Wednesday, November 19, 2008

तेरी बात नईं पची

--चौं रे चम्पू! भावनान कूं रोकिबे कौ का उपाय ऐ?
--चचा, मार दिया। पापड़ बेलने वाले बेलन की मूठ से। अब काम नहीं चलेगा झूठ से। दरअसल, भावनाएं इंसान की चेतना को इस कदर बेलती हैं कि उनके विस्तार को अस्तित्व की तंत्रियां बड़ी मुश्किल से झेलती हैं। लेकिन आप तो उस संतई तक पहुंच चुके हैं जहां भावनाओं पर नियंत्रण पाया जा सकता है। आप मुझसे क्यों सवाल करते हैं? ज़रूर आपके पास कोई जवाब है, आप ही बता दें।
--नायं तू ई बता।
--चचा, भावना हमारे यहां बहुतायत में पाई जाने वाली चीज़ है। पिछले दिनों एक अंतरराष्ट्रीय सर्वेक्षण करने वाली संस्था ने पाया कि इस धरती पर सबसे ज़्यादा भावुक लोग भारत में पाए जाते हैं। भा से भारत और भा से भावना। भावना का खेल निराला है। भावना को भाव ना मिले तो भाव खा जाती है और भीतर ही भीतर भयंकर, भयावह भभूके उठाती है। भावना के ऊपर दिमाग का ज़ोर चले तभी काबू में आ सकती है। मनुष्य का अस्तित्व भी एक बगीची है चचा, जिसमें भावना और ज्ञान का मल्ल-युद्ध चलता रहता है। भावना जीत गई तो ज्ञान गया गड्डे में और ज्ञान जीत गया तो भावना गई भाड़ में। अखिल ब्रह्मांड में मनुष्य अनुपम कृति है। अचरजों से भरा है यह शरीर। कहा गया है-- ‘दुर्लभं मानुषं देही’। पर यह भी जानते हैं कि ‘देहिनां क्षणभगुंर:’। इस सर्वोत्तम कृति को समाप्त भी होना है। ‘जीवानां मृत्योर्ध्रुवम्’।
--भौत संसकिरत बोल रयौ ऐ?
--चचा! मृत्यु ध्रुव है यानी अटल। जितनी ज़िंदगी है वही है असल। मिर्ज़ा ग़ालिब कह गए हैं कि जिस शख़्स को जिस शग़ल में मज़ा आता है उसके लिए वही ज़िंदगी है। ज्ञान की लगाम पकड़े बिना भावना के घोड़े पर बैठोगे तो उस सफर का अपना मज़ा है। जग-डंडी देखोगे न पग-डंडी। साध के सवारी करोगे तो समकालीन राजपथ पर कालीन-सम सुविधाएं बिछ जाएंगी। इस तरह भी कह सकते हैं कि ज़िंदगी ज्ञान के सहारे चलेगी तो सुरम्य घाट बनाएगी, नहीं तो अपनी ही भाव-धारा से बारह-बाट कर देगी।
--भारत में भाव-धारा बलवती चौं ऐ?
--क्योंकि अंकुश बहुत ज़्यादा है। भावनाएं जहां निर्द्वंद्व होती हैं, जहां सब कुछ अभिव्यक्त करने की आज़ादी होती है, वहां दिमाग को अतिरिक्त श्रम करने की ज़रूरत नहीं पड़ती। हमारा समाज भावना-प्रवण होते हुए भी इतना भावना विरोधी है कि व्यक्ति को अन्दर ही अन्दर ज्वालामुखी बना देता है। ज्वालाएं खुलकर नहीं नाच पातीं, गुपचुप गेयता बढ़ती जाती है।
--गुपचुप गाऔ, का परेसानी ऐ?।
--चचा, गेयता का मतलब समझे नहीं। संबंधों में गेयता।
--पहेली मत बुझा, साफ बता?
--पुरुष जब पुरुष से संबंध बनाता है तब उसे गेयता कहते हैं। नारी जब नारी से संबंध बनाती है, उसे लेस्बिता कहते हैं। जानकारी में तो तुम्हारी सब कुछ है चचा। तुम से भला कौन सा अनुभव बचा। हमारे देश में गे अथवा गेय अथवा गेयता के अपार सिलसिले हैं। संबंध गुपचुप गेय हैं। अनेक देशों में कानूनी मान्यता मिल गई। ‘दुर्लभं मानुषं देही’ जिसका जो हो जाए सनेही। पर अपना समाज नहीं मानता। किसी व्यक्ति को कुंवारे रहने का तो कानूनी अधिकार है पर गेयता का नहीं।
--अरे मैं समझ गयौ, जे सब तौ बचपन की कौतुक क्रीड़ा ऐं। सरीर की आंधी और बवंडर के कारन पैदा होयं और समय रहते चली जायौ करें। जामें भावुकता कौ कोई मसला नांऐं।
--ये तुम कैसे कह सकते हो चचा। भावना का क्या है, पता नहीं कब किससे जुड़ जाए। प्रभु जी तुम चन्दन हम पानी। चंदन जहां घिसो वही सुगंध। इज़राइल से दो गेय माता-पिता योनातन और उमर घेर मुम्बई आए हुए हैं। ये तय करना मुश्किल है कि कौन माता, कौन पिता? दोनों माता, दोनों पिता! ये दोहरा लाभ है गेयता में। वे भारतीय कानून की धारा 377 का मज़ाक बनाते हैं जो समलैंगिकता को अपराध बताती है। लेकिन प्रसन्न हैं कि किराए कि कोख आसानी से उपलब्ध हैं। बान्द्रा में मिल गई किराए की कोख। पा गए बच्चा! सुख का कारोबार सच्चा। अख़बार में जो फोटो छपा है उसे देख कर कोई कह नहीं सकता उनसे अधिक सुखी कोई होगा। असल चीज़ है जीवन का आनंद, जो बिना किसी को नुकसान पहुंचाए मिलता रहे।
जिन्हें गेयता रास नहीं आती वो रासा तो न करें। परसों एक नामी-गिरामी व्यक्ति ने आत्महत्या कर ली। भावना की मार थी या जीवन में भाव ना मिला, पंखे से लटक गए। कितने ही युगल सामाजिक बंधनों के कारण आत्मघाती हो जाते हैं। ऐसे लटकने से गेयता भली। ज़िंदगी तो बची।
--चम्पू! तेरी बात नईं पची।

7 comments:

Dr. Ashok Kumar Mishra said...

bahut prabhavshali

Neelima said...

बहुत खूब !

विवेक सिंह said...

हमें तो आपकी कविताएं ही अच्छी लगती हैं .

Alpana Verma said...

sach mein hamen bhi-चम्पू! तेरी बात नईं पची।

Sumit Pratap Singh said...

वाह गुरुदेव वाह।

Sumit Pratap Singh said...

आदरणीय गुरुवर,

सादर ब्लॉगस्ते,


कृपया पधारें व 'एक पत्र पप्पू के नाम'पर अपनी टिप्पणी के रूप में आशीर्वाद दें व अपने विचार प्रस्तुत करें। आपकी प्रतीक्षा में पलकें बिछाए... आपका शिष्य...

अमित माथुर said...

ताज में धडाके, साठ घंटे तक सुनाये गए / दस निर्मोही, शिवराज की बजाये गए / ऐसो भयो गड़बड़, की नेता मुरझाये गए / मुंह खोला भक, अंट-शंट बकियाये गए. विषय पर गुरुदेव से प्रतिक्रिया चाहूँगा -अमित माथुर