Thursday, September 04, 2008

हिन्दी के आत्मघाती गुलदस्ते

--चौं रे चम्पू! जे तेरे थौबड़ा पै कित्ते बज रए ऐं रे? तेरी आंख तौ लगै हंस रई और दूसरी लगै कै रो रई ऐ, चक्कर का ऐ?

--चचा ठीक पहचाना! कुछ गड़बड़ तो है जिसे मैं भी समझ नहीं पा रहा। एक गूंज सी है मस्तिष्क में, जो दांए-बांए हो रही है। कभी-कभी कोई एक बात दिमाग में घुस जाती है, वो परेशान करती रहती है, कभी राह भी सुझाती है।

--पहेली मत बुझा, मूंजी! अपनी गूंज की पूंजी बाहर निकार

--चचा! हिन्दी का भविष्य और भविष्य की हिन्दीको लेकर पिछले एक साल से मासिक गोष्ठियां चल रही हैं। बारहवीं गोष्ठी में जनाब अशोक वाजपेयी ने एक बात कही थी-- निराशा का भी एक कर्तव्य होता है। इस वाक्य के बाद उन्होंने जो बोला मुझे सुनाई नहीं दिया। सुई वहीं अटक गई। तब से मैं परेशान भी हूं और सुखी भी वाकई एक आँख हंस रही है, ए रो रही है।

--निराशा कौ कर्तव्य?

--हां चचा। निराशा कहां नहीं है, हिन्दी को लेकर, औरत के माथे की बिन्दी को लेकर, गरीब के कपड़ों की चिन्दी-चिन्दी को लेकर, निराशा कहां नहीं है? लेकिन निराशा का कर्तव्य होता है, ये कहकर चचा कमाल ही कर दिया। निराशा अगर तुम्हें घनघोर निराशा में छोड़ दे तो वो निराशा अपराधी है। लेकिन निराश नज़ारा अगर ज़रा सी आशा कि किरणों भी ले आए तो वह निराशा सकारात्मक हो जाती है। हिन्दी के मामले में विद्वानों को जब भी सुनो, हिन्दी के दरिद्र भविष्य का ख़ौफ़नाक नज़ारा पेश करते हैं। हमारे मित्र राहुल देव ही अकसर कहते हैं कि आने वाले बीस-पच्चीस वर्षों में हिन्दी दरिद्रों की, रिक्शे वालों की, नाइयों-धोबियों की, नौकर-चाकरों की बोली भर बनकर रह जाएगी, बाकी पूरा समाज अंग्रेज़ी बोलता नज़र आएगा। चचा, निराशा वाजिब लगती है पर इसमें भी आशा तो है ही कि हिन्दी रहेगी तो सही। रहेगी, उन लोगों के बीच जो भाषा के सही वाहक होते हैं। ले जाते हैं आगे। शास्त्रीय भाषाएं कब आगे बढ़ी है? लोक भाषाएं ही सदा आगे बढ़ती हैं। एक सेमिनार में कुछ लोगों को हिन्दी का गिलास आधा भरा दिखाई दिया, कुछ ने कहा आधा खाली है। इस पर राजकिशोर की टिप्पणी बड़ी मज़ेदार लगी, उन्होंने पूछा—‘गिलास कहां है’? हिन्दी का तो गिलास ही गायब है।

--बात भड़िया है!

--हंस रहे हो चचा! मुझे भी हंसी आई थी। फिर मेरी इधर वाली आँख हंसने लगी। उसे कम्प्यूटर-इंटरनेट के रूप में गिलास दिखाई दे गया। इंटरनेट ऐसा जादुई गिलास है जिसमें तुम चाहे जितना भरो, गिलास भरेगा नहीं और खाली भी नहीं होगा। भरे जाओ, भरे जाओ, ये तुम्हारे ऊपर है कि कितना भर सकते हो। जो भर रहे हैं उन्हें सैल्यूट करने का मन करता है। एक हैं दुबई में पूर्णिमा वर्मन इक्कीसवीं सदी की शुरुआत से नेट पर हिन्दी साहित्य को अपलोड करने का काम कर रही हैं। हर दिन नए-नए कवि कविता-कोश में सम्मिलित होते जा रहे हैं। हिन्दी विकीपीडिया हर पल बढ़ रहा है। एक बार कोई साहित्यकार अपलोड हो जाए तो तब तक नहीं हट सकता जब तक वह स्वयं न कह दे कि मुझे वहां से हटा दिया जाए। अपने आप वो हटेंगे क्या? जो बढ़ गए हैं वो घटेंगे क्या?

