Monday, September 28, 2009

रावण से नाभिनालबद्ध रावण

रावण ‘दुष्ट-दुराचारी-अधर्मी’ था, ऐसा वाल्मीकि ने बताया और ‘अहंकारी’ था ऐसा बताया तुलसी बाबा ने। हर अहंकारी दुष्ट-दुराचारी-अधर्मी नहीं होता और हर दुष्ट-दुराचारी-अधर्मी अहंकारी हो यह आवश्यक नहीं। राम के चरित्र को खूब उजला बनाने के लिए तुलसी बाबा ने रावण को इतना बुरा नहीं बनाया, जितना बाकी ग्रंथ बताते हैं। उससे राम का कद कम होता। तुलसी ने रावण का क़द बढ़ाया। उसे विद्वान और धर्म पर चलने वाला बताया। रावण जैसा भी था पर उसका क़द आज भी बढ़ रहा है। रामलीलाओं में तो पुतलों की ऊंचाई बढ़ रही है, पर पुतलियों को न दिखाई देने वाले अदृश्य रावणों का क़द गगनचुम्बी होता जा रहा है। रावण यदि दिखाई भी देता है तो मायावी टैकनीक से राम का भेष धार लेता है।

कूर्मपुराण, रामायण, महाभारत, आनन्द रामायण, दशावतारचरित, पद्म पुराण और श्रीमद्भागवत पुराण आदि ग्रंथों में रावण का उल्लेख तरह-तरह से मिलता है। एक बात सभी में स्वीकारी गई है कि रावण अपनी दानवी शक्तियों को बनाए रखने के लिए तपस्यानुमा चापलूसी द्वारा महान देवताओं को खुश करना जानता था। ब्रह्मा जी से उसने वरदान मांगा कि गरुड़, नाग, यक्ष, दैत्य, दानव, राक्षस तथा देवताओं के लिए अवध्य हो जाऊं। ब्रह्मा जी ने तपस्या से प्रसन्न होकर ‘तथास्तु’ की मोहर लगा दी। फिर तो रावण की बन आई। उसने कुबेर को हराकर पुष्पक विमान छीन लिया जो मन की रफ्तार से भी तेज़ चलता था। जिसकी सीढ़ियां स्वर्ण और मणि-रत्नों से बनी हुई थीं। एक ग्रंथ बताता है कि उसका पुष्पक विमान एक बार भगवान शंकर के क्रीड़ा-स्थल पर्वत शिखर के ऊपर से जा रहा था। अचानक विमान की गति अवरुद्ध हुई, डगमगाने लगा। अहंकारी रावण हैरान रह गया। उसे विमान उतारना पड़ा। शंकर के पार्षदों ने भगवान शंकर की महिमा बताई तो क्रोधित होते हुए बोला कि कौन है ये शंकर? मैं इस पर्वत को ही समूल उखाड़ फेंकूंगा। शंकर के नंदी उसे रोकते, उससे पहले ही रावण ने पर्वत को उखाड़ना शुरू कर दिया। पर्वत हिला तो शंकर ज़्यादा हिल गए। आवेश में आकर उन्होंने अपने पैर का अगूंठा पर्वत पर रखा तो रावण के हाथ बुरी तरह दब गए। पीड़ा से रावण चिल्लाने लगा। भयानक ‘राव’ यानी आर्तनाद किया। तीनों लोकों के प्राणी भयभीत होकर रोने लगे। तभी से उसका नाम रावण भी पड़ गया। मज़े की बात यह है कि उसने शंकर भगवान को भी अपनी तपस्या से प्रसन्न कर लिया और जारी रखा अपने अत्याचारों और अनाचारों का सिलसिला।

रावण के बारे में यह कहानियां सब जानते हैं। इन दिनों देश भर में जितनी रामलीलाएं चल रही हैं, लोगों का मनोरंजन कर रही हैं। मनोरंजन राम नहीं कर पाते, रावण कर रहा है। उसके डायलॉग पर ज़्यादा तालियां पिटती हैं। उसके मेकअप और कॉस्ट्यूम पर ज़्यादा पैसे खर्च होते हैं। रावण राम से ज़्यादा पारिश्रमिक लेता है। अंत सबको मालूम है कि पुतला फुकेगा। सवाल यह उठता है कि एक अधर्मी-अहंकारी के मरने में इतनी देर क्यों लगती है। मिथक प्रतीकों को देखें तो निष्कर्ष निकलता है कि अधर्म के पास धार्मिक मुखौटे होते हैं और अपने अहंकार को ऊँचाई देने के लिए अपने से किसी न किसी बड़े का अहंकार पोषित करना पड़ता है। रावण ने ब्रह्मा जी के अहंकार का पोषण किया और वरदान पाया। भगवान शंकर के अहंकार का पोषण करके उसे वरद हस्त मिला। उसने अपने स्वेच्छाचार जारी रखे।

