Sunday, June 03, 2007

विश्व हिन्दी सम्मेलन सिलसिले

बच्चे क्यों जल्दी सीख जाते हैं? क्योंकि अपनी जिज्ञासाओं को तत्काल शांत कर लेते हैं। वयस्क होते ही बंदा दस बार सोचता है कि मन में जो सवाल उठा है उसे पूछें कि न पूछें। पूछ लिया तो हेठी तो न हो जाएगी, अज्ञानी तो न माने जाएंगे। इसी चक्कर में मैंने डॉ. इन्द्रनाथ चौधुरी से वह जिज्ञासा नहीं रखी जो एक संगोष्ठी में उन्हें सुनकर मेरे अंदर कुलबुला रही थी। उन्होंने कहा था— ‘हिन्दी एल. डब्ल्यू. सी. है’। मुझे नहीं मालूम था कि एल. डब्ल्यू. सी. क्या होता है। संगोष्ठी के बाद मिले, पूछने को हुआ तो उन्हें किसी और ने घेर लिया। अपने अगले किसी भाषण में उन्होंने फिर वही बात दोहराई कि हिन्दी एल. डब्ल्यू. सी. है। भला हो उनका कि उन्होंने खुद ही बता दिया-- एल. डब्ल्यू. सी. का मतलब है ‘लैंग्वेज ऑफ वाइड सर्कुलेशन’।

सचमुच हिन्दी ‘लैंग्वेज ऑफ वाइड सर्कुलेशन’ है। इस समय विश्व में काफी फैली-पसरी भाषा। मीडिया-प्रभु के हाथों में शंख, गदा, चक्र, कमल, परशु, वीणा और स्वर्ण-मुद्राओं के विविध रूपों में हिन्दी विराजमान है। मीडिया-प्रभु के चेहरे पर हिन्दी की वैश्विक मुस्कान है।

उन्नीस सौ पिचहत्तर से विश्व हिन्दी सम्मेलनों का सिलसिला चला। पहला नागपुर में हुआ। दूसरा सम्मेलन उन्नीस सौ छिहत्तर में मॉरीशस में हुआ। फिर सात वर्ष के अंतराल के बाद सन उन्नीस सौ तिरासी में नई दिल्ली में आयोजित हुआ। चौथा इसके दस साल बाद उन्नीस सौ तिरानवै में पुन: मॉरीशस में हुआ। पांचवां उन्नीस सौ छियानवे में त्रिनिदाद में छठा उन्नीस सौ निन्यानवे में लंदन में, सातवां दो हज़ार तीन में सूरीनाम में आयोजित हुआ और आठवां अब न्यूयार्क में होने जा रहा है। पिछले तीन बार से सरकार इस बात का ध्यान रखने लगी है कि विश्व हिन्दी सम्मेलनों का अंतराल तीन-चार वर्ष से अधिक न हो।

सात सम्मेलनों का क्या लाभ हुआ
सवाल ये है कि क्यों जाते हैं लोग विश्व हिन्दी सम्मेलनों में? क्यों होते हैं विश्व हिन्दी सम्मेलन? यह आठवां है। सात सम्मेलनों का क्या निचोड़ निकला, क्या लाभ हुआ? इस बात के उत्तर में सवाल किया जा सकता है कि किसी मेले, त्यौहार या पर्व का क्या लाभ होता है। अगर लाभ-हानि उसी तरह से देखेंगे जिस तरह से विभिन्न अनुदान आयोग देखते हैं तब तो बात न बनेगी। वस्तुत: विश्व हिन्दी सम्मेलन के अवसर पर पूरी दुनिया में हिन्दी बोलने, समझने, लिखने और पढ़ने वाले लोगों का मेला जुड़ता है। उन लोगों से मिलने का मौका मिलता है जो भारत से सुदूर स्थित देशों में किसी न किसी प्रकार से हिन्दी से जुड़े हुए हैं। वे भारतवंशी मिलते हैं जो आज से ड़ेढ़ सौ वर्ष पहले ये भूमि छोड़ कर गए थे और साथ ले गए थे रामचरितमानस का एक गुटका और पोटली में सत्तू। इन सम्मेलनों का घोषित उद्देश्य विदेशों में हिन्दी का प्रचार-प्रसार करना है।

