Saturday, June 02, 2007

बोल मेरी मछली कितनी हिन्दी

आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन का व्यग्रता से इंतेज़ार है। कुंडली देख कर फलित की चिंता है। कुंडली कह रही है कि इस बार हिन्दी संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा बनेगी। न बन पाई तो कह देंगे कि कुछ ग्रह वक्र दृष्टि से देख रहे थे, सो न बन पाई। ज्योतिष में यह बड़ी सुविधा है। दरअसल, लक्ष्य-प्राप्ति के लिए सुविधाएं हम जुटा नहीं पाते और दूसरों पर दोष मढ़ देते हैं। देखना यह है कि वे कुग्रह कौन से हैं जो वक्र दृष्टि डाल रहे हैं। वस्तुत: अंदर झांकना होगा। गड़बड़ हिन्दी के बहिर्लोक में नहीं उसके अंतर्लोक में है।

चीनी आबादी जब सत्तर करोड़ थी, तो सारी आबादी ने जनगणना के दौरान अपनी भाषा को मंदारिन बताया। और चीनी संसार में सर्वाधिक लोगों द्वारा बोले जाने वाली भाषा के रूप में स्वीकृत हो गई। संयुक्त राष्ट्र संध ने तत्काल मान्यता दे दी। जबकि सच्चाई ये है कि चीन में उस समय 30-40 भाषाएं बोली जा रही थीं। चित्रलिपि होने के कारण एक जैसी लगती ज़रूर थीं पर एक जैसी थीं नहीं। ऐसा ही हमारे यहां है, उर्दू को छोड़कर हमारी लगभग सभी भाषाओं की आधारलिपि देवनागरी है, पर हम स्वयं को एक भाषाभाषी नहीं मानते। जनगणना में प्रांतीयता के आधार पर किसी ने अपनी भाषा राजस्थानी लिखवाई, किसी ने भोजपुरी या मैथिली। इसी अंतर्लोक को दुरुस्त करना है।

हिन्दी की दुर्दशा पर रोने से कोई लाभ नहीं होने वाला। दुर्दशा तो है, लेकिन जहां हिन्दी में रौनक है, ताल है, तेवर है, सौन्दर्य है, मुस्कान है, उन इलाक़ों में भी जाना चाहिए। ज़ाहिर है, हिन्दी रोज़गार के क्षेत्र में पैर नहीं पसार पाई है, ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्रों में भी नहीं। तो फिर कहां है? बाकी सारे हिस्सों में हिन्दी है। घर में है, दफ्तर की कचर-कचर में है, प्रेमियों के अधर-अधर में है, दुश्मनों की गालियों के स्वर में है, गांव कस्बे और शहर की डगर-डगर में है, बॉलीवुड की जगर-मगर में है, फिर भी अगर-मगर में है।

मैं न तो हिन्दी की दुर्दशा पर रोना चाहता हूं, न ही उसकी महनीय स्थिति पर हर्षित होना चाहता हूं, पर हिन्दी के भविष्य और भविष्य की हिन्दी के प्रति पर्याप्त आशावान हूं। आशावादी व्यक्ति आकड़ों को अपनी निगाह से देखता है और अपने अनुकूल निष्कर्ष निकालता है। इस बात को स्वीकार करते हुए मैं ये मानता हूं कि इस समय हिन्दी विश्व में सबसे ज़्यादा बोले और सुने जाने वाली भाषा है। पुन: कहूं, हिन्दी को सुनने वाले और हिन्दी को बोलने वाले संसार में सबसे ज़्यादा हैं। हां, लिखने और पढ़ने का आंकड़ा इकट्ठा करेंगे तो संख्या काफी पिछड़ जाएगी, लेकिन हिन्दी कान और मुख के ज़रिए संप्रेषण का सुख दे रही है।


किसी भी भाषा का विस्तार और लोकाचार बाजार से होता है। बाजार, जहां हमें जरूरी चीजें खरीदनी हैं या बेचनी हैं। बेचने वालों को खरीदने वालों की जुबान आनी चाहिए, खरीदने वालों को वह जबान आनी चाहिए जो बेचने वाले बोलते हैं। नहीं आती है तो दोनों प्रयत्न-पूर्वक सीखते हैं। यह प्रक्रिया बिना किसी भाषा-प्रेम के उपयोगितावादी दृष्टि से सम्पन्न होती है। अब जब कि भारत में तरह-तरह के बाजार पनप रहे हैं और हम देख रहे हैं कि विज्ञापन से लेकर ज्ञापन तक हिंदी व्यवहार में लाई जा रही है। ऐसी स्थिति में उसके प्रयोक्ताओं की संख्या का बढ़ना स्वाभाविक है। उन हठधर्मियों का क्या किया जाए जो यह मानने को तैयार ही नहीं हैं कि हिंदी एक ताकत है।

