Wednesday, February 24, 2010

चौं रे चम्पू

इनायत हिदायत शिकायत न करना





—चौं रे चम्पू! भरपूर बुढ़ापौ आय गयौ, लेकिन मन अबहु दौरि कै पतंग लूटिबे कौ होय। हालत जे ऐ कै बिना बेंत के उठौई नायं जाय। का करैं लल्ला?
—बुढ़ापा भी कुदरत का एक वरदान है चचा, इसके भी मज़े लो। एक शायर ने कहा था— ‘सताता है क्या-क्या मुझे दर्दे घुटना, जो इक बार बैठूं तो मुश्किल है उठना।’
—उड़ाय लै मजाक, उड़ाय लै चम्पू! सवाल जे ऐ कै मन की बाल तरंगन्नै कैसै रोकें?
—माफ़ करना चचा, अपनी इसी बेंत से मुझे ख़राब शेर सुनाने के लिए पीट लीजिए, लेकिन अपनी बाल-तरंगों को मत रोकिए। पिछले दिनों ‘ओल्ड एज फाउंडेशन’ का एक जलसा हुआ। मुझे बनाया हुआ था चीफ़ गैस्ट। सारे श्रोता आपकी उम्र के या आपसे ज्यादा उम्र के ही रहे होंगे। यानी पिचहत्तर से ऊपर के। कार्यक्रम से पहले चाय-समोसे का इंतज़ाम था। मैं भी था उनके बीच। कई ने मुझे टीवी के कारण पहचान लिया। बताने लगे कि कब-कब उन्होंने मुझसे क्या-कया सुना। एक बुजुर्गवार कंपकंपाते हाथों में चाय का कप लिए हुए मेरी तरफ आए। कहने लगे आप तो हास्य के कवि हैं, उदासियों के इस जंगल में आपका क्या काम?
—जादा ई निरास होयगौ।
—मैं तो हर चेहरे को पढ़ने की कोशिश कर रहा था चचा। मैंने उनसे हंसते हुए कहा कि लीजिए मैं भी उदास हो जाता हूं। इस पर वे मुस्कुरा दिए। फिर जी सारे बुजुर्ग लोग हॉल में आकर चुपचाप बैठ गए। संचालिका ने अपनी संस्था का ब्यौरा दिया कि वृद्धों के लिए क्या-क्या किया जा रहा है। फिर एक मनोविज्ञान विशेषज्ञ महिला ने तरह-तरह के तरीके बताए कि इस अवस्था का सामना किस प्रकार किया जाना चाहिए। सारे बुजुर्ग शांत भाव से सुनते रहे। अंत में आई मेरी बारी।
—तैंनैं का कही?
—मैंने कहा, कहते हैं कि वृद्ध व्यक्ति दुगुना बच्चा हो जाता है। तो मेरे प्यारे बच्चो। कविसम्मेलनों में जाते-जाते मेरी एक खराब आदत पड़ गई है, तालियों की आवाज सुनने की। यहां अब तक एक बार भी ताली नहीं बजी। तुम लोग डबल बच्चे हो तो डबल ताली बजाओ।
—तारी बजाईं?
—क्या पूछो चचा, तालियों की गूंज हॉल के बाहर दूर-दूर तक गई होगी। फिर मैंने कहा कि ये उम्र का मामला आक्रांत और अशांत होने वाला नहीं है। चालीस वर्ष पहले साठ वर्ष की उम्र में चले जाना बहुत स्वाभाविक माना जाता था। आप सत्तर से ऊपर वाले हैं। ये उम्र तो अब फोकट में मिली हुई उम्र है। मैं भी ग्यारह महीने बाद साठ का हो जाऊंगा। तो ये जो उम्र मिली है, किसलिए मिली है? दूसरों को कोसने के लिए या अपने आपको खुशियां परोसने के लिए। आपके अंदर अनुभवों का ख़जाना है। बांटिए, लेकिन ख़जाना उसी को देना जो लेना चाहे। भैया, तेरे पास वक्त नहीं है लेने का, तो मेरे पास भी वक्त नहीं है देने का। मैं जानता हूं डबल बच्चो! आपकी समस्या है अकेलापन, लोनलीनैस।




—बिल्कुल ठीक। बुद्ध के दिना तू बगीची पै नायं आवै तौ मन बड़ौ अकुलाय। हम है जायं लोनली।
—चचा, ये लोनली वाला मामला आजकल जवान लोगों में ज़्यादा है। पैसा कमाने की ललक में अठारह से बीस घंटे तक काम करते हैं। नई जीवन शैली ने पूरे के पूरे समाज को अकेला बना दिया है। लोनली वे ज्यादा हैं जिन्होंने वैभव भरी जिन्दगी की दौड़ में रकम लोन ली और फंस गए लेकर। मैंने उनसे आगे कहा कि आपको क्या फिक्र है? न लोन लेना है, न लोन देना है। इस पर बजीं ताली। मैंने कहा ये हुई न बात। याद रखिए, एक होती है उपेक्षा, एक होती है अपेक्षा। आप लोग क्योंकि डबल बच्चे हैं इसलिए उपेक्षा से रूठ जाते हैं। अपेक्षाएं पूरी न हों तो टूट जाते हैं।
—कोई कबता सुनाई?
—हां चचा, एक मुक्तक सुनाया। बातें उनकी समझ में आईं और डबल बच्चों ने ट्रिपल तालियां बजाईं—
मदद करना सबकी, इनायत न करना।
न चाहे कोई तो हिदायत न करना।
शिकायत अगर कोई रखता हो तुमसे,
पलट के तुम उससे शिकायत न करना।

4 comments:

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

शुक्रिया आपको!
आपने डबल बच्चों को हंसाय दियों
और ताली भी बजवाय दई, दिल खुश कर दियो।
भाग-दौड़, मारा-मारी वाली जिंदगी मे। लोगन के भरी जवानी मे ही बुढापो आय रहयो है।
धन्यावाद-शुक्रिया आदाब

अनिल कान्त said...

वाह !
खूब काम की बात बता गये आप तो.

निर्मला कपिला said...

मदद करना सबकी, इनायत न करना।
न चाहे कोई तो हिदायत न करना।
शिकायत अगर कोई रखता हो तुमसे,
पलट के तुम उससे शिकायत न करना।
व्यंग के माध्यम से कितनी अच्छी सीख दे दी आपने हम तो कब के सठिया गयी हैं मगर क्या मज़ाल कि 20 बरस के लोगोान को भी बात करने दें जीने का जज़्बा होना चाहिये उम्र कोई मायने नही रखती । धन्यवाद और शुभकामनायें

Sumit Pratap Singh said...

गुरु जी!
सादर ब्लोगस्ते!

सुन्दर रचना के लिए डबल बधाई व ट्रिपल शुभकामनाएं... मेरे ब्लॉग पर पधार कर मेरी एड फिल्म देखें.
धन्यवाद...