Friday, April 24, 2009

हरी पेंसिल — पीली पेंसिल

—चौं रे चम्पू! प्यार ते मजबूत बंधन कौन सौ ऐ रे?
—चचा! जो लोग समझते हैं कि प्यार का बंधन सबसे मज़बूत होता है, वे मूर्ख हैं। प्यार तो किसी भी नखरीली गैल में रूठने के बाद टूट सकता है, पर एक बंधन होता है कृतज्ञता का, ये बंधन कभी नहीं टूटता। लेकिन…. ये बात कृतघ्नों पर एप्लाई नहीं होती चचा!
—कृतज्ञ कौन और कृतघ्न कौन?
—कृतज्ञ माने अहसानमंद और कृतघ्न माने अहसानफ़रामोश। एक होशमंदी का उदाहरण देता हूं कि कृतज्ञ होते हैं वोटर और कृतघ्न होते हैं नेता। वोट लेकर वोटर को भूल जाएं ऐसा दुर्गुण नेताओं में पाया जाता है। और वोटर को देखिए! जिसका खाओ उसकी गाओ, जिसका पियो उसके लिए जिओ। इन दिनों वोटर को खिलाने-पिलाने के सारे इंतज़ाम चल रहे हैं क्योंकि हमारे नेता जानते हैं कि खाने-पीने के बाद वोटर जान दे देगा पर अपनी आन नहीं छोड़ेगा।
जिसने अपने महान नेता के हाथ से सौ का नोट ले लिया, जिसके कुनबे ने दो जून की रोटी खा ली वो अप्रैल-मई में दगा थोड़े ही देगा। जिसने शराब पी ली वह कोई दूसरा बटन थोड़े ही दबाएगा। पोस्टमार्टम के बाद भी अगर उसका हाथ कहीं गिरेगा तो उसी बटन पर गिरेगा। और नेता लोग भी कृतघ्न भले ही हों, जान-बूझ कर तो ज़हरीली शराब बांटेंगे नहीं। ये तो बीच के आंसी-सांसी लोग हैं जो पच्चीस परसैंट से ज़्यादा मिथाइल एल्कोहल मिला देते हैं। नशीले कैप्सूल डाल देते हैं। वोटर पस्त! चक्कर, उलटी, दस्त! पीने वाले की कृतज्ञता देखिए कि पिलाने वाले का नाम तक नहीं बताता। उसे क्या मतलब कि पउए की थैली बांटने वाला ख़ुद रुपयों से थैली भरेगा। उसने पी ली है तो उसी की खातिर मरेगा। कोई नामबताऊ अर्ध-मुर्दा करवट भी लेने लगे तो पुलिस उसकी डंडा-डोली कर देती है।
—नामुराद पुलिस नै बंटाढार कद्दियौ।
—देखो चचा, मैं ज़िन्दा-मुर्दा कुछ भी बर्दाश्त कर सकता हूं, लेकिन पुलिस की निन्दा नहीं। इतने भोले-सरल पुलिस वालों को कुछ न कहना। उनसे महान कौन होगा जो ड्यूटी करते हुए अपने शरीर तक की परवाह नहीं करते। कितनी तोंद बढ़ जाती है, आंखों के पपोटे फूल जाते हैं, हिलने तक में कई बार परेशानी आती है, फिर भी बड़े अफसर के आने पर खड़े होते हैं। इनकी कितनी ऊर्जा कृतज्ञ और कृतघ्नों के बीच संतुलन बनाने में खर्च होती है। पोस्टमार्टम के बाद कितनी ही विधवाओं ने चाहा कि शव को एक बार घर ले जाने दो पर पुलिस ने उनके पैसे बचवाए— नहीं, सीधे मुर्दघाट लेकर जाओ! फूंक दो!