सबसे ज्यादा कौन-सी भाषा बोली जाती है इस बात को लेकर हम कुछ मित्रों में बहस छिड़ी। परम हिंदीवादी एक मित्र बोले—‘अभी हिंदी संसार में चौथे स्थान पर है’। मैंने पूछा-- ‘पहले दूसरे और तीसरे स्थानों पर कौन-सी हैं?’ हर किसी के समान उन्होंने पहले स्थान पर मैंडरिन यानी चीनी भाषा का नाम लिया, उसके बाद अंग्रेजी का फिर स्पेनिश का, चौथे नंबर पर हिंदी।

सवाल ये है कि अपने देश में हिंदी को कैसे परिभाषित किया जाए। क्या ब्रजभाषा, बुंदेली, मगही बोलने वाला, भोजपुरी मैथिली पंजाबी गुजराती बोलने वाला हिंदीभाषी नहीं है? क्या उर्दू को हिंदी से अलग रखा जाएगा, जबकि व्याकरणिक संरचना एक जैसी है, वाक्य-विन्यास एक जैसा है। परस्पर सुनने-समझने में किसी को कोई परेशानी आती नहीं। उर्दू शब्दों के प्रति इन दिनों हिंदी काफी उदार हो रही है। आजकल जो पुस्तकें छप रही हैं उनमें नुक्तों तक का प्रयोग चलन में आ गया है। वे लोग जो उर्दू को हिंदी से अलग करके हिंदी भाषियों की संख्या निकालते हैं, उनकी दृष्टि को संकीर्ण माना जा सकता है।

आंकड़ों की टोह में मैंने अपने भाषाशास्त्री मित्र विजय कुमार मल्होत्रा की मदद ली। उन्होंने 1995 में ‘गगनांचल’ के ‘विश्व हिन्दी अंक’ में प्रकाशित हुए लक्ष्मी नारायण दुबे के लेख का हवाला देते हुए बताया कि विश्व में चीनी बोलने वाले 90 करोड़, अंग्रेज़ी बोलने वाले 80 करोड़ और हिन्दी बोलने वाले 70 करोड़ हैं। लेख में यह भी बताया गया है कि विश्व के उनत्तीस देशों में हिन्दी तिरानवे विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती है।

थोड़ी देर बाद उनका दूसरा ई-मेल आया। उसमें उन्होंने मेरिट रलेन की पुस्तक ‘अ गाइड टु द वर्ल्ड लैंग्वेजैज़’ (स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1987) का संदर्भ देते हुए बताया कि अकेले चीन में एक बिलियन लोग मैंडरिन बोलते हैं, लगभग एक बिलियन ही अंग्रेज़ी, तीसरे स्थान पर हिन्दी-उर्दू के बोलने वाले-- चार सौ मिलियन। स्पेनिश और रूसी के तीन-तीन सौ मिलियन।

पुन: कहूं, चीन की पूरी आबादी मैंडरिन बोलती है, यह एक भ्रामक धारणा है। यह भ्रामक धारणा शायद चीन की दीवार के कारण बनी, जिसके आर-पार सही तथ्य न तो आ पाते हैं, न जा पाते हैं। भारत के समान चीन में भी विभिन्न प्रकार की बोलियां और भाषाएं बोली जाती हैं। उनमें से कुछ हैं— शंघाई, कैंटन, फुकीन, हकका, तिब्बती और तुर्की आदि, चीन के इन अन्य भाषा-भाषियों को निकाल दें तो मैंडरिन के बोलने वाले अस्सी प्रतिशत ही रह जाएंगे। पर हमें क्या! क्यों पचड़े में पड़ें?

