Tuesday, April 28, 2009

रास्‍ते नहीं फूटे रास्‍ते से ही फूट लिए

—चौं रे चम्पू! अधिकार का ऐ और कर्तब्य का ऐ, बता?

—ऐसी भारी-भरकम बात मत पूछो चचा! ऐसे अधिकारों को धिक्‍कार, जिनका कोई फल न मिले और ऐसे कर्तव्य बेकार, जिन पर ज़िन्दगी व्‍यय करने के बाद भी कोई पहचान न मिले।

—ऐसी मरी-मरी बुझी-बुझी बात! चम्‍पू तेरे म्‍हौं ते सोभा नायं दै रईं! जे तेरे ई बिचार ऐं का?

—मेरे नहीं हैं, पर समझो मेरे ही हैं, क्‍योंकि आजकल मैं युवा बनकर सोचने लगा हूं। ये आज के युवा के विचार हैं। चचा युवा-मन को समझने की बहुत कोशिश करता हूं । मेरा एक मन कहता है कि इन युवाओं की कर्तव्‍यहीनता और अधिकार-उदासीनता को तू सह मत और दूसरा मन कहता है कि फौरन सहमत हो जा। आंकड़े दिए जा रहे हैं कि इस समय भारतीय लोकतंत्र की निर्मिति युवाओं के हाथ में है। साड़े सतहत्तर करोड़ मतदाताओं में दस करोड़ मतदाता ऐसे होंगे जो पहली बार वोट डालेंगे, यानी ताज़ा-ताज़ा युवा। चउअन प्रतिशत मतदाता चालीस वर्ष से कम उम्र के हैं। इतने प्रतिशत मतदान हो जाए तो गनीमत समझी जाती है। यानी चचा, धुर जवानी अगर चालीस तक की मानी जाती है तो समझिए देश अब सचमुच युवाओं के हाथ में है।

—सवाल जे ऐ कै युवा कौनके हाथ में ऐं?

—किसी के हाथ में नहीं हैं। माता-पिता के होते हुए भी अनाथ जैसे भटक रहे हैं। अधेड़ अभिभावकों के आरोप हैं कि वे कन्‍फ्यूज़ हैं, दिग्‍भ्रमित हैं, भटक गए हैं। उनके सामने अब कोई आदर्श नहीं है। कल अख़बार पढ़ रहा था, वरिष्‍ठ मनोविज्ञानी अरुणा ब्रूटा कहती हैं कि आज के युवा को पता ही नहीं कि आदर्श का क्‍या मतलब है। जब युवाओं के आदर्श ही बिगड़े हुए हों और शॉर्टकट वाले लोग हों तो आप उनसे अधिक उम्‍मीद नहीं कर सकते। वरिष्‍ठ लेखक सुधीश पचौरी मानते हैं कि युवाओं के सामने अब आदर्श आईकॉन नहीं बनते, आइटम निर्मित होते हैं। युवा-वर्ग आइटमों से काम चलाता है, वह आईकॉनों को भूलने लगा है। आइटम भी अति चंचल और क्षणभंगुर! सिर्फ़ उतनी देर रहते हैं जितनी देर आप उन्‍हें उपभोग करें। वरिष्‍ठ पत्रकार विभांशु दिव्याल बहुत सारी चिंताएं गिनाने के बाद कहते हैं कि युवाओं की भूमिका और भागीदारी को लेकर चिंतित होने की जरूरत नहीं है। चिंता उनके सामने विकल्‍प प्रस्‍तुत करने की होनी चाहिए।

—तू अपनी बता!

—सन उन्नीस सौ उनहत्तर में अठारह साल का युवा हुआ करता था मैं। वह वर्ष गांधी की जन्‍मशती का वर्ष था। गांधी का आईकॉन दिल-दिमाग में ऐसा घुसा कि ‘बांह छाती मुंह छपाछप’ रगड़ूं धोऊं तो भी आज साफ नहीं होता। आज अठारह का बनकर देखता हूं तो पाता हूं कि गांधी करैंसी नोट पर आइटम बनाकर पेश किए जा रहे हैं। दो अक्तूबर ड्राई-डे होता है। उपभोक्‍तावादी दौर में गांधीगिरी थोड़ी देर रहती है और संजय दत्‍त की तरह सक्रिय राजनीति में शामिल होकर साफ हो जाती है। सन उन्नीस सौ उनहत्तर में ही मैंने मुक्तिबोध की एक किताब पढ़ी थी, जो मथुरा में सुधीश पचौरी ने दिल्ली से लाकर मुझे दी थी— ‘नई कविता का आत्‍मसंघर्ष’ । उसमें नई कविता का कम, युवा-मन का आत्‍मसंघर्ष अधिक था। मध्यवर्गीय युवा एक कदम रखता था तो सौ राहें फूटती थीं। कदम भले ही गांधी जी के कहने पर रखा हो, गौडसे के कहने पर रखा हो या मार्क्स के कहने पर, क़दम रखा जाता था। फिर सौ राहों के विकल्‍पों में बड़े-बड़े सिद्धांतों अथवा सिद्ध-अंतों से प्रभावित होता हुआ, कर्तव्‍य, अधिकार और विचार की राह पर चल पड़ता था। आज आलम ये है चचा कि सौ रास्‍ते सामने हैं पर नौजवान उन पर कदम रखने के बजाय उन रास्‍तों से ही फूट लेता है। चालीस साल पहले जो धांसू विकल्‍प आते थे, उन पर सोचने-विचारने का सुकून भरा समय होता था। आज इस उपभोक्‍तावादी आपाघापी में न तो युवाओं के पास सोचने का समय है और न उन्हें कोई विकल्‍प धांसू लगता है। ज्ञान और सूचनाओं की ऐसी बाढ़ आई है कि दिल और दिमाग के बांध टूट गए हैं। समस्‍या पहला कदम रखने की है।

—तौ बता नौजवान पहलौ कदम का रक्खैं?

—अपने मताधिकार का कर्तव्य की तरह पालन करें। वोट डालने ज़रूर जाएं। भले ही बाद में गाएं— ‘वोटर गारी देवे, पार्टी जी बचा लेवे, मतदान गेंदा फूल। प्रत्याशी छेड़ देवे, मीडिया चुटकी लेवे, मतदान गैंदा फूल।

6 comments:

Vinay said...

गुरूदेव को प्रमाण, आशा है कि सब कुशल मंगल होगा। ब-ख़ूबी कलम का कमाल दिखाया है आपने!

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तख़लीक़-ए-नज़रचाँद, बादल और शामगुलाबी कोंपलेंतकनीक दृष्टा

Anil Kumar said...

युवाओं की देश के प्रति उदासीनता पर करारा प्रहार। उम्मीद है पढ़ कर कोई तो बदलेगा।

Unknown said...

ASHOKJI,
namaskaar.
chakradhar ki chakallas me aapki bahumukhi pratibha k darshan kiye...........anand mila
-ALBELA KHATRI
www.albelakhatri.com

रवीन्द्र प्रभात said...

अत्यंत धारदार व्यंग्य और उसके माध्यम से आज कि युवा पीढी को आंदोलित करने का विनम्र प्रयास परिलाखित हो रहा है इस रचना में .....एक बार और अच्छी रचना से रूबरू कराने के लिए आपका आभार !

Anurag Yadava said...

Sir, I like this....so light, meaningful and thought provoking...
Regards,
Anurag

Unknown said...

ashok sir,
this was really a silent and absolute attack on todays freaky minded youth..and thought provoking in light of future of the country..
-Heera