Wednesday, September 17, 2008

सिरफिरे सिरों को फिर से पकड़ें

--चौं रे चम्पू! गृहमंत्री ने तीन बार कपड़ा चौं बदले रे?
--बाहर के तो बाहर के अन्दर के लोग भी कीचड़ उछालेंगे तो अगला दस बार बदलेगा। क्या परेशानी है!
--अब अगलौ सवाल, जे बता कै दिल्ली सचमुच दहली का?
--चचा दिल्ली नहीं दहली। दिल्ली अगले दिन से ही उन सारे स्थानों पर टहली, जहां-जहां धमाके हुए थे। हां, मीडिया द्वारा बहली। जन संचार माध्यमों ने दहशत से दहलाने की कोशिशों में दिल्ली ही नहीं पूरी दुनिया का दिल बहलाया। हज़ार लोग पानी में बह गए, उसे कैसे दिखाओगे, एक आदमी खून से लथपथ दिखा दो तो लोग टी.वी. से चिपके रहेंगे। अरे चचा, कितना बड़ा देश है ये! इसमें दस-बीस सिरफिरे होना मामूली बात है। उन सिरफिरों के कारण आप फिरसिरे हो जाएं, यानी फिर-फिर उसी सिरे को पकड़ कर हिंसा बढ़ा-चढ़ा कर दिखाएं, उचित है क्या? सिरफिरों को हर सिरे से जोड़ना, पिछली विपदाओं पीछा छोड़ना और अगली खुशियों से मुंह मोडना कोई अच्छी बात नहीं है।
--तू कहनौ का चाहै लल्ला?
--देखिए! बाढ़ की विभिषीका अभी ख़त्म नहीं हुई लेकिन पर्दे पर पर्दे के पीछे चली गई। यहां आ गए ख़ून के छींटे। माना कि कुछ निरपराध, निर्दोष और निरीह लोग मारे गए, सौ-दो सौ घायल हुए, लेकिन क्या कोई नया दुख पुराने दुख को इस तरह ढंक देता है? आतंक की घटना दिल्ली में चार स्थानों पर हुई, चलो उसे चार बार दिखा कर आगे की बात करो। ये क्या कि उसी एक खबर को दिन-रात का रोना बना लिया। बड़े खुश हो रहे होंगे चंद आतंकवादियों के विक्षिप्त दिमाग। रातों-रात हीरो बन गए। हत्यारा अपनी क्षमताओं पर ख़ुश होता है। उसके दिलो-दिमाग की गन्दगी और दरिन्दगी को हवा मिलती है। घटना के बाद काम पुलिस और प्रशासन पर छोड़ दिया जाना चाहिए। वे उन्हें ढ़ूंढ निकालें और सही प्रक्रिया से ठिकाने लगाएं। उन्हें कम्बख़्तों को पर-पीड़ा का सुख तो न लेने दें। उन्हें कच्ची खोपड़ियों का आदर्श तो न बनने दें। उन्हें किसी मज़हब का प्रतिनिधि मान लिए जाने की भूल तो न होने दें और तत्काल कोई निर्णय न निकालें। बारह साल के बच्चे के बारे में क्या-क्या अटकलें लगाई गईं— आर.डी.एक्स. उसकी छाती पर बंधा है, बम जैसी कोई चीज़ उसके पैर में बंधी है, उसकी जेबों में विस्फोटकों की पोटलियां हैं। आतंकवाद अब बच्चों के सहारे विस्फोट कर रहा है। सबका-सब झूठ चचा, बिना बात की सनसनी फैलाने का मूर्खतापूर्ण प्रयास।
--तौ का निकरौ?
--पता चला कि वह तो गुब्बारे बेचने वाला बच्चा था। उसने आतंकवादी को देखा था। कुछ कूड़ा बीनने वाले बच्चों ने भी सुराग दिए कि उन्होंने रीगल और इंडिया गेट पर भी आतंकवादियों को पोटलियां रखते हुए देखा है। पुलिस ने बम निष्क्रिय कर दिए। लेकिन क्या किसी मीडिया कर्मी ने एक बार भी यह सवाल उठाया कि हमारे देश का बारह साल का बच्चा क्यों गुब्बारे बेच रहा है। छोटे-छोटे बच्चे क्यों कूड़ा बीन रहे हैं। ये सवाल अगर उठाते तो बड़े-बड़े लोग आतंकवादी नज़र आते। ये नन्हे बच्चे अमीरी और गरीबी की लीलाएं सुबह-शाम देखते हैं। ये अपनी मेहनत से घर चलाते हैं, पूरे कुनबे का पेट पालते हैं। ज़िम्मेदार हैं और ज़्यादा समझदार हैं। इस बचकानी दुनिया में ये बूढ़े बच्चे हैं। इनके तजुर्बों ने हादसों को टाला है। इनको चाहिए शिक्षा-दीक्षा और दिलों को जोड़ने वाली भाषा का ज्ञान। मानवीय और आत्मीय सम्प्रेषण के अभाव में अगर कोई दरिन्दा इन्हें फुसला ले तो शायद सफल हो सकता है। दरिन्दों को करना सिर्फ़ ये होगा कि मज़हब की गलत-सलत व्याख्याएं करके इन्हें अमानवीय बना दें। सबको जोड़ने की ताकत रखने वाली भाषा के स्थान पर सिर्फ़ दरारें बढ़ाने वाली ज़बान सिखा दें।
--दिलन कूं जोरिबे वारी भासा कौन सी ऐ रे?
--हिन्दी चचा हिन्दी! उसे हिन्दुस्तानी कह लो। जिसे पूरा देश बोलता है। जिसमें हमारे देश की सारी भाषाओं के शब्द हैं। वो हिन्दी! तेरह को काण्ड हुआ, चौदह को हिन्दी दिवस था। हर अख़बार में दो-तीन पन्ने तो हिन्दी दिवस पर आते ही थे। आतंकवाद की ख़बरों के कारण हिन्दी की वह जगह भी छिन गई। मीडिया के मित्रो से गुज़ारिश है कि वो आफ़त को इतना बढ़ा-चढ़ा कर न दिखाएं कि शराफत माफी मांगने को मजबूर हो जाए। सिरफिरों को इतना सिर न चढ़ाएं। सत्य के मानवीय सिरों को फिर से पकड़ें।