तीसरे नम्बर पर हिन्दी को स्वीकार करने में हम हिन्दी वालों को कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि हम सदैव तीसरे दर्जे से यात्रा करते रहे हैं, तीसरी श्रेणी के कर्मचारी बनकर जिए हैं और तीसरी दुनिया के लोग कहाते हैं। वह गर्व अभी तक पैदा ही नहीं हुआ जो यह महसूस करा दे कि नहीं, तुम तीसरे स्थान पर नहीं हो, पूरे विश्व में पहले नम्बर पर भी हो सकते हो। गिनतियों को ज़रा फिर से इकट्ठा करो।

एक हैं डॉ. जयंती प्रसाद नौटियाल। वे पिछले कई साल से यह सिद्ध करने के लिए भिड़े हुए हैं कि पूरे विश्व में हिन्दी का स्थान सबसे उपर है। उन्होंने एक सर्वेक्षण 1981 की विश्व जनगणना के आधार पर किया और बताना चाहा कि हिन्दी जानने वालों की संख्या विश्व में सर्वाधिक है। किसी ने उनकी नहीं सुनी। प्रतिक्रिया में मौन साध लिया गया। कुछ ने सोचा होगा कि पाकिस्तानी लोगों को भला हिन्दी जानने वालों में कैसे शरीक़ किया जा सकता है।

हिन्दी को लेकर डाक्टर नौटियाल का दृष्टिकोण व्यापक था, वह उर्दू को भी हिन्दी में शामिल करके देखते थे और इतना ही नहीं वे विभिन्न प्रदेशों की बोलियों को भी हिन्दी में सम्मिलित मानते थे, जैसे-- ब्रज, अवधी, राजस्थानी वगैरह। विदेशों में बोले जाने वाली हिन्दी यद्यपि विभिन्न रूप रखती है, जैसे मॉरिशस, सूरीनाम, फिज़ी में, वह विशुद्ध खड़ी बोली जैसी नहीं भी है, लेकिन हिन्दी का ही एक रूप है। नौटियाल साहब ने उसे भी हिन्दी में सम्मिलित किया। उन्होंने कोशिश की अपने शोध और अध्ययन के परिणामों को वर्ल्ड ऑरगनाइज़ेशन्स को भेजें, मनोरमा ईयर बुक को दें और भारत सरकार के प्रकाशन विभाग को बाध्य करें कि इस तथ्य को स्वीकार किया जाए, लेकिन उनके प्रयास नक्कारखाने में तूती बन के रह गए।

हार नहीं मानी नौटियाल साहब ने, वे 1999 की विश्व जनसंख्या के आधार पर फिर से आंकड़े एकत्र करने में जुट गए और सिद्ध कर दिखाया कि हिन्दी का सम्पूर्ण विश्व में पहला स्थान है। उनको मिली जानकारी के अनुसार हिन्दी जानने वालों की संख्या 1103 मिलियन है और चीनी भाषा जानने वालों की सिर्फ 1060 मिलियन।

कौन नम्बर एक है, कौन नम्बर दो, कौन नम्बर तीन और कौन नम्बर चार, इस पर विचार अभी तक डावांडोल है। असली आंकड़े राजनीतिक दुरभिसंधियों और संकीर्ण मानसिकताओं के कारण मिलने मुश्किल हैं। बहुत से लोग ऐसे हो सकते हैं जो हिन्दी बोलते हुए कहेंगे कि हमें हिन्दी नहीं आती। उन्हें कुल संख्या में कैसे शामिल करेंगे?

एक अरब से ज्यादा की आबादी वाले इस देश में आंकड़े इकट्ठा करने में दृष्टिकोण आड़े आते हैं। हिंदी के प्रति कड़े होकर आंकड़े इकट्ठा करेंगे तो चालीस प्रतिशत आबादी से ज्यादा को आप हिंदी भाषी नहीं बताएंगे, लेकिन अगर जनसंचार माध्यमों के विस्तार के बाद हिंदी की स्थिति का आकलन अनुमान से भी करेंगे तो मानेंगे कि अस्सी प्रतिशत तक भारतीय जनता हिंदी जानती हैं। यानी केवल भारत में अस्सी करोड़ लोग हिन्दी जानते हैं। और पाकिस्तान को भी शामिल किया जाए तो ग्राफ जिराफ की गरदन सा हो जाएगा। तब यह मानना होगा कि पूरे विश्व में लगभग एक अरब लोग हिंदी बोलते हैं। अगर हिंदी नाम से चिढ़ होती हो तो उसे हिंदुस्तानी कहिए या भाउसंभा। ‘भाउसंभा’ बोले तो भारतीय उपमहाद्वीप संपर्क भाषा।