हिंदी का बरगद
देखना यह है कि हिंदी जिन जड़ों से निकली है, उसका बरगद पूरे विश्व में कहां-कहां तक फैला है और उसने कहां-कहां अपनी जड़ें जमाई हैं। हिंदी का यह बरगद सात समंदर पार तक अपनी डालों को ले गया। कुछ मजबूत डालों ने केरेबियन देशों में अपनी जड़ें गिराईं कुछ ने गल्फ में तो कुछ ने एशिया में। अब उन जड़ों को वहां विकसित वृक्ष के तनों के रूप में देखा जा सकता है। वे जड़ें जहां गिरीं वहीं से खाद-पानी लेने लगीं।

पिछले बीस बरस में मैंने काफी दुनिया देखी है। इस दौरान प्रवासी भारतीयों में धीरे-धीरे एक चिंता को विकसित होते देखा है। पश्चिम की दुनिया में अब लोगों को ख्याल आ रहा है कि उनके बच्चे बड़े हो गए और अफसोस कि वे उन्हें अपनी भाषा न सिखा पाए। अफसोस कि उन्हें अपनी संस्कृति न दे पाए। इस मरोड़ का तोड़ क्या हो? विश्व हिन्दी सम्मेलनों में इस प्रकार की सामूहिक चिंताएं एक मंच पर आती हैं और निदान खोजती हैं। निदान का अर्थ संस्थाएं चलाने के लिए केवल आर्थिक मदद करना नहीं होता।

आस्ट्रेलिया में माला मेहता अगर हिन्दी स्कूल चला रही हैं तो उसके लिए भारत का कोई संस्थान उनकी आर्थिक मदद नहीं करता है। अपने संसाधन स्वयं जुटाती हैं। दरअसल, हिन्दी स्कूल वहां के लोगों की निजी आवश्यकता है। वे जिस भाषा और संस्कृति से प्यार करते हैं, अपने बच्चों को भी सिखाना चाहते हैं। ‘हिन्दी समाज’ की डॉ. शैलजा चतुर्वेदी और ‘भारतीय विद्या भवन’ के गम्भीर वाट्स न केवल हिन्दी शिक्षण से जुड़े हैं बल्कि स्थानीय संसाधनों से सांस्कृतिक कार्यक्रम भी आयोजित कराते रहते हैं। इसी तरह अमरीका में ‘भारतीय विद्या भवन’, ‘अंतरराष्ट्रीय हिन्दी समिति’ और ‘हिन्दी न्यास’ के तत्वावधान में हिन्दी के बहुमुखी कार्यक्रम चलते रहते हैं। रूस, नेपाल और गल्फ के कई देशों में ‘केन्द्रीय विद्यालय’ हिन्दी सिखाते हैं। इनका खाद-पानी भारत की जड़ों से जुड़ा है। भारत सरकार की सहायता से मॉरीशस में ‘विश्व हिन्दी सचिवालय’ की स्थापना हो गई है, डॉ. वीनू अरुण हाल ही में उसकी निदेशिका बनी हैं। खाद-पानी एकल भूमि से मिले या संयुक्त मिट्टियों से, दुनिया भर में हिन्दी की हरियाली फैलाने के प्रयत्न निरंतर बढ़ रहे हैं।