9 comments:

Jaidev Jonwal said...

guruji ko parnaam
bahut khub likha aapne ye nayaa parstaav jo karna chahiye wo log nahi karte jo nai karna uske picche bhaagte hai garib or garib hota ja raha hai chote-chote bacche apne parivaar ka pet chala rahe hai hamare neta bematlab bolte jaa rahe hai jinke liye karna hai unse dur hai jo pakad mein nahi aate unko pakadne ke liye joshpurn hai kya ye yyuni chalega desh ka neta sach ko jo chod jhuth ka bozha dohega kuch karo upaya hai bharatmata ya to buddi to in netaoo ko ya janmanas ko satgati to bataya

मसिजीवी said...

शा
नदार विश्‍लेषण

'लेकिन क्या किसी मीडिया कर्मी ने एक बार भी यह सवाल उठाया कि हमारे देश का बारह साल का बच्चा क्यों गुब्बारे बेच रहा है। छोटे-छोटे बच्चे क्यों कूड़ा बीन रहे हैं। ये सवाल अगर उठाते तो बड़े-बड़े लोग आतंकवादी नज़र आते।'

वाकई

शोभा said...

वाह अशोक जी. बहुत सही प्रश्न उठाया है आपने. पढ़कर आनंद आगया. आपकी कविता पढ़ी थी पर आप गद्य भी इतना सुंदर लिखते हैं आज जाना. आपके इस लेख से बहुत लोगों को प्रेरणा मिलेगी ऐसा विश्वास है. सस्नेह.

दिनेशराय द्विवेदी said...

भारत का लादेन कह कर मीडिया एक सरफिरे को सर पर बैठा रहा है। लगता है कि मीडिया में कोई बिना सरफिरा बचा ही नहीं।

Sumit Pratap Singh said...

सही कहा गुरुवर...

Dr. Ashok Kumar Mishra said...

bahut achchi abhivyakti

बवाल said...

Adarniya ashok jee sadar pranam jee. Aapko kya teepen gurujee ? Isse badi baat kyaa hogi maharaj ke aap blog par uplabdh ho. Hum bachhchon ko rahe-adab batate chliye sirjee. Kaun sikhlayega bareekiyan varna ? Aapka paidaishee mureed.

विनय (Viney) said...

इस "सनसनीखेज" माहौल में असली मुद्दे की बात कही है आपने-

"छोटे-छोटे बच्चे क्यों कूड़ा बीन रहे हैं। ये सवाल अगर उठाते तो बड़े-बड़े लोग आतंकवादी नज़र आते।"

अमित माथुर said...

प्रणाम गुरूजी, जब पढ़ना शुरू किया तो वास्तव में लगा की आप मीडिया की खाल उतार रहे हैं. मगर अंत आते आते न जाने क्यूँ लगा की ये धमाके से सहमे दिल्लीवालों की कथा या बाढ़ की विभीषिका झेल रहे लोगो गाथा नहीं है ये तो हिन्दी दिवस को समाचारों में जगह ना मिल पाने की व्यथा है. अंत में लगा की अगर कहीं इन बाढ़ और धमाको के बीच हिन्दी दिवस को भी जगह मिल जाती तो शायद आपकी लेखनी का विषय 'आफतो के बीच भाषा का सम्मान' रहा होता. मेरे विचार से अशोक चक्रधर सिर्फ़ हिन्दी के रहनुमा नहीं हैं अशोक चक्रधर समाज के सभी शोकाकुल लोगो के ह्रदय पर एक मरहम हैं. वो मरहम कहीं मिसिंग था. मगर ये आपका ब्लॉग है और अपना ब्लॉग लिखने अधिकार हर ब्लॉगर को है. मेरे विचार पढियेगा, और अगर प्रतिक्रिया मिल जाए तो बस में मर ही जाऊँगा. :) http://vicharokatrafficjam.blogspot.com -अमित माथुर