एक आशावादी व्यक्ति होने के नाते मैं देखता हूं कि पूरे संसार में हिंदी एकमात्र ऐसी भाषा है जिसका फैलाव और विस्तार हो रहा है। अंग्रेजी भी लगातार फल-फूल रही है। सचाई तो ये है कि जिस चीज पर आज हम गर्व कर सकने की स्थिति में है कि हिंदी सर्वाधिक लोगों द्वारा बोली और सुनी जाती है, यह गर्व शायद आगे आने वाले कुछ वर्षो के बाद हम न कर पाएं, क्योंकि अंग्रेजी उससे ज्यादा मात्रा में फैल रही है। वे देश जो अपने निज भाषा प्रेम के कारण अंग्रेजी से नफरत करते थे अब बाजार-व्यवहार के कारण अंग्रेजी के प्रति उदार होते जा रहे हैं। चीन, जहां अंग्रेजी घुस नहीं पाई, जापान, जहां अंग्रेजी को प्रवेश लेने में मशक्कत करनी पड़ी, वहां अब उसके लिए घर-द्वार खुले हुए हैं, जबकि ऐसी स्थिति हिंदी के लिए नहीं है। पिछले वर् जापान गया था। पचास वर्ष से जापान में हिंदी शिक्षण चल रहा है लेकिन जापानियों की कोई उल्लेखनीय संख्या नहीं बताई जा सकती जो हिंदी सीखते हैं। अंग्रेज़ी का दब-दबा कुछ इस तरह लगातार बढ़ा है कि हिन्दी दबी-दबी सी दिख रही है। सांस्थानिक दृष्टि से देखें तो हिन्दी कमज़ोर है, स्थानिक दृष्टि से देखें तो पुरज़ोर है।

भाषा के स्वत:विकास के साथ अगर प्रयास भी जुड़ जाएं तो सितंबर महीने में हिंदी पर प्रमुदित हुआ जा सकता है। मेरे आशावाद को कंप्यूटर से बहुत भरोसा मिलता है। यूनिकोड पर्यावरण में हिंदी के आ जाने के बाद और आईएमई के प्रयोगों के चलन के बाद हिंदी का लिखना बहुत तेज गति से बढ़ सकता है। हम यदि आईएमई का जोरदार प्रचार करें और उसकी सहजता से लोगों को परिचित कराएं तो एक क्रांतिकारी और गुणात्मक परिवर्तन हिंदी के प्रयोग में आ सकता है।

कविमन की अनुमान छूट लेते हुए एक तथ्य बताता हूं तो लोग मुस्करा देते हैं, लेकिन तथ्य तो तथ्य है, सुन लीजिए-- चीन ने आबादी पर नियंत्रण किया, हम नहीं कर पाए। हम इस क्षेत्र में पर्याप्त उर्वर हैं। यह एक तथ्य हिंदी के पक्ष में जाने वाला तथ्य है। इस एक तर्क से ही सभी को ध्वस्त किया जा सकता है। मत इकट्ठा करिए आंकड़े, सिर्फ यह देखिए कि आज भारत की पैंतालीस प्रतिशत आबादी शिशुओं और किशोरों की है, उनका शोर किस भाषा में होता है। वे सब के सब चाहे दक्षिण में हैं, चाहे उत्तर में, जनसंचार माध्यमों की सुविधा के बाद हिंदी बोल रहे हैं। समझ रहे हैं और उससे प्यार कर रहे हैं, क्योंकि वह उनके थिरकने, ठुमकने, उमगने और विकसने की भाषा बन गई है। जी हां, हिन्दी बोलने वाले संसार में सबसे ज़्यादा हैं। हर मिनट हिन्दी बोलने वाले पचास लोग बढ़ रहे हैं। अब बोलिए! बोल मेरी मछली कितनी हिन्दी!

-अशोक चक्रधर

25 comments:

मैथिली गुप्त said...

स्वागत है आपका चक्रधर जी

Jitendra Chaudhary said...

अशोक जी,
आपका हिन्दी ब्लॉगिंग मे हार्दिक स्वागत है। आप जैसे लोगों के चिट्ठाकारी मे जुड़ने से इसमे चार चाँद लग जाएंगे।

रही बात सरकार की और शिक्षाविदों की, सभी आँकड़े के खेल मे उलझ कर रह गए है। सरकार एक दिन हिन्दी दिवस मनाती है और सोचती है, हिन्दी का कल्याण हो गया या फिर इतनी क्लिष्ट हिन्दी लिखते है, कि सिर्फ़ लिखने वाला ही मतलब निकाल सके। ये तो भला हो बॉलीवुड का जिसने हिन्दी/उर्दू/अंग्रेजी/पंजाबी को मिलाकर हिन्दी का एक नया रुप निकाला, जिसके कारण लोगों में हिन्दी के प्रति रुचि बनी। भले ही लोग माने अथवा ना माने, हिन्दी के प्रचार प्रसार का झंडा बॉलीवुड के ही हाथ मे है। रही बात वैब की, अभी हिन्दी काफी पीछे है, लेकिन वो दिन दूर नही, जब हिन्दी नैट पर राज करेगी, बस जरुरत है, दृढ निश्चय और आत्मविश्वास की।

संजय बेंगाणी said...