अब इसमें बचा ही क्या है? चचा, हमारी बेचारी भोली पुलिस भूल जाती है कि फूंकने के बाद बचता है विधवा का वोट। विधवा की हाय लग जाय तो लोग पुलिस चौकी को फूंक डालते हैं। वोटरों ने राजौरी गार्डन पुलिस बूथ को फूंक दिया कि नहीं?
—जिन लोगन्नै जहरीली सराब कांड में पुलिस चौकी फूंकी वो कृतज्ञ ऐं कै कृतघ्न ऐं?
—चचा, मुझे कंफ्यूज़ करने की कोशिश मत करो। एक बात सोचो, अख़बार में छाप दिया कि ज़हरीली शराब से पन्द्रह मरे, तीस गम्भीर। मैं आपसे सवाल करता हूं कि क्या इस मुद्दे पर सिर्फ़ तीस लोगों के गम्भीर होने से बात बनेगी। सोचो चचा, सोचो! गम्भीरता से सोचो कि कितने लोगों की गम्भीरता चाहिए। एक पुलिस वाले ने मुझे बताया था कि चोरी, डकैती, कत्ल का अपराधी एक बार मौक़ा-ए-वारदात पर ज़रूर आता है, ये देखने के लिए कि कहीं उस पर तो शक नहीं जा रहा। इसी तरह दो दिन से नेता लोग झुग्गियों में जा-जा कर मरे हुए लोगों से हाल पूछ रहे हैं और मरीज़ों को श्मशान और कब्रिस्तान में सुविधाएं दिलाने का वादा कर रहे हैं।
—छोड़ इन बातन्नै! एक पार्टी कौ कार्यकर्ता जे दो पेंसिल दै गयौ ऐ। कित्ती अच्छी बात ऐ! तुम पढ़ौ-लिखौ जाके ताईं कैसौ भड़िया प्रतीकात्मक उपहार ऐ।
—वाह चचा! लाओ मुझे दो ये पेंसिल! इन पेंसिलों का पढ़ाई-लिखाई से कोई वास्ता नहीं है। जे. जे. कॉलोनी के कच्ची दारू के ठेके पर हरी पेंसिल के बदले महुआ से खिंची कच्ची शराब मिलेगी और पीली के बदले रम। उस कार्यकर्ता ने तुम्हें पेंसिल का महत्व नहीं बताया क्या? बैठो, मैं अभी लाया दो थैलियां। बगीची पर गिलास तो रखे हैं न? पी कर मर गए तो हरिद्वार में मिलेंगे, नहीं तो यहीं अगले बुधवार को।

3 comments:

डॉ महेश सिन्हा said...

चक्रधर जी कोई शब्द नहीं इस का जवाब देने के लिए

अमित माथुर said...

गुरूजी को सादर परनाम, बहुत दिनों के बाद इस रेगिस्तान में बारिश की बूँद पड़ी थी तो रहत मिली थी. अब इन दो धुंआधार और छमाछम बरसात वाले लेखो मन और आत्मा दोनों को भिगो दिया. अपने स्वर्णिम शब्दों को यहाँ टंकित करने का बहुत-बहुत शुक्रिया. शब्द संधान को आपका अचूक है ही अतः कुछ और की कामना सदा रहती है. गुरूजी एक बात समझ नहीं आती, जो नेता और लीडर देश को चला रहे हैं उनको गाली देकर क्या हम वोटरों के कर्तव्यों की इतिश्री हो जाती है. क्यूँ नहीं हम वोट डालने पोलिंग बूथ तक जाते और क्यूँ नहीं हम अपने बच्चो और आने वाली संतानों को ये समझाते की अगर अच्छी ज़िन्दगी चाहिए तो अच्छी सरकार के लिए वोट करो. अगर सभी नेता बुरे हैं तो भाई बुरे में कम बुरे को चुनो. अगर एक बार वोटर ये सोच लेगा की हमे 'कम बुरा' नेता चाहिए तो धीरे-धीरे शायद ये देश अच्छे नेताओं का दीदार कर पायेगा. 'वोट डालना' भले ही सब समस्याओ का निदान नहीं है मगर एक शुरुआत तो है. फ़िल्मी सितारों की बातों को सपने में देखने वाले वोटरों के लिए इन्ही सितारों का एक सन्देश मेरे ब्लॉग पर है पढियेगा और इसी में से कुछ नया गढीयेगा. http://vicharokatrafficjam.blogspot.com/2009/04/blog-post_21.html

अनिल कान्त said...

ultimate ..superb post