--फिर हिन्दी कूं फिकर का बात की?

--हिन्दी के लिए अरण्य-रोदन करने वाले ही हिन्दी के शत्रु हैं। पर वे इतने बड़े-बड़े नाम हैं कि उन्हें शत्रु घोषित कर दिया जाए तो बात बनेगी नहीं। वे हर दिन सेमिनारों में अच्छी हिन्दी बोलकर हिन्दी के विकास का रोना रोते हैं। वो मंचों पर जाते हैं। हिन्दी में कविताएं सुनाते हैं। हिन्दी को जो लोग सरल करें उनके प्रति वे कठिन हो जाते हैं। वे पारिभाषिक कोशों के हस्ताक्षर हैं। वे सलाहकार समितियों के सिंहासन हैं। वे पॉलिटिक्स के पद्मासन हैं। वे आत्म-मुग्ध हैं। वे यात्राएं करते हैं। उनके वृक्ष का पत्ता-पत्ता भत्ता पाता है। वो किसी का भी पत्ता काट सकते हैं। हिन्दी उनसे कितनी धन्य या दुःखी है ये बताया नहीं जा सकता। वे हिन्दी के आत्मघाती गुलदस्ते हैं। हिन्दी पखवाड़ा आने वाला है। इनका जमावड़ा अब लगेगा। लेकिन मेरी निराशा का भी एक कर्तव्य है चचा, जिसे पूरा करने का मन है।

--अरे! अब तो तेरी दोनों आँख हंस रही हैं।

--थैंक्यू चचा।

22 comments:

MANVINDER BHIMBER said...

bahut achchca .....
jari rakhe

श्रीकांत पाराशर said...

Aadarniya Ashokji, sabse pahle, ek achhi rachna ke liye dhanywad. ab yah kahna hai ki Bangalore ki kuchh purani yaaden taja karadun. Hum log blore men kavisammelan ke baad yahan se aage bhi gaye the mini bus men. Surendra Sharmaji aadi bhi saath the. Aapne apne laptop men mera poora vivran save kiya tha aur kabhi yaad nahin kiya. Hamne to ek baar aur beech men bulane ka prayas kiya tha. Khair kabhi kabhar yaad karen, kaam aayenge.

श्रीकांत पाराशर said...

Aadarniya Ashokji, sabse pahle, ek achhi rachna ke liye dhanywad. ab yah kahna hai ki Bangalore ki kuchh purani yaaden taja karadun. Hum log blore men kavisammelan ke baad yahan se aage bhi gaye the mini bus men. Surendra Sharmaji aadi bhi saath the. Aapne apne laptop men mera poora vivran save kiya tha aur kabhi yaad nahin kiya. Hamne to ek baar aur beech men bulane ka prayas kiya tha. Khair kabhi kabhar yaad karen, kaam aayenge.

Udan Tashtari said...

सटीक..

अमित माथुर said...

अशोक जी को आदर भरा नमस्कार, आपने सही कहा है की आज हिन्दी साहित्यकार वास्तव में हिन्दी के लिए 'आत्मघाती गुलदस्ते' हो गए हैं. ये वहीं हैं जिन्हें गुलदस्तों से प्यार है. विभिन्न सभाओं में गुलदस्ते हासिल करना इनके अन्दर की गर्मी को ठंडा करता है. वास्तव में ये मोटा पारितोषक पाने वाले 'आत्मघाती' हैं. इनकी अपनी आत्मा तो मर चुकी है और इन्होने दूसरो की आत्माओ को मार डालने का प्रण कर रखा है.