स्वागतम स्वागतम.

आज हिन्दी चिट्ठाजगत चक्रधारी हो गया. आपको चिट्ठाकारों के बीच देख कर हर्ष हो रहा है.

हिन्दी की बाग-डोर बोलिवुड के हाथ में है, मगर पहिये बाजार लगा रहा है. सौनहरे भविष्य के सपने देखें. हिन्दी छा जाने वाली है.

संजय बेंगाणी said...

सुनहरे भविष्य के सपने देखें. हिन्दी छा जाने वाली है.

परमजीत सिहँ बाली said...

अच्छा लिखा है।आप का स्वागत है।आशा है अब पढने को मिलता रहेगा।

Rajesh Roshan said...

सुस्वगातम । हिंदी ब्लोग्गिंग में आपका स्वागत है । संसार पल पल बदल रहा है भारत नही बदलेगा, एक बार नेता बदल जाये

राजेश रोशन

अनुनाद सिंह said...

आशोक जी,

हिन्दी चिट्ठाजगत में आपकी कमी बहुत खल रही थी। आपके आने से हिन्दी चिट्ठाजगत गौरवान्वित हुआ है, उसका अत्मबल कई गुना बढ़ गया है। आते ही आपने हिन्दी के सबसे महत्व के विषय को अपनी वाणी दी; बहुत अच्छा लगा।

अभिनन्दन, स्वागतम्!!

Unknown said...

Ashok ji,aapka blog padh kar behad khushi hui.Please aage bhi likhte rahiyega.Main hamesha se aapki fan hoon.Aapki "Bhole Bhale" bahut baar padhi hai.Thnak you!

Udan Tashtari said...

वाह वाह, अशोक जी, हार्दिक स्वागत आपका हिन्दी चिट्ठाजगत में.

हम तो आपको आज तक खोज खोज कर पढ़ा और सुना करते थे. देखिये, भक्ति का प्रभाव-प्रभु दर्शन देने द्वार पर पधार गये. :)

अब जरा मजा आयेगा. अनेकों शुभकामनायें. विश्व हिन्दी सम्मेलन में तो संभवतः आपके साक्षात दर्शन का लाभ मिल ही जायेगा.

राजीव रंजन प्रसाद said...

बहुत स्वागत है अशोक चक्रधर जी हिन्दी ब्लॉग जगत में। आपकी पोस्टिंग्स का इंतज़ार रहा करेगा। "बोल मेरी मछली कितनी हिन्दी..." काश मछ्लियाँ ही उत्तर दे पातीं।

*** राजीव रंजन प्रसाद

ghughutibasuti said...

अशोक चक्रधर जी, आपका स्वागत है । जबसे चिट्ठा जगत में आई हूँ मैं भी हिन्दी के भविष्य के प्रति आश्वस्त हूँ ।
घुघूती बासूती

शैलेश भारतवासी said...

मुझे लगता है कि हम ब्लॉगरों की मेहनत सफल हो रही है क्योंकि आपके जैसे बड़े नाम वाले लोग भी चिट्ठाकारी की तरफ रूख़ कर रहे हैं। और अब तो इसकी भी गारन्टी ली जा सकती है कि आप यहाँ आकर जा नहीं पायेंगे।

Sagar Chand Nahar said...

मैं भी आपका चिट्ठाजगत में स्वागत करता हूँ। मैं आपकी कविताओं और अभिनय का बचपन से प्रशंषक हूँ।
मैं उम्मीद करता हूँ कि आप जैसे वरिष्ठ कवि और साहित्यकार जब हिन्दी में चिट्ठाकारी करेंगे तो वह दिन दूर नहीं होगा जब हिन्दी पहले नंबर पर होगी।

क्या मैं कुछ ज्यादा दूर की तो नहीं सोच रहा।
sagarchand.nahar@gmail.com

Jagdish Bhatia said...

