Thursday, October 16, 2008

कौए कम हुए पर कांय-कांय बढ़ी

--चौं रे चम्पू! कउआ नाएं दीखें आजकल्ल, कहां गए सारे कौआ? सराधन में बिकट समस्या है गई। कौआ ग्रास खावै तबइ तौ पित्र-पक्स कूं पहुंचै। जे का भयौ?
--चचा! कौए कम होते जा रहे हैं, इसमें कोई शक नहीं। आदमी की उम्र और आबादी दोनों बढ़ रही हैं। उसका आचरण बदल रहा है, इसलिए कौए कम हो रहे हैं। आप तो जानते है कि कौआ यमदूत भी होता है। यमराज को लगा होगा कि काम कम है और स्टाफ ज़्यादा है, सो उन्होंने सोचा होगा पहले इन्हें ही निपटाओ। कौए शायद यमराज से सैलेरी बढ़ाने की भी मांग भी कर रहे होंगे। कुछ कौए हो सकता है आमरण अनशन में जाते रहे हों।
पहले बच्चे खुले आंगन में बैठ कर रोटी खाते थे तो कागराज छीन कर ले जाते थे। बच्चा रोता था, मां मुस्काती थी। कौए को प्यार से डपटते हुए बच्चे को दूसरी रोटी लाकर देती थी। कौए का पेट भर चुका होता था इसलिए धन्यवाद की मुद्रा में बड़े प्यार से अपनी इकलौती आंख से बच्चे को निहारता था। बच्चे की भी कौए से दोस्ती हो चुकी होती थी। मुस्काता हुआ बच्चा जब अपनी दूसरी रोटी कौए की तरफ बढ़ाता था तब मां खिलखिलाती हुई बच्चे को गोदी में लेकर अपनी मढ़ैया में आ जाती थी।
--निर्धन जी कौ गीत याद ऐ का?
--हां चचा! ‘हम हैं रहबैया भैया गांव के, फूस की मढ़ैया भैया बरगद की छांव के, कागा की कांव के, हम हैं रहबैया भैया गांव के’। क्या ही मस्ती से गाते थे। कौआ किसी मुंडेर पर आकर बैठ जाए तो खुशी होती थी कि आज कोई मेहमान आएगा। अनचाहे मेहमानों से डर भी लगता था। मेरा भी एक कवित्त सुन लो चचा!

--सुना, सुना! तू ऊ सुनाय लै।
--घरवाली को ज़मीन की कुड़की के लिए अमीन की आने का अंदेशा है। अपने घर वाले से कहती है--

कुरकी जमीन की, जे घुरकी अमीन की तौ
सालै सारी रात, दिन चैन नांय परिहै।
सुनियों जी आज पर धैधका सौ खाय,
हाय हिय ये हमारौ नैंकु धीर नांय धरिहै।
बार-बार द्वार पै निगाह जाय अकुलाय,
देहरी पै आज वोई पापी पांय धरिहै।
मानौ मत मानौ, मन मानैं नांय मेरौ, हाय
धौंताएं ते कारौ कौआ कांय-कांय करिहै।

--चचा कौआ हंसाता था, रुलाता था, खुश करता था या डराता था, लेकिन आता था। कौए को दिवाकर भी कहते हैं क्योंकि मनुष्यों को जगाने की ज़िम्मेदारी मुर्ग़े के साथ आधी उसकी भी थी। इस चंडाल पक्षी को चिरायु भी कहते हैं पर ये नाम तो अब गलत हो गया। यमदूत, आत्मघोष, कर्कट, काक, कोको, टर्रू, बलिपुष्ट, शक्रज, के अलावा अरिष्ट भी कहते हैं इसको। दवाइयों में इसका उपयोग कैसे होता था यह तो बाबा रामदेव जानें पर एक दवाई सुनी होगी आपने अशोकारिष्ट। अरिष्ट लगने से न जाने कितनी आयुर्वेद की दवाइयां बनी हैं। पर अरिष्ट के साथ ऐसा अनिष्ट हुआ कि चिरायु की आयु ही कम हो गई चचा।
--चौं भई?
--भूख और कुपोषण चचा। प्यासा कौआ घड़े में कंकड़ डाल तो सकता है पर भूख लगने पर कंकड़ खा तो नहीं सकता। अब आलम ये है कि जो इंसान बेहद ग़रीब है वो रोटी के टुकड़े को तब तक कलेजे से लगा कर रखता है जब तक वह उसके कलेजे के टुकड़े के मुंह में न चला जाए। जिसके पास ज़रा सा भी पैसा आ गया वो बड़ी फास्ट गति से फास्ट फूड खाता है। कौए टापते रह जाते हैं। सड़े फास्ट-फूड का विषैला कचरा खाकर मर जाते होंगे। खेतों में भी बुरा हाल है। इस प्रकृति-प्रदत्त कीटनाशक को मलभुक भी कहा जाता है, किसानों की सहायता करता था, लेकिन यह प्रजाति तेज़ी से लुप्त हो रही है। खेतों में पड़ने वाले रासायनिक कीटनाशकों के कारण यह प्राकृतिक कीटनाशक समाप्त हो रहे हैं।
अपना जन्म बुलन्दशहर संभाग के खुर्जा शहर में हुआ था। नरेश चन्द्र अग्रवाल की ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार वन विभाग के आंकड़े बताते हैं कि बुलन्दशहर ज़िले में सन दो हज़ार तीन में कौओं की तादाद दस हज़ार थी, अगस्त दो हज़ार आठ की गणना के अनुसार अब सिर्फ दो हज़ार चार सौ उनासी कौए बाकी रह गए हैं।
--ऐसी परफैक्ट गिनती कैसै कल्लई?