मॉरीशस, त्रिनिदाद और सूरीनाम ऐसे देश हैं जहां भारतवंशी बहुतायत में रहते हैं। उन्होंने हिन्दी को अपने पूर्वजों से प्राप्त करके सुरक्षित रखा। स्थानीय भाषाओं के प्रभाव में कितनी सुरक्षित रख पाए, यह अलग बात है। नई पीढ़ी को भाषा-प्रदान की यह प्रक्रिया सहज ही घटित होती रही। इसमें माताओं की भूमिका अधिक रही, क्योंकि परंपरागत रूप से महिलाओं ने भाषा नहीं छोड़ी। इन तीनों ही देशों के भारतवंशी परिवारों में भोजपुरी बोली जाती है। उनकी भोजपुरी ठीक वैसी भोजपुरी नहीं है जैसी भारत के भोजपुरी अंचल की है। उनकी भोजपुरी में उनकी स्थानीय भाषाओं के शब्द भी घुल-मिल गए हैं। मॉरीशस में बोली जाने वाली भोजपुरी में फ्रैंच और क्रियोल भाषा के शब्द हैं।

विदेशों में हिन्दी से रागात्मक लगाव को बढ़ाने में हिन्दी फिल्मों और हिन्दी गानों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। हिन्दी गाने अपनी मधुर धुनों और पारंपरिक तरानों के कारण भारतवंशियों को बहुत अच्छे लगते हैं। गाना एक बार नहीं, बहुत बार सुना जाता है, और जो बंदिश अनेक बार सुनी जाती है वह कंठस्थ हो जाती है। मैंने पाया कि भले ही पूरे गीत का अर्थ वे नहीं समझते हैं, लेकिन त्रिनिदाद और सूरीनाम के युवा मस्ती से ये गाने गाते हैं। ‘सुहानी रात ढल गई ना जाने तुम कब आओगे’ एक ऐसा गीत है जिसे त्रिनिदाद में इस आस्था से गाते हैं जैसे वह उनका दूसरा राष्ट्र-गीत हो। कोई एक व्यक्ति गाना प्रारंभ करता है, सभी सुर मिलाने लगते हैं। हिन्दी सम्मेलनों ने भारतवंशियों के अन्दर आत्मविश्वास का सुरीला संचार किया है।

आज के ज़माने में टीस की बात ये है कि आदमी तीस दिन में बदल जाता है, सूरीनाम के भारतवंशी तो एक सौ तीस साल पहले जो लोक-भाषा और लोक-संस्कृति लेकर गए थे आज भी वहां उन्हीं धुनों में गा रहे हैं और भारत को प्यार करते हैं बेशुमार। युग बीत गए पर वे ज़्यादा नहीं बदले। ऐसे भारतवंशियों को देखकर मन में अपार स्नेह उमड़ता है।

पहले विश्व हिन्दी सम्मेलन का प्रमुख मुद्दा
श्रीमती इंदिरा गांधी का भाषण कितने ही लेखों में इन दिनों दोहराया जा रहा है। उन्होंने पहले सम्मेलन में कहा था कि विश्व हिन्दी सम्मेलन किसी सामाजिक या राजनीतिक प्रश्न अथवा संकट को लेकर नहीं, बल्कि हिन्दी भाषा तथा साहित्य की प्रगति और प्रसार से उत्पन्न प्रश्नों पर विचार के लिए आयोजित किया गया है। वे मानती थीं कि हमारी जितनी भी भाषाएं हैं उनके रहते हम एक संयुक्त परिवार जैसे हैं। वे सब की सब हमारी मातृभाषाएं हैं और चूंकि हिन्दी सब से बड़े भाग द्वारा बोली जाती है इसलिए हमारी राष्ट्र भाषा है। इंदिरा जी का वक्तव्य हिन्दी की आंतरिक ताकत को बताता है।

बाहर से और शासन की ओर से जो ताकत उसे मिलनी चाहिए हिन्दी को अभी भी उसकी दरकार है। माना कि वह राजभाषा है लेकिन राजभाषा के रूप में उसका कितना महत्व है और राजकाज में कितना प्रयोग में आती है, ये कुछ ऐसी चीज़ें हैं जिन्हें हम दबा लेते हैं। आज इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि राजनीतिक दुरिइच्छाओं और अंग्रेज़ियत के लालों की लाल फीताशाही से हिन्दी व्यापक तबाही का शिकार हुई।