हिदी चिट्ठाजगत में आपका बहुत बहुत स्वागत है अशोक जी।
अब तो खूब चक्कलस होगा यहां।

अभिनव said...

प्रणाम आशोक जी, चिट्ठा जगत में आपका स्वागत है, आपके यहाँ आने से सबको प्रोत्साहन मिलेगा तथा एक दिशा भी प्राप्त होगी। आपका लेख बहुत अच्छा लगा, निम्न पंक्तियाँ विषेश रूप से पसंद आईं।

- बाकी सारे हिस्सों में हिन्दी है। घर में है, दफ्तर की कचर-कचर में है, प्रेमियों के अधर-अधर में है, दुश्मनों की गालियों के स्वर में है, गांव कस्बे और शहर की डगर-डगर में है, बॉलीवुड की जगर-मगर में है, फिर भी अगर-मगर में है।

- वे लोग जो उर्दू को हिंदी से अलग करके हिंदी भाषियों की संख्या निकालते हैं, उनकी दृष्टि को संकीर्ण माना जा सकता है।

हमारी भी आकांक्षा है कि इस बार ही हिन्दी को संयुक्त राष्ट्रसंघ की एक भाषा के रूप में शामिल कर लिया जाए, ऐसा शायद भाषा के प्रति अनुराग के कारण है। परंतु इससे भाषा को क्या लाभ होगा, राष्ट्र संघ जो कि एक संस्था के रूप में बहुत आकर्षित नहीं कर पाया है, कुछ शक्तियों के द्वारा ही संचालित रहा है क्या हिंदी के शामिल होने से इसमें कुछ फर्क आएगा। यह प्रश्न मन में हैं तथा अभी अनुत्तरित हैं। यदि आप या इस टिप्पणी को पढ़ने वाले अन्य सुधीजन इस विषय पर भी कुछ प्रकाश डालें तो आभारी रहूँगा।

ALOK PURANIK said...

गुरुवर आप लिये, मजा आ गया। अब जमेगी ब्लाग चकल्लस। हिंदी में दरअसल मछलियां हैं नहीं, वो मगरमच्छ हैं। जो हिंदी को अपना महंतई का अखाड़ा बना चाहते हैं। अब आप आ गये हैं, तो माहौल स्वच्छ होगा। अपन तो आपके साथ हमेशा हैं। वर्चुलअ मुलाकात तो रोज अब यहां होगी। जल्दी ही फिजिकल जफड़ी भी जमाते हैं।
सादर
आलोक पुराणिक

VIMAL VERMA said...

अशोक जी,
चकल्लस के लिये हमारी भी शुभकामनाएं स्वीकार करें....

डा.अरविन्द चतुर्वेदी Dr.Arvind Chaturvedi said...

च से चकल्लस, च से चक्रधर, च से चिट्ठा,

चकल्लस चलेगी तो चर्चा चलेगी.
ज़हां तक हिन्दी का सम्बन्ध है, गुरुवर, हिन्दी आंकडों की मोह्ताज़ नहीं है.जिस रफ्तार से ऐशिया के देशों मेँ लोग हिन्दी बोल व सुन कर समझ रहे हैँ,बहुत जल्द नम्बर तीन से उठकर एक पर पहुंच ही जायेगी .

खैर, स्वागत है चिट्ठाकारों की जमात मेँ.
अरविन्द चतुर्वेदी
http://bhaarateeyam.blogspot.com

ePandit said...

नमस्कार चक्रधर जी, स्वागत है आपका हिन्दी चिट्ठाकारी में। आपके आने से यह बगिया और भी सुंदर होगी।

आपको पहले कहीं पढ़ चुका हूँ, शायद 'अभिव्यक्ति' पर। क्षमा चाहता हूँ कि आपके बारे में नहीं जानता क्योंकि साहित्य संबंधी जानकारी नहीं रखता।


हिन्दी संबंधी बहुत अच्छी विवेचना की आपने।

मेरे आशावाद को कंप्यूटर से बहुत भरोसा मिलता है। यूनिकोड पर्यावरण में हिंदी के आ जाने के बाद और आईएमई के प्रयोगों के चलन के बाद हिंदी का लिखना बहुत तेज गति से बढ़ सकता है। हम यदि आईएमई का जोरदार प्रचार करें और उसकी सहजता से लोगों को परिचित कराएं तो एक क्रांतिकारी और गुणात्मक परिवर्तन हिंदी के प्रयोग में आ सकता है।

मेरा भी यही मानना है कि हिन्दी संबंधी रोना रोने से हिन्दी का भला नहीं होगा। इसके लिए व्याहारिक काम करना होगा। हम जो कर सकते हैं वो कर रहे है - नैट पर हिन्दी का प्रचार और उसके लिए ब्लॉगिंग सबसे सुगम विधा है।

sanjay patel said...

