Wednesday, August 11, 2010

लेह में मेह लील गई देह

—चौं रे चम्पू! जे बता कै का कियौ जा सकै और का नायं कियौ जा सकै?
—चचा, यह सवाल तो बहुत व्यापक है। करने योग्य बहुत सारी चीजें हैं और जो नहीं की जा सकतीं, ऐसी भी बहुत हैं।
—तू कोई एक बता यार। घुमावै चौं ऐ?
—चचा, प्रकृति का विरोध किया जा सकता है, लेकिन उसे सम्पूर्ण रूप से पराजित नहीं किया जा सकता।
—बात तौ सई कई ऐ रे!
—लेह में बादल फट गए। हम प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के हज़ार प्रयत्न कर लें, पर प्रकृति के कोप की तोप के प्रकोप के आगे कोई स्कोप नहीं। यूरोप के पोप बचा सकते हैं न कान्हा के गोप। जो लोप हो गए अब उनकी होप भी कम है।
—बादर फटे कैसै?
—बंगाल की खाड़ी से उठने वाली भाप बादलों में बदल गई। घन इतने सघन हो गए कि टकराने लगे। धरती के एक टुकड़े पर धांय से गिर पड़े। इसे कैसे रोकेंगे, बताइए! बादल फटने से पहले माना कि प्रकृति ने बिजली कड़का कर टैलीग्राम भेजा था कि संभल जाओ, लेकिन हम कब उस चेतावनी को इतनी गंभीरता से लेते हैं। खूब बिजली कड़कीं लेह में, ऐसी कड़कीं जैसी वहां पर पहले कभी न कड़की होंगी। गांव वाले अपने घरों में दुबक गए। जब ऊपर नभ से पानी का कुंभ औंधा हुआ तो यहां के सारे घड़े टूट गए घड़ी भर में। लेह की रेह जैसी मिट्टी निर्मोही मेह के कारण दलदल में बदल गई। वह दलदल न जाने कितनी देहों को लील गया।
—तौ लेह में मेह लील गई देह!
—उनमें सेना के हमारे जवान भी थे। सीमा पर तैनात, शत्रु पर कड़ी नजर रखे हुए, लेकिन मिट्टी, कीचड़, पानी में बहते-बहते पहुंच गए पल्ली पार। अब भारत सरकार पाकिस्तान से मांग कर रही है कि उस मिट्टी में से हमारे सैनिकों को निकालने में हमारी सहायता करे। बताइए, जो सैनिक लड़ने के लिए खड़े थे सीमा के इस ओर, उनके शवों को निकालने में उनकी दिलचस्पी क्यों होगी भला?
—अरे नायं रे, इत्तौ बुरौ नायं पाकिस्तान, मौत-मांदगी में तौ दुस्मन ऊ मदद करै। चौं नाय निकारिंगे?
—हां, वही तो बात मैं भी कहना चाहता हूं चचा कि अब हमारे वे सैनिक शहीद हो गए। पाकअधिकृत कश्मीर में पाकिस्तान के जो सैनिक उनकी देह निकालेंगे, वे मनुष्य होंगे। मनुष्यता के नाते लेह से बही हुई एक-एक देह को निकालेंगे। निश्चित रूप से निकालेंगे। अपना सद्भाव-सौहार्द दिखाएंगे, क्योंकि लड़ाई एक मानसिकता है, भलाई दूसरी मानसिकता है। मनुष्य अन्दर से जो प्रकृति रखता है वह कड़ाई से भलाई की ओर जाती है। प्रसाद जी ने लिखा था— ‘निकल रही थी मर्म वेदना करुणा विकल कहानी सी, वहां अकेली प्रकृति सुन रही हंसती सी पहचानी सी।’ प्रकृति जो कभी हमें सजाती और संवारती है, वही रोने के लिए भी विवश कर देती है।
—पिरकिरती कूं परास्त नायं कर सकै कोई।
—उसे धैर्य से ही परास्त किया जा सकता है। अन्दर की प्रकृति हो या बाहर की, कुल मिलाकर घोर संग्राम के समय में और विकट विपत्तियों में हमारे जीवन में कुछ कांट-छांट करती है। हमारे वे एक सौ तेतीस जवान आपदा प्रबंधन में महारत रखते थे। उनको ऐसी दीक्षा दी गई थी कि इतनी ऊंचाई पर अगर कोई विपदा आए तो तुम कैसे अपने देशवासियों को बचाओगे। वे स्वयं ही काल-कलवित हो गए। दूसरे देश के मनुष्य उनकी देह निकाल रहे हैं। दूसरे देश के सैनिकों को धन्यवाद दूंगा कि उन्होंने हमारे सैनिकों को सम्मानपूर्वक तिरंगे में लपेटने की सुविधा प्रदान की। धन्यवाद देना चाहता हूं आमिर खान को जिन्होंने स्कूल के प्रिंसिपल से कहा है कि टूटी इमारत बनाने में मदद करेंगे। प्रिंसिपल ने साधन और श्रमशक्ति को देखकर अनुमान से बताया है कि पुनर्निर्माण में आठ-नौ महीने लग जाएंगे। बहुत समय होता है आठ-नौ महीने चचा! स्कूल को तो आठ दिन में खड़ा कर देना चाहिए। मन करता है कि मैं भी लेह पहुंच जाऊं और जो घर, स्कूल कार्यालय टूटे हैं, उजड़े हैं, वहां कार सेवा करूं। बच्चों को पढ़ाऊं। किलकारियों को वापस ले आऊं।
—चल तौ मैं ऊं चलुंगो तेरे संग। बता कब चलैगौ?

8 comments:

ब्रह्माण्ड said...

यह प्रकृति भी निराली है, कभी सूखे की मार झेलनी पड़ती है तो कभी बाढ़ की विभीषिका और कभी बदल फटने से उत्पन्न होने वाली आपदा| लेह जैसी जगह जहा पर वर्षा वैसे ही दिखती है जैसे हमरे नेताओ के अन्दर ईमानदारी| इसीलिए ऐसी स्थिति के बाद राहत कार्यों में व्यवधान तो आना ही है| सैनिको के साथ साथ विदेशी पर्यटकों की जान जाना भी देश के लिए खेद का विषय है| आमिर खान जी ने जो पहल की है वह सराहनीय है|

Sumit Pratap Singh said...

गुरु जी वास्तव में बहुत ही दुखद घटना थी.समाचारों में लेह के हालात देख कर आँखें भर आती हैं.
इसी दुर्घटना पर लिखा आपके द्वारा प्रशंसित हाइकू प्रस्तुत है...

बादल फटा
हुआ विनाश
जीवन घटा.

Parul kanani said...

leh mein jo hua..vo kalpna se kain jyada hai..mujhe to ab pata chala ki badal fatne se itni badi trasdi ho sakti hai...bahut dukhad hai ye..par haan "rancho" ki school bachane ki muhim vakai sarahniy hai :)

डॉ० डंडा लखनवी said...

यह चक्रधर की चकल्लस नहीं। प्रकॄति की विकराल विभीषिका है । इसे देख कर मन द्रवित है।
सद्भावी -डॉ० डंडा लखनवी

Majaal said...

सुरूर-ए-गुरूर हुआ काफूर 'मजाल',
कुदरत ने आजमाया तो औकात याद आई

Udan Tashtari said...

अति दुखद एवं हृदय विदारक घटना.

Anonymous said...

NICE POST...

Khare A said...

dhire se aapne dil ki bat keh di,
ki leh ko is smayae pure hindustaan ki abshyakta he

bahut hi touchy Sir ji
pranaam "chcha ji"