बहरहाल, पहले विश्व हिन्दी सम्मेलन में तीन मुद्दे थे लेकिन प्रमुख पहला ही था—
1। संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी को आधिकारिक भाषा के रूप में स्थान दिया जाए। 2। वर्धा में विश्व हिंदी विद्यापीठ की स्थापना हो। 3।हिंदी सम्मेलनों को स्थायित्व प्रदान करने के लिए अत्यंत विचारपूर्वक एक योजना बनाई जाए


हिन्दी अपने ही देश में अपने अधिकार खोने लगी थी और हम बात कर रहे थे संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी की आधिकारिकता की। ऐसा हमारे मोहल्ले-समाज में भी होता है। जब घर में कोई कमतरी हो तो हम मोहल्ले के सामने अपनी अन्दरूनी कमज़ोरियां नहीं बताते। मोहल्ले से अपनी अपेक्षा बनाए रखते हैं कि वह हमारी श्रेष्ठता स्वीकार करे।

संयुक्त राष्ट्र संघ में भाषा की ‘श्रेष्ठता’ स्वीकार कराने के लिए कुछ निर्धारित मानक थे। हिन्दी से जुड़े आंकड़ों को लेकर हम वहां खरे नहीं उतरे। आचार्य विनोबा भावे ने पहले सम्मेलन में ही अपने देश की भाषागत विडम्बनाओं का उल्लेख किया था— ‘यूएनओ में स्पेनिश को स्थान है, अगरचे स्पेनिश बोलने वाले पंद्रह-सोलह करोड़ ही हैं। हिन्दी का यूएनओ में स्थान नहीं है, यद्यपि उसके बोलने वालों की संख्या लगभग छब्बीस करोड़ है। इसका कारण यह है कि बिहार वालों ने अपनी भाषा सेंसस में मैथिली, भोजपुरी लिखी है। राजस्थान वालों ने अपनी भाषा राजस्थानी बताई है। इन कारणों से हिंदी बोलने वालों की संख्या पंद्रह करोड़ रह गई। अगर हम इन सबकी गिनती करते तो हिन्दी बोलने वालों की संख्या कम से कम बाईस करोड़ होती। इसके अलावा उर्दू भी एक प्रकार से हिंदी ही है, जिसे बोलने-वालों की संख्या करीब चार करोड़ है’। आचार्य ने इस बात पर भी अपनी हैरानी जताई कि यूएनओ ने चीनी मंदारिन जानने वालों की संख्या सत्तर करोड़ कैसे दर्ज करा दी।

दरअसल, हुआ क्या कि चीन में भाषा के प्रति राजनीतिक सदिच्छा रही और लाल झंडे तले लालफीताशाही ने देश के सारे नागरिकों से भाषा के कॉलम में एक ही नाम भरवा लिया— ‘मंदारिन’। हालांकि, वहाँ भी तीस-चालीस भाषाएं अस्तित्व और चलन में थीं। सत्तर के दशक के प्रारंभ में उनकी आबादी लगभग सत्तर करोड़ थी। जनगणना के भाषागत सर्वेक्षण के आधार पर यूएनओ ने स्वीकार कर लिया कि चीनी बोलने वाले सत्तर करोड़ हैं। और उन्होंने ‘मंदारिन’ को मान्यता दे दी।

अनेक महनीय विद्वान मानते हैं कि हिन्दी की महनीयता तभी मानी जाएगी जब वह संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता पा जाएगी।

दूसरा विश्व हिन्दी सम्मेलन : बालक भी नहीं शिशु
मैं अठहत्तर में मॉरीशस में गया था। दूसरे विश्व हिन्दी सम्मेलन में तो शरीक नहीं हुआ, लेकिन महात्मा गांधी इंस्टीट्यूट के हिंदी विभाग में जाने का अवसर मिला। नए-नए बने प्रधानमंत्री श्री अनिरुद्ध जगन्नाथ के निजी न्योते पर हम दो कवि, मैं और श्री ओम प्रकाश आदित्य वहां गए और यह पाया कि पूरा मॉरीशस इस बात पर गर्व करता था कि हमारे देश में दूसरा विश्व हिंदी सम्मेलन हुआ।