तीसरा नेत्र रखने वाले शंकर को क्या पता नहीं था कि मुझसे वरदान लेकर यह दुष्ट निरीहों और सज्जनों को सताएगा। ब्रह्मा जी की क्या मति मारी गई थी जो रावण को वरदान दिया। कहानी से नतीजा यही निकलता है कि अच्छे लोगों के अहंकार का पोषण करके बुरे लोग अपने अहंकार का क़द बढ़ाते हैं और सत्कर्मियों और निरीहों को सताते हैं।
हाईकमान को प्रसन्न करके रावण अपना कद बढ़ाता जाता है। इतना बढ़ा लेता है कि एक वक्त पर हाईकमान को भी भारी पड़ने लगता है। वह क्लोन-कला में भी निष्णात है। अपने दस क्लोन तो वह त्रेता युग में ही बना चुका था। आज उसके हज़ारों क्लोन समाज में फैले हुए हैं। वोट की ताकत रखने वाली जनता उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाती।

मुक्तिबोध ने एक कविता लिखी थी— ‘लकड़ी का बना रावण’। जब तक जनता सोई रहती है, तब तक सत्ता का लकड़ी का बना रावण स्वयं को नीचे के समाज से अलगाता हुआ, जनता को जड़-निष्प्राण कुहरा-कम्बल समझता हुआ, उस कुहरे से बहुत ऊपर उठ, शोषण की पर्वतीय ऊर्ध्वमुखी नोक पर स्वयं को मुक्त और समुत्तुंग समझता है और सोचता है कि मैं ही वह विराट पुरुष हूं— सर्व-तंत्र, स्वतंत्र, सत्-चित्। वहां उसके साथ शासन-प्रशासन का शून्य भी है, जो उस छद्म सत्-चित् के अहंकार का पोषण करता है। मुक्तिबोध ने एक जगह लिखा है— "बड़े-बड़े आदर्शवादी आज रावण के यहां पानी भरते हैं, और हां में हां मिलाते हैं। जो व्यक्ति रावण के यहां पानी भरने से इंकार करता है, उनके बच्चे मारे-मारे फिरते हैं।"
उनकी कविता में जैसे ही अकस्मात कम्बल की कुहरीली लहरें हिलने-मुड़ने लगती हैं, सत्ता का लकड़ी का बना रावण और उसके शून्य का 'सर्व-तंत्र' सतर्क हो जाते हैं।



पहले तो जनता का यह विद्रोह, उसे 'मज़ाक' दिखाई देता है लेकिन जनतंत्री नर-वानरों को देखकर भयभीत भी होता है। वह आसमानी शमशीरों, बिजलियों से भरपूर शक्ति से प्रहार करवाता है, किंतु जनता ऊपर की ओर बढ़ती ही जाती है। लक्ष-मुख, लक्ष-वक्ष, शत-लक्ष-बाहु रूप था पर अकेला होते ही रावण शक्तिहीन हो जाता है। आदेश व्यर्थ जाते हैं, और अब गिरा, तब गिरा....। मुक्तिबोध की फैंटैसी आज साकार होती नहीं दिख रही। आज रावण घबराता नहीं है, चाटुकारिता के लिए अपने से बड़ा रावण ढूंढ लेता है और निरीह के ऊपर सताने का तम्बू ताने रहता है। राम को मालूम है कि नाभि में तीर मारा जाए तो रावण मर जाएगा लेकिन आज के रावण से ‘नाभिनालबद्ध’ कितने ही रावण हैं। राम के तरकश में सबके लिए तीर नहीं हैं।

8 comments:

अभिनव said...

बड़ा सटीक लेख. निदा फाज़ली साहब का दोहा याद आ गया,

सीता रावण राम का करें विभाजन लोग,
एक ही तन में देखिये तीनों का संजोग.

आपको विजयदशमी कि अनेक शुभकामनाएं.

निर्मला कपिला said...

बिलकुल सही और सटीक आलेख है बहुत बहुत धन्यवाद और शुभकामनायें

डॉ टी एस दराल said...

आज के रावणों पर करारा प्रहार.

लेकिन कहाँ तक इन रावणों को मारेंगे.

पहले कण कण में थे राम,
अब जन जन में हैं रावण.

विजयप्रकाश said...

आपने अधुनिक और पुरातन रावण का अंतर बखूबी बताया.पर राम जी कब प्रकट हो रहे हैं?

बेरोजगार said...

चक्रधर का शब्द'चक्र' चल ही गया.

Sumit Pratap Singh said...

गुरु जी
सादर ब्लॉगस्ते
आपका यह लेख आपके पिछले सभी
लेखों का बाप है. शिष्य की ओर से
अत्यधिक शुभकामनायें...

Sumit Pratap Singh said...

आदरणीय गुरु देव,

सादर ब्लॉगस्ते,

कृपया मेरे ब्लॉग पर
पधारें. "एक पत्र मुक्केबाज विजेंद्र
के नाम" आपके अमूल्य सुझाव की
प्रतीक्षा में है.

मनोज भारती said...

चक्रधर जी !

सादर प्रणाम

आज के रावण से ‘नाभिनालबद्ध’ कितने ही रावण हैं। राम के तरकश में सबके लिए तीर नहीं हैं।

आज के रावणों के सम्मुख राम हार रहें हैं । बहुत सटीक लिखा है ।

मनोज भारती

http://gunjanugunj.blogspot.com