Thursday, May 22, 2008

डर-डर के मरो

चौं रे चम्पू!

--चौं रे चम्पू! तेरी बंडरफुल खोपड़ी में का चल रयौ ऐ रे? भौत दे ते गुम्म ऐ!

--खोपड़ी वंडरफुल नहीं है चचा, बवंडरफुल है। चीज़ें गड्डमड्ड हैं। समझ में नहीं आ रहा कुछ।

--का समझ में नांय़ आय रौ चम्पू?

--कि मर-मर के डरो या डर-डर के मरो। पहले डर फिर मर। आगे मर और पीछे डर हो तो डर किस बात का रह गया? ‘मरडर’ तो हो ही गया न! मरडर का सिरा पकड़ में आ नहीं रहा। शक के घेरे में मर भी है और डर भी है।

--चम्पू। शक कौ घेरा बड़ौ अदृस्य घेरा ऐ।

--शक धरती के दूसरे छोर तक जाता है। जितना बड़ा डर ह, उतना ही बड़ा घेरा। शक आगे-आगे भागता है, घेरा पीछे-पीछे दौड़ता है। पता नहीं शक कब घेरे से बाहर निकल जाता है और घेरे में दूसरा शक आ जाता है। किसने मारा? किसको मारा? नौकर ने नौकर को मारा? मालिक ने नौकर को मारा? ज़माने ने नौकर को मारा? मरा तो अपने नौ करों से काम करने वाला नौकर ही न! बच्ची मरी। क्यों मरी? क्या उसकी इज़्ज़त गई या घर वालों को लगा कि इज़्ज़त चली जाएगी, सो गई। चचा कहते हैं कि झगड़ की वजह होती हैं तीन-- जर, जोरू और ज़मीन।

--नौएडा में तौ बच्ची चली गई बिचारी। जोरू कहां बन पाई?

--ईश्वर उसकी आत्मा को शांति दे पर आजकल की बच्चियां भी बच्चियां कहां रह गई हैं? मोबाइल हो गई हैं। बतियाना हो गया है सुपर आसान। पहले मोहल्ले-पड़ोस के छोरे की एक झलक पाने के लिए कई-कई दिन इंतज़ार करना पड़ता था। मुलाक़ात होती थी साल छ: महीने में। किसी मेले-ठेले में। बात हुई भी तो कितनी— ‘कैसा है रे तू?’ –‘तू कैसी है? झुमका बड़ा अच्छा है तेरा।‘ –‘तेरी नेकर भी तो अच्छी है।‘ बस खत्म हो गई बात। अब माता-पिता ने दे दिए मोबाइल। करो प्यारे, घंटों बात करो।

--जे बता चम्पू कि जे छोरा-छोरी का बात करत होंगे?

--चचा देखो! बात करेंगे— ‘देख एक नई मॉल खुली है।‘ –‘वहां सीढ़ियां कितना ऊपर ले जाती हैं?’ –‘एक सीढ़ी तो वहां भी जाती है, जहां अक्सर कोई नहीं जाता।‘ –‘जहां बेसमेंट होता है?’ –‘हाँ, चल तो उस सीढ़ी पर उतरेंगे। बोल कब आ रही है?’ –‘मम्मी-डैडी जब क्लीनिक पर जाएंगे तब आऊंगी।‘ –‘अभी आ जा।‘ –‘अभी सीढ़ी कहां शुरू हुई होगी!‘ –‘अरे हम कर लेंगे न! मुझे मालूम है कि जैनरेटर कहां है।‘ –‘तो वहां शोर नहीं हो जाएगा?’ –‘अरे शोर हो जाएगा तो क्या? दुनिया से नहीं डरेगा, हम तो मुहब्बत करेगा।‘ –‘हे! देख तू मुझसे ऐसी बातें मत किया कर। मम्मी पापा को बता दूंगी।‘ –‘अच्छा! तेरे मम्मी-पापा तो मुहब्बत करते ही नहीं हैं जैसे।‘ –‘हां मैंने देखा था कल।‘ –‘क्या देखा था? बता न!‘ –‘मैं नहीं बता सकती।‘ बस इसी तरह के डॉयलॉग होते हैं चचा, और क्या। जब बात करने का मिले मौका, तो कैसा ड्राइंग रूम और कैसा चौका। बच्चे लोग चौका-छक्का लगाने की फिराक में रहते हैं। कुछ ऊंच-नीच हो जाए या ज़्यादा ही ऊंच क़िस्म की नीच हो जाए तो गुत्थी सुलझाना पुलिस के लिए भारी पड़ जाता है। विष्णु ने लड़की को चालीस बार फोन क्यों किया? छत पर किसके पंजों के निशान थे। सोचो कुछ लेकिन सच्चाई निकलेगी कुछ और..।

--तोए का पतौ कै सच्चाई का ऐ?

--चचा इस धरती पर कुछ भी ऐसा नहीं जिसे कहें अनहोनी। मेरे दिमाग में एक बात आती है कि दोनों की हत्या एक तरीके से हुई। हत्यारा डॉक्टरी औज़ारों का इस्तेमाल करना जानता है। पता चलेगा कि न तो दोषी बालिका और न दोषी नौकर। उनका दोष ये था कि उन्होंने कोई सच्चाई देख ली। मुक्तिबोध की लाइन है— ‘मैंने उन्हें नंगा देख लिया, इसकी मुझे और सज़ा मिलेगी।‘ पता नहीं बेचारों ने क्या देख लिया कि ज़िंदगी ने उन्हें फ़ाइनली देख लिया।

--चम्पू अगर मेरौ मरडर है जाऐ तौ सक के घेरा में कौन आयगौ?

--वैसे तो चचा तुम्हें मारेगा कौन? न तुम्हारे पास न जर न जोरू न ज़मीन। पर शक आएगा मेरे ऊपर। ज़रूर इसी चम्पू ने सुना-सुना के मार डाला है, इसलिए ख़बरदार, जो अपना मर्डर करवाया।

4 comments:

अमिताभ मीत said...

क्या क्या कह गए गुरुदेव ! कहाँ कहाँ कलम चला दी. किसे किसे कलम कर दिया ! बहरहाल जो कर दिया कमाल कर दिया.

डा. अमर कुमार said...

सो तो है ।
ई बातें कुछ ज़ेदा ही ईसारे ईसारें मॆं हो गईं ।
समझ में नीं आयो कि ईसारा जा किद्दर कूँ
रिया है ?

samshad ahmad said...

चों रे चम्पू! ई कानाफूसी करवे में का का मौह से निकरवा लिया तेने
अरे नहीं चचा! कम से कम हिंदुस्तान की आधी जनता के अन्दर ये ही बात घुमड़ रही है. और आप तो इ ...त..ते अनुभवी हो ग़लत थोड़े ही बोलोगे.

tannu2 said...

uncle aapki dardar ke maro chakalas badi pasand aayi.aapne aaj ki sachaai se sabko rubaroo karaya hai .aaj humein bas thoda careful hone ki baat hai .thankz uncle. have a gr8 day!!!!!!!!!!