अशोक भाई;
जब तक हमारे लिये हिन्दी मात्र - भाषा रहेगी ; कुछ होने वाला नहीं है...हम सबको मिल कर इसे वाक़ई मातृ-भाषा बनाना होगा. इस हीन भाव को ख़त्म करना होगा कि हम अपनी बात हिन्दी में ही कह पाते हैं..नई ख़बर ये है कि इश्तेहारों का कारोबार भी अब अंग्रेज़ी का मोहताज नहीं रहा ; पूरे भारत में अपनी बात कहने के लिये अब हिन्दी का आसरा लिया जाने लगा है.जितना बड़ा ख़तरा बताया जा रहा है हिन्दी के लिये, दर-असल ऐसा कुछ है नहीं.आप तो देश भर के काव्य मंचों के शिरोमणी हैं ..बताइये किस दीगर भाषा में कवि - सम्मेलनों की ऐसी धाक है जैसी हिन्दी की ?..है किसी और भाषा में कविता सुनने के ऐसे सिलसिले और रतजगे ? हिन्दी के अख़बारों का जैसा जलवा है...है वैसा और भाषाई अख़बारों का ?....मेरा विश्वास है कि आप जैसे हिन्दी सेवी जब तक हैं ...हिन्दी पर कोई आंच नही है.और सनद रहे...इंटरनेट पर भी अब अंग्रेज़ी का एकाधिकार ख़त्म होने जा रहा है.हिन्दी की ताक़त को कमतर आंकना अब ठीक नहीं ..हां एक बात ज़रूर कहना चाहुंगा कि हिन्दी का जितना नुकसान सरकारी राजभाषा समितियों ने किया है उतना और किसी ने नहीं..यात्राओं के मज़े और नक़द भत्ते इन समितियों के खा़स शग़ल रहे हैं ..ज़मीनी स्तर पर कोई ठोस काम नहीं हुआ है . बस इसी वजह से हिन्दी आंसू बहाती नज़र आती है.एक बात और कहकर अपना चिट्ठा ख़त्म करता हूं..अशोकभाई. उर्दू और मराठी को देखिये वहां के लेखकों और साहित्यकारो,कवियों को देखिये ; उन्हे मंच और साहित्य में समान सम्मान दिया जाता है.जावेद अख़्तर,मजरूह,साहिर फ़िल्मों में भी सराहे जाते हैं ..और उर्दू साहित्य में भी उनकी मुक़म्मिल पहचान है...ग.दि.माडगुलकर,कुसुमाग्रज,शांता बाई ्शेळके मराठी साहित्य के बडे़ नाम भी हैं और वे मंच पर कविता पाठ भी करते थे...पु.ल.देशपांडे साहित्यकार भी थे..वे फ़िल्मों में भी अपना योगदान दे गये और साहित्य में भी...दोनो जगहों पर समान इज़्ज़त पाते रहे पु.ल...हम अशोक चक्रधर,नीरज,बालकवि बैरागी,सोम ठाकुर, माया गोविन्द , माणिक वर्मा, से लेकर ओम व्यास तक हिन्दी वाले दोहरे मापदण्ड वापरते हैं.नीरजजी ने ग़लती की जो फ़िल्मों मे गाने लिखे? बालकविजी ने हिन्दी चित्रपट को सबसे लंबा,मीठा,सुरीला और सशक्त काव्य-शिल्प वाला गीत दिया (तू चंदा मै चांदनी) ग़लती की ? जब तक हम हिन्दी के सेवियों के साथ सौतेला व्यवहार नहीं छोड़ेगे..दोगलापन नहीं छोडे़गे हिन्दी नहीं पनपेगी.ख़तरे बाहर नहीं...भीतर ही हैं अशोक भाई.

जयप्रकाश मानस said...

आपको ब्लॉग की दुनिया में पाकर मन प्रसन्न है । अब हिंदी को काहे का डर, चकध्रर जो साथ देने आ गये हैं । फिर शोक होने का प्रश्न ही नहीं उठता हिंदी के चिट्ठाकारों को । (www.srijangatha.com)

मसिजीवी said...