--चचा! जब यमलोक में मनुष्यों की गणना परफैक्ट है तो मनुष्य भी तो यमदूतों की ठीक-ठीक गणना रख सकता है। मुझे तो लगता है कि यमलोक के इन कांइयां कर्मचारियों ने फाइलों में हेराफेरी करके अपना पुनर्जन्म मनुष्य लोक में निर्धारित करा लिया। इसलिए धरती पर कौए तो कम हो गए पर कांय-कांय बढ़ती जा रही है।

12 comments:

Sumit Pratap Singh said...

आदरणीय गुरु देव,
सादर ब्लॉगस्ते!
अति सुन्दर रचना।
पढ़कर हृदय प्रसन्न हो गया।
सादर

Vivek Gupta said...

सरल भाषा में सच को कह जाना आपकी मौलिकता रही है | मैं आजतक उसी का कायल रहा हूँ | फिर से एक अत्यन्त सुंदर रचना के लिए आपको धन्यवाद |

Vinay said...

आप के तो हम पुराने कायल हैं! कभी इनायते-निगाह हम पर भी!

makrand said...

sir
charn sparas
aap pr to saraswati ki kripa he
hum to thare kaga
bas ye desire he
kabhi humare blog pr ek comment kr de
to is janam me to apna swarg pakka
regards
makrand

अमित माथुर said...

गुरुदेव को प्रणाम, लीजिये लिख रहे हैं अपनी प्रतिक्रिया इस उम्मीद से की मेरी प्रतिक्रिया कम से कम पढने लायक तो होगी. आपके 'कागापुराण' ने मन मोह लिया मगर काकभुशुण्डी महाराज को आपने याद नही किया. खैर जिस तरह कागा गायब हो रहे हैं उसी तरह कागा से जुड़ी कहानिया भी पुरानी होती जा रही हैं. वैसे भी कागा हर किसी को एक आँख से देखता है और खाने-पीने तक में किसी तरह का भेदभाव नहीं करता मगर जब सृष्टि से ये एकता की भावना ही लुप्तप्राए है तो कागा लुप्त नहीं होगा ऐसा कैसे सोचा जा सकता है. मेरे विचार से हमे आने वाली नस्लों के लिए कौओ का मेसेज और ख़ुद कौए बचाने होंगे. वैसे मुझे आश्चर्य है की टिप्पणीकर्ता विषय पर टिपण्णी न कर गुरुदेव का महिमामंडन करते रहते हैं. अगर गुरुदेव के विचार से टिप्पनिकार्ताओ के विचार मिलेंगे या विरोध में होंगे तभी तो कोई "सार्थक सोच" पैदा होगी. रटी-रटाई और घिसी-पिटी टिप्पणिया गुरुदेव की मेहनत को जाया कर रही हैं. -अमित माथुर

अमित माथुर said...

गुरुदेव, मॉल संस्कृति पर लिखे अपने ब्लॉग पर आपकी टिप्पणि का इंतज़ार है. http://vicharokatrafficjam.blogspot.com -अमित माथुर

Jaidev Jonwal said...

guruji ko parnaam lakin kaagraaj kaha gaye
iska sabut to aapne khud ke sundar chitro mein de diya hai jab aap aaye to kaagraaj ginti mein jyadha rahe aap akele wo ye baat kar rahe the ki insaan jyadha ho gaye hai or ye matlabi bhi apni jageh banane ke liye hamko uda dete hai or waise bhi ham ab aalsi ho gaye hai kahi aate jaate nahi hai yahan ke log bhi miavat wala khana dete hai saraad wale din hamari tabiyat kharab ho jaati hai kahi aaya jaya nahi jaata apna to viswaas uth gaya hai in insaani chole mein maushye ko dekh kar
kiska bhrosha kare
jaha ham baithe hai yeh insaan wahan baithenge nahi balki hamhein uda kar chehal kadmi karenge na khud ko chein hai na hamein lene dete hai

अभिषेक मिश्र said...

Chakradhar ji, yeh blog ki hi mahima hai ki aapka sachatkar sambhav ho paya hai. aapki rachna par tippani kya doon, main to aapka bachpan sehi pashanshak raha hoon. swagat aapka, apni virasat ko samarpit mere bhi blog par.

prakash mtr said...

bahut hi achchi rachana likhi hai saheb

Sumit Pratap Singh said...

आदरणीय गुरुवर,
सादर ब्लॉगस्ते,


दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं। आपने मेरे ब्लॉग पर पधारने का कष्ट किया व मेरी रचना 'एक पत्र आतंकियों के नाम' पर अपनी अमूल्य आशीर्वादरूपी टिप्पणी दी। अब आपको फिर से निमंत्रित कर रहा हूँ। कृपया पधारें व 'एक पत्र राज ठाकरे के नाम' पर अपनी टिप्पणी के रूप में आशीर्वाद दें व अपने विचार प्रस्तुत करें। आपकी प्रतीक्षा में पलकें बिछाए... आपका शिष्य...

अभिषेक मिश्र said...

मान्यवर चक्रधर जी महाराज,
बातें भला क्या है राज,
कौओं पर तो सभी चिल्लाते हैं
पर बिन परों वाले कौओं पर
आप क्या फरमाते हैं?
दिवाली की शुभकामनाएं. स्वागत मेरे ब्लॉग पर भी.

MOHAN KUMAR said...

wah guruvar kya likha hai.