अब इसी वेबलिंक को लीजिये http://www.google.com/transliterate/indic/ मेरे विचार से 'हिन्दी भाषा के ग्लोबलीकरण' में एक मील का पत्थर है. बस सोचते जाइए और लिखते जाइए. अगर ये 'हिन्दी के आत्मघाती गुलदस्ते' जल्द ही नेटसेवी नहीं हुए आपकी तरह, तो बम तो ये ज़रूर फोडेंगे मगर उसमे अंत इन्ही का होगा. वैसे आपको रमजान और ईद-उल-फ़ित्र की ढेरो शुभकामनाये. -अमित माथुर, +91 9810396176.

अमित माथुर said...

अशोक जी को आदर भरा नमस्कार, आपने सही कहा है की आज हिन्दी साहित्यकार वास्तव में हिन्दी के लिए 'आत्मघाती गुलदस्ते' हो गए हैं. ये वहीं हैं जिन्हें गुलदस्तों से प्यार है. विभिन्न सभाओं में गुलदस्ते हासिल करना इनके अन्दर की गर्मी को ठंडा करता है. वास्तव में ये मोटा पारितोषक पाने वाले 'आत्मघाती' हैं. इनकी अपनी आत्मा तो मर चुकी है और इन्होने दूसरो की आत्माओ को मार डालने का प्रण कर रखा है.

अब इसी वेबलिंक को लीजिये http://www.google.com/transliterate/indic/ मेरे विचार से 'हिन्दी भाषा के ग्लोबलीकरण' में एक मील का पत्थर है. बस सोचते जाइए और लिखते जाइए. अगर ये 'हिन्दी के आत्मघाती गुलदस्ते' जल्द ही नेटसेवी नहीं हुए आपकी तरह, तो बम तो ये ज़रूर फोडेंगे मगर उसमे अंत इन्ही का होगा. वैसे आपको रमजान और ईद-उल-फ़ित्र की ढेरो शुभकामनाये. -अमित माथुर, +91 9810396176.

Sumit Pratap Singh said...
This comment has been removed by the author.
Sumit Pratap Singh said...

गिलास हम भरेंगे...

Jaidev Jonwal said...

sumit dadda main bhi aapke saath hoon.

vipinkizindagi said...

achhi rachna

राकेश पाण्डेय said...

CHACHAA RAM-RAM APAN BHI HINDI BLOGGER BAN GAYE HAIN.HINDI KA GLASS BHARNE KE LIYE HAM ZARA PANI LEKAR AATE HAIN.

Sumit Pratap Singh said...

आदरणीय गुरुदेव!
प्रणाम!
मैं आज हिन्दी दिवस पर आपके ब्लॉग को साक्षी मानकर व अपने संगणक तथा इसके चूहे पर हाथ रखकर शपथ लेता हूँ कि मैं राष्ट्रभाषा हिन्दी का प्रचार-प्रसार अपना तन, मन व धन अर्पित कर नियम से करता रहूँगा।

vikram said...

chacha chakradhar. pranaam

mujhe kuch din poorva gyat hua tha ki aapka bhi blog chal raha hai.mujhe bada aascharya hua ki aap jaisa shaksh bhi blog ke ran kshetra me kood pada. chaliye achcha hai. jamane ke sath sath chalna hi samajhdaari hai.

hindi ke dushmano ki aisi taisi. koi na rok saka hai aur na hi rok payega.

dhanyawaad!

Sumit Pratap Singh said...

गुरुवर। विक्रम जी हिन्दी के शत्रुओं के विरुद्ध हैं किंतु स्वयं अंग्रेजी में टिप्पणी करते हैं व अंग्रेजी में ही ब्लॉग भी बना रखा है। वाह भाई क्या कहने इनके। मेरी और से इन्हें बधाई।

Sumit Pratap Singh said...
This comment has been removed by the author.
Sumit Pratap Singh said...
This comment has been removed by the author.
Sumit Pratap Singh said...
This comment has been removed by the author.
Sumit Pratap Singh said...
This comment has been removed by the author.
Sumit Pratap Singh said...
This comment has been removed by the author.
Sumit Pratap Singh said...
This comment has been removed by the author.
Sumit Pratap Singh said...
This comment has been removed by the author.
mayank tiwari said...

wah wah sir.