उस सम्मेलन में हमारे देश के हिंदी के बड़े-बड़े विद्वान गए थे, कवि और लेखक गए थे। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी का सम्मेलन की अंतिम गोष्ठी में दिया गया भाषण अद्भुत था। उन्होंने अपने भाषण की शुरुआत यह कहते हुए की कि आप इतनी देर से धैर्य के साथ सुन रहे हैं। मुझे आप पर दया भी आ रही थी। आपको भी मेरे ऊपर थोड़ी-थोड़ी दया आती होगी। प्राय: ऐसा कुछ छूटा नहीं है जो विद्वानों ने आपको बताया न हो। उनसे अछूती कौन सी बात कहूं मुझे समझ में नहीं आ रहा है। उनकी इस प्रस्तावना से लगता था जैसे वे अधिक नहीं बोलेंगे लेकिन वे लगभग एक घंटा बोले और सब ने बहुत एकाग्रता से सुना। उन्होंने कहा— ‘यह जो विश्व हिन्दी सम्मेलन है इसका अभी दूसरा ही वर्ष है। बहुत बालक भी नहीं शिशु है। अभी तो यह पैदा ही हुआ है, एक दो साल का बच्चा है। लेकिन इसको देखकर लगता है कि एक महान भविष्य का द्वार उन्मुक्त हो रहा है’।

द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन को हुए अब इकत्तीस वर्ष हो चुके हैं। आचार्य द्विवेदी की भविष्य दृष्टि सब कुछ जानती थी। आठवां विश्व हिन्दी सम्मेलन अब बत्तीस वर्ष का परिपक्व जवान होने वाला है। यह युवक ऊर्जावान है, इसकी क्षमताएं अपार हैं।

आठवां विश्व हिन्दी सम्मेलन पहली बार इतने विराट फलक पर आयोजित होने जा रहा है। उसका उद्घाटन सत्र भी यू. एन. की इमारत में होगा। संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी नहीं है का दर्द पाले हुए हमारे आदरणीय बुजुर्ग श्री मधुकर राव चौधरी चिंतित न हों। जिस इमारत में आठवें हिंदी विश्व सम्मेलन का उद्घाटन होना है उसी इमारत में शायद ये मधुर घोषणा सुनने को मिले कि हिंदी संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा है। आधिकारिक भाषा क्यों नहीं होगी भला? बताइए! जब बुश, भले ही अपनी सुरक्षा के लिए, अपने पूरे देश को प्राथमिक स्तर से हिंदी सिखाने पर आमादा हैं, जब सारे मल्टीनेशनल्स बहुत बड़ा बाजार देखकर हिंदी के सॉफ्टवेयर निर्माण में अपनी पूरी ताकत झोंक रहे हैं, जब प्रयोक्ताओं के सूचना प्रौद्योगिकी के सद्य:विकसित ज्ञान के कारण हिंदी में सूचना समाचारों का आदान-प्रदान और प्रेमाचार हो रहा है और जब हमारे पास माशाअल्ला पैसे की भी वैसी कमी नहीं है तो फिर हिन्दी क्यों नहीं होगी संयुक्त राष्ट्र में एक आधिकारिक भाषा। पहले विश्व हिन्दी सम्मेलन के समय हमारे देश के सामने विदेशी मुद्रा की उपलब्धि का सवाल था। आज वैसी चिंताएं नहीं हैं।

