Wednesday, March 23, 2011

अकादमिक अकड़ का अखाड़ा ऑक्सफोर्ड


—चौं रे चम्पू, तेरी यूके की जात्रा कैसी रई रे?

चचा सात दिन की यात्रा थी। सात लोग साथ में थे। सात जगह कार्यक्रम हुए। साथ में तुम्हारी बहूरानी भी थी तो ऐसा आनन्द आया जैसे सातवें आसमान पर कोई पहुंच जाए। बताने के लिए सात घंटे चाहिए। लिखने के लिए कम से कम सात अध्याय हों।


और सात जनमन तक सुनैं तेरी बातन्नैं!

सात जन्मों की क्या चलाई चचा, चलो अभी सात मिनिट ही काफ़ी हैं। मुझे सबसे ज़्यादा मज़ा आया

ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में, क्योंकि वहां जाने कितने जन्मों की शैक्षिक आत्माएं घूम-विचर रही

थीं। भटक रही थीं तो नहीं कह सकता, क्योंकि उनकी उपस्थिति से कोई बेचैनी नही हुई। उस इलाक़े मे जाकर एक अलग तरह की अकादमिक शांति की अनुभूति हुई।

अरे हमारे तक्ससिला और नालन्दा कौ मुकाबलौ कोई कर सकै का?

लेकिन जिस दुनिया को हम आधुनिक कहते हैं उसे बनाने में इस विश्वविद्यालय का बड़ा योगदान रहा है। अंग्रेजी बोलने वालों का ये सबसे पुराना विश्वविद्यालय है। अजब तरह का वातावरण है। पूरा शहर जैसे किताबों में, शब्दों में और ज्ञान-विज्ञान में भी डूबा हुआ है और बीयर की दुकान पर चुस्की भी लगाता है।

बीयर की दुकान?


हां चचा, एक बड़ी दिव्य बीयर की दुकान देखी मैंने। बहुत पुरानी! सौ डेढ़ सौ साल से ज़्यादा पुरानी। छोटी सी जगह, पुराना फर्नीचर। कोई कुर्सी टूट भी जाती है तो नई कुर्सी बिल्कुल पुरानी जैसी ही बनाई जाती है। एक छोटा सा कमरा है जिसकी दीवारों और छतों पर फ्रेमबद्ध टाइयां टंग रही हैं।

टाइयां! कैसी टाइयां रे?

उन विद्यार्थियों की जो यहां से पढ़कर गए हैं। जाते-जाते निशानी बतौर पब को अपनी टाइयां भेंट कर गए। हज़ारों टाइयां हैं। जिसकी टाई है, एक पर्ची पर उसका नाम भी नत्थी है। आज की नहीं हैं, सौ-पचास साल पुरानी हैं। भदरंग हो गई हैं। जिन कागज़ों पर नाम लिखे हैं, वे पीले पड़ चुके हैं। लेकिन एक मधुर सा अहसास तो होता है कि ये हज़ारों हज़ार टाइयां जिन गलों में बंधी होंगी, वे गले यहां स्वयं को तर करने के लिए ज़रूर आते रहे होंगे। इस स्थान से उनका प्रेम रहा होगा। पश्चिम की ये बात मज़ेदार है कि वहां पढ़ने-लिखने के गम्भीर काम को भी जीवन के रंग और उत्साह के साथ किया जाता है। पूरा शहर पुरानी और भव्य इमारतों से सम्पन्न है। घुमाने वाले ने भी एक एक बात बारीकी से बताई।

कौन्नै घुमायौ?

एक हैं वहां पद्मेश जी। बिजनेस कॉलेज चलाते हैं। जिस भवन में उनका कॉलेज चलता है, वह उन्नीस सौ आठ में बना था और ऑक्सफोर्ड के मुख्य बस अड्डे के सामने है। वो हमें वहां की गलियों में घुमाने ले गए। ऑक्सफोर्ड की गलियां हमारी ज़ामा मस्ज़िद की गलियों की याद दिलाती हैं। पतली सी गली घूमते-घामते पता नहीं कौन से कॉलेज में निकल जाएगी। उस कॉलेज में अन्दर जाओ तो दिव्य हरी घास का एक आंगन होगा और उसके चारों तरफ कक्षाएं। आप अनायास कहीं घुस जाएं इसलिए कई जगहों पर बोर्ड लगे देखे— ‘प्राइवेट। यानी, किसी का निवास है। निवास के पास ही अध्ययन केन्द्र हैं, पुस्तकालय हैं, चर्च हैं। इतिहास विभाग के सामने से गुज़रा तो मुझे .एच.कार की याद आई। उनकी किताबव्हाट इज़ हिस्ट्रीका अब से बत्तीस साल पहले मैंने हिन्दी अनुवाद किया था।

अपनी छोड़, व्हां की बता!

पूरे ऑक्सफोर्ड में ऐतिहासिक स्मृतियों के पुरानेपन की हवा बहती हो जैसे। किताबों के पन्नों और कबूतरों की फड़फड़ाहट। नीले रंग के कलात्मक पुराने खम्बे जिन पर गलियों के नाम लिखे हुए हैं, वे भी नहीं बदले। हर खम्बे के ऊपर एक गोलाकर नारियलनुमा गुम्बद-सा बना हुआ है, जिसके नीचे गलियों की ओर इशारा करने वाली पतली-पतली लौह-पट्टियां हैं, जिन पर स्थानों के नाम लिखे हैं। दुकानें हैं। मकान हैं। ज्ञान है। आपस का सम्मान है। किसी और शहर जैसा हंगामा नहीं है। बसें विश्वविद्यालय का टूर कराती हैं। विद्यार्थी ज़्यादातर साइकिलों का इस्तेमाल करते हैं। एक अलग तरह की अकादमिक अकड़ का अखाड़ा लगा ऑक्स्फोर्ड, जहां सादगी की साइकिलों की लम्बी-लम्बी कतारें थीं।

2 comments:

Patali-The-Village said...

बहुत सुन्दर आलेख धन्यवाद|

mridula pradhan said...

bahut achcha laga.....