… पेपर में नाइंटी नाइन परसेंट नहीं पढ़ने की जैसी ही न्यूज़ बहुत रहती हैं। दिल को शांति देने वाली कोई बात नहीं।अच्छा काम करने के लिए थोड़ा कष्ट आना तो ज़रूरी है। बुरा काम करने में कोई देरी नहीं लगती। संगीत में अच्छा करने की शक्ति है।भगवान सबको अच्छी भावनाएं दे। किसी धर्म में किसी को मारने को नहीं कहा, बचाने को ज़रूर कहा है। भगवान भारतवर्ष में ही नहीं, भारतवर्ष से बाहर भी, सब दुनिया में शांति दे। सब एक होकर रहें, यही प्रार्थना हैऔर कुछ नहीं।
—वाह!
—फिर डागर साहब ने राग ललिता गौरी में ध्रुपद सुनाया, अमजद भाई ने अपना नया राग शांतना बजाया और पंडित जी ने एक रहस्य खोला कि ’मिले सुर मेरा तुम्हारा’ आधारित है उनके प्रिय भजन ’जो भजै हरि को सदा’ पर। आपको बीस साल पुराना कैसेट दूंगा, सुनना चचा!
Wednesday, February 02, 2011
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8 comments:
bahut samsamayik haalaaton par aapka ye lekh ya anubhav padhkar,
bahut shanti hui, sahikaha kalakaar dharm se nhi juda hota, balki uski kala hi dharm he....
kay baat he
बढिया संस्मरण... प्रेरणादायक ॥
उस रिकॉर्डिंग को इंटरनेट पर सुलभ कराइए। यू-ट्यूब या किसी अन्य माध्यम से।
आपकी कविता में तुकबंदी इसके भावों में चमत्कार उत्पन्न कर देती है।
अभी छब्बीस जनवरी को एक तुकबंदी मैंने भी रच डाली।
हे संविधान जी नमस्कार,
इकसठ वर्षों के अनुभव से क्या हो पाये कुछ होशियार?
ऐ संविधान जी नमस्कार…
संप्रभु-समाजवादी-सेकुलर यह लोकतंत्र-जनगण अपना,
क्या पूरा कर पाये अब तक देखा जो गाँधी ने सपना?
बलिदानी अमर शहीदों ने क्या चाहा था बतलाते तुम;
सबको समान दे आजादी, हो गयी कहाँ वह धारा गुम?
सिद्धांत बघारे बहुत मगर परिपालन में हो बेकरार,
हे संविधान जी नमस्कार…
पूरी कविता यहाँ है।
बहुत बढ़िया.....पता नेह्न्न सालों पुराने मुद्दे सब के सब ज्यों के त्य्तों बने हुए हैं......पता ही नहें चल रहा की समय बदल रहा है......का खाली बीत रहा है......
भावुक लेख...
http://swarnakshar.blogspot.com/
सिद्धार्थ जी के साथ हूं. उस टेप को ब्लॉग पर लगायें प्लीज़.
आपका सचमुच जवाब नहीं।
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ध्यान का विज्ञान।
मधुबाला के सौन्दर्य को निरखने का अवसर।
गाने में कोई धर्म नहीं है, गाना ही धर्म है। संगीत हमारी सांसारिक उत्तेजनाओं को शांत करता है। संगीत में अच्छा करने की शक्ति है। बहुत अच्छी बातें हैं आपके इस विचारोत्तेजक संस्मरण में । सादर नमस्कार !
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