संस्कृति, भाषा और नई सूचना प्रौद्योगिकी
अब जबकि हम इंटरनेट के युग में हैं पूरा विश्व अपनी भौगोलिक दूरियां समाप्त करते हुए बकौल डॉ. सुधीश पचौरी एक ग्लोकुल बन चुका है-- ‘ग्लोबल गोकुल’। गोकुल एक गांव है पर गांव से कुछ ज़्यादा है। मुहब्बत फैलाता है। ‘ग्लोकुल’ बनने के बाद एक अच्छी बात यह हुई है कि अब से सात-आठ साल पहले हिंदीवादियों का जो अहंकार था वह अब युवा-शक्ति की नई आशाओं और आकांक्षाओं के कारण धीरे-धीरे नमित हुआ है। प्रारंभ में जो लोग कंप्यूटर और तकनीक को साहित्य विरोधी, संस्कृति विरोधी और पाश्चात्य सभ्यता का आक्रमण मानते थे वे भी अब मानने लगे हैं कि कंप्यूटर तो एक माध्यम भर है। यह संस्कृति नहीं है, इसके माध्यम से संस्कृतियां आ-जा सकती हैं। दूसरी संस्कृति को रोकने का प्रयास करेंगे तो अपनी संस्कृति को अन्यत्र कैसे पहुंचाएंगे।

हिन्दी को लेकर जो कुंठाएं थीं वे समाप्त हो गई हों ऐसा नहीं कह सकते। कई बार घर की कलह को बाहर की ताकतें ठीक करती हैं। अपना महत्व तब पता चलता है जब बाहर के लोग बताएं। हम हनुमान जी के देश के लोग हैं और अतुलित बलधामा है हिन्दी। इसको जाना माइक्रोसोफ्ट ने, गूगल ने, याहू ने और आज इंटरनेट पर सूचना भण्डारण कोई समस्या नहीं रही। गति इतनी कि आप मिली सैकिण्ड में सूचनाएं पा सकते हैं। सर्च की जो सुविधा हिन्दी में आई है उसने हिन्दी के परिवार को अचानक बहुत बड़ा किया है। आज अपनी संस्कृति और भाषा को व्यापकतम स्तर पर फैलाने का माध्यम है- नई सूचना प्रौद्योगिकी। दिन-ब-दिन नए-नए जनसंचार माध्यमों से, प्रौद्योगिकी से, हिन्दी का पाट चौड़ा हो रहा है, उसका प्रवाह तीव्र हो रहा है और लगने लगा है कि वह इस भूमंडल की एक महत्वपूर्ण सम्पर्क भाषा बन सकती है। भारतवंशी पूरे विश्व में फैले हुए हैं, वे हिन्दी के चलन को विश्वव्यापी बना सकते हैं।

लंदन का विश्व हिंदी सम्मेलन छठा था
न्यूयार्क में यह सम्मेलन जो अब होने जा रहा है, यह निन्यानवे में भी हो सकता था वहां। प्राथमिक प्रयास अमरीका के ही चल रहे थे, लेकिन छोटे-छोटे अहंकार और भविष्य की दूरगामी दृष्टि न होने के कारण अमरीका स्थित हिन्दी सेवी संस्थाएं प्रस्तावित आयोजन को साकार रूप न दे सकीं। अचानक लंदन के नौजवानों ने वह कार्यक्रम लपक लिया। देखते ही देखते सम्मेलन लंदन में सम्पन्न हो गया, और अच्छी तरह से हुआ। लंदन का विश्व हिंदी सम्मेलन छठा था। इससे पहले त्रिनिदाद और भारत में भी हो चुके थे। लंदन में काफी अफरा-तफरी रही। मैं भी गया था, मेरी तो तफरी रही। न तो मुझे किसी सत्र में बोलना था, न कोई शैक्षिक ज़िम्मेदारी थी, मात्र एक कविसम्मेलनी कवि की हैसियत से बुलाया गया था। जग का मुजरा लेता रहा और लोगों को सुनता रहा। कैमरा साथ ले गया था, फोटो खींचता रहा। लंदन की हिंदी की खूबसूरती पर मैंने ग्यारह रोल खर्च कर दिए। किन्हीं विद्वान को, जिन्होंने उस सम्मेलन में भाग लिया हो और