Thursday, December 03, 2009

आत्मा राम की टें टें

चौं रे चम्पू

—चौं रे चम्पू! तेरी हर हफ्ता की चम्पूगीरी कित्ती बार है चुकी अब ताईं?
—हमारा आपका मिलन लगभग दो साल से चल रहा है। हर हफ्ते बुध के दिन निन्यानवै बार चम्पूगीरी हुई है। अगले हफ़्ते शतक पूरा हो जाएगा। चचा, इस बीच पता नहीं कहां-कहां गया, भटका, भागा-दौड़ा। कहीं भी रहा, पर हर बुध को चम्पूगीरी और बगीचीबाज़ी के लिए ज़रूर आया। लोग समझते रहे कि निन्यानवै के फेर में है। चचा, तुम्हारे चम्पू के पीछे ही पड़ गए लोग। लेकिन तुम्हारा चम्पू भी चक्रधर वंश का है। निन्यानवै तक गाली सुन लेता है । शिशुओं का वध नहीं करता पर दुष्ट शिशुपालों को नहीं छोड़ता। बहुत सारे आत्माराम टें टें करने लगे हैं, अज्ञान के अंधकार से ज्ञान के तीर फेंकते हैं। चम्पू को समझ लिया है चम्पी करने वाला। अब हम-तुम तो हैं ब्रजवासी, बगीचीबाज लोग, वे हैं हिन्दी-वाटिका के रखवाले। वाटिकाओं में इन्हें आत्माएं मिला करती हैं।

—तेरी बात उलझी हुई सी हैं लल्ला।
—अरे चचा, सौ साल पहले महावीर प्रसाद द्विवेदी के ज़माने में भी टें टें काण्ड चला करते थे। किसी ने अपनी किताब का नाम ‘प्रेम-बगीची’ रख दिया। फिर तो पिल पड़े शुद्धतावादी लोग। ये भी कोई नाम है! ‘प्रेम वाटिका’ होना चाहिए। बगीची शब्द तो फारसी के बाग़ीचा से आया है। बड़े-बड़े बागी तेवर दिखाई दिए बगीची के मामले में। चचा, ये वाटिका के लोग बगीची से डरते हैं। बगीची में शरीर पर मिट्टी लगती है और वाटिका में रूमाल रख के बैंच पर आत्माओं को बुलाया जाता है। प्लैंचिट के सहारे। कैरमबोर्ड की गोटी पर उँगली रख कर जिधर चाहो आत्मा को खिसका लो। हिन्दी की सारी आत्माएं तुम्हारी उँगली के इशारे पर ही तो नाचती है। चचा, इन्हें रास नहीं आता कि कोई बगीचीबाज़ इनकी वाटिका में प्रवेश कर जाए। इन्हें सब कुछ अनस्थिर दिखाई देता है। अनस्थिर पर भी पंगा हुआ था, मालूम है?
—बता।
—द्विवेदी जी ने ‘भाषा की अनस्थिरता’ नाम का एक लेख लिखा । विवाद ‘अनस्थिरता’ शब्द पर हुआ,। बालमुकुन्द गुप्त रूपी आत्माराम ने कहा कि ‘स्थिर’ का उल्टा होता है ‘अस्थिर’, ये ‘अनस्थिर’ क्या हुआ? वाटिकाबाजों ने हालत खराब कर दी एक बगीचीबाज की।। लगातार उकसाते रहे। बगीचीबाज ने निन्यानवै दिन चुप लगाई और सौवें दिन ठोक दिया एक लम्बा सा लेख सरस्वती में। उन्होंने कहा कि कुछ ज्यादा अस्थिर होते हैं, कुछ कम अस्थिर होते हैं, यानी कुछ ज्यादा हिलते हैं, कुछ कम हिलते हैं। ऐसे दोनों लोगों के लिए हम अस्थिर नहीं कह सकते, उनके लिए ‘अनस्थिर’ कहा जाएगा। आज भी वाटिकाबाज लोग स्थिर को अस्थिर और अनस्थिर बनाने के लिए तथ्यविहीन कुचर्चाएं कर रहे हैं। मनुष्यों से सरोकार नहीं, सीधे आत्माएं आती हैं डायलॉग करने के लिए, वाटिका में। चचा, तुम्हारी आत्मा क्या बोलती है? लेख तो तुमने भी पढ़ा होगा?
—लल्ला, जो आदमी अबू आज़मी के बारे में जे कहै कै हिन्दी बोलिकै वानै गल्ती करी, वो अस्थिर ऊ ऐ और अनस्थिर ऊ ऐ।
—ये बात तो खैर व्यंग्य की आड़ में कही, पर कुछ भी जाने बिना संस्थानों की आत्माओं से बात करते हैं। कोई काम करे तो राजनीतिक उद्देश्य से कर रहा है, पुराने जिस आदमी ने काम किया, उसकी राजनीति कुछ और थी, इसकी राजनीति कुछ और है। संस्थानों के शरीर से इन्हें कुछ मतलब नहीं, आत्माओं का रुदन सुनते हैं। टें टें तो अब से सौ साल पहले हुआ करती थी, अब टें टें की जगह भें भें हो गई है। ये किशोर मानसिकता के लोग हैं और हिन्दी पर राज करना चाहते हैं, हिन्दी की आत्मा के ठेकेदार बनकर। पता नहीं कौन से अली का नूर है इनमें? दूसरे को ही गलत मानते हैं और सब्र का इम्तिहान लेते हैं।
—चल सौवीं बैठक में देखिंगे कै तेरौ गुस्सा कित्तौ बचौ।

8 comments:

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

अशोक जी राम-राम-ये टें-टें, भें-भे अच्छी रही, आभार

डॉ टी एस दराल said...

स्थिर , अस्थिर, अनस्थिर।
वाह अशोक जी, ये तो नई शब्दावली सामने आई।
जैसे अंग्रेज़ी में --मैरिड, अनमैरिड, नेवर मैरिड और डीमैरिड ।
वैसे आपके आह्वान पर हमने १ जनवरी, २००९ को ब्लोगिंग शुरू की थी, अब एक साल होने वाला है।
एक बार दर्शन देकर कृतार्थ करें।

Sumit Pratap Singh said...

गुरु देव!

सादर ब्लॉगस्ते!

आपका लेख अच्छा लगा.

प्रिया said...
This comment has been removed by the author.
शैली said...

GOOD.

janki jethwani said...

चकल्लस भी खूब रही।लेकिन सर्व जन हिताय।

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

टें-टें, भें-भे सब अच्छी तरह सुनाई दे रहा है.

दूर प्रदेश से ही आया हूँ न मैं भी.

Tej said...

chandi ke chamach se chacha ne champu ko chatni chatai........