पुन: स्‍वागत।

Unknown said...

अशोक जी आप जैसे महान लेखक / कवि को अपने बीच पाकर हार्दिक खुशी हो रही है, आपने बिलकुल सही कहा कि यूनिकोड हिन्दी के आने से निश्चित ही हिन्दी का इंटरनेट पर प्रसार तेजी से होगा, मैंने भी जब से यूनिकोड को अपनाया है, मेरी कोशिश रहती है कि हर हफ़्ते कम से कम एक मित्र को तो यूनिकोड हिन्दी के बारे में बताऊँ / सिखाऊँ... आपका ब्लॉगिंग की दुनिया में तहेदिल से स्वागत है, हम सब मिलकर हिन्दी को प्रथम स्थान तक जरूर पहुँचायेंगे... आमीन..
suresh.chiplunkar@gmail.com

रोहित कुमार 'हैप्पी' | Rohit Kumar 'Happy' said...

चक्रधर जी,
नमस्कार!

'बोल मेरी मच्छली कितनी हिंदी' एक ज्ञानवर्धक, हास्य-रस से परिपूर्ण व कहीं-कहीं गंभीर और गहरे कटाक्ष वाली रचना लगी।

'बहुत से लोग ऐसे हो सकते हैं जो हिन्दी बोलते हुए कहेंगे कि हमें हिन्दी नहीं आती।' सौलह आने की बात है!

कमाल है...पूछे कोई इनसे कि इन्हें शाहरुख खान और क्या नाम है उसका...जिसकी शादी पर बड़ा बवाल हुआ था?....हाँ, ऐश्वर्य राय..उनकी हिंदी बड़ी समझ आती है और हमारी हिंदी नहीं आती!

सुनता हूँ विश्व हिंदी सम्मेलन में कुछ फिल्मी सितारे और सितारियां (मेरा मतलब तारिकाएं) भी आने वाली हैं... अवसर की अनुमति मिले तो उनसे यह पूछिए कि हिंदी में वे अदाकारी तो अच्छी करते हैं फिर साक्षात्कारों के समय अचानक उन्हें अँग्रेजी का दौरा क्यों पड़ता है? और इतनी अच्छी अँग्रेजी पर पकड़ है तो देश का नाम और ऊंचा करे - बॉलीवुड की जगह हॉलीवुड में एक्टिंग करें। उनके साथ-साथ हमारा (देश का) भी नाम ऊंचा हो जाए!

आपकी एक रचना में पढ़ा था:

'ऐसा क्यों हैं?
वैसा क्यों हैं?
पैसा क्यों हैं?'

अब इसी रीत का निर्वाह करते हुए मैं पूछूंगा कि ऐसा क्यों है:

फरवरी में तो आपने अपनी छप्पनवीं मनाई
ब्लाग की प्रोफॉइल में उम्र पच्चपन क्यों बताई?

खोजी पत्रकार को लेख में 'ऐसा क्यों हैं? वैसा क्यों हैं?' करने का अवसर नहीं मिला तो पूरा ब्लॉग ही छान मारा और खोज लिया,'ऐसा क्यों है' वाला सवाल!

एक भाई यहाँ हमारी 'भारत-दर्शन' पत्रिका पढ़ कर कुछ ना कुछ त्रुटि निकाला करते थे। मैंने कई बार मौका दिया फिर एक अंक में प्रकाशित किया, 'इस अंक में कुछ गलतियां जानबूझ कर छोड़ दी गई हैं, क्योंकि कुछ लोगों को गलतियां ढूंढने में ही परम् आनन्द प्राप्त होता है। - संपादक'

सोचता हूं, आपने भी सभी का ख्याल रखते हुए ऐसा तो नहीं किया? सभी को कुछ ना कुछ तो मिलना ही चाहिए।

आप ही के शब्दों के साथ:

'ऐ चक्रधर ये माना, हैं ख़ामियां सभी में,
कुछ तो मिलेगा बेहतर,परदे हटा के देखो।'

साभार।

रोहित कुमार 'हैप्पी'
संपादक, भारत-दर्शन
न्यूज़ीलैंड

विनय (Viney) said...

सभी हिन्दी-प्रेमियों, विशेषकर चक्रधर जी को मेरा साधुवाद| दिल बाग़-बाग़ हो जाता है जब हिन्दी में ऐसी बेहतरीन रचना पढने को मिलती है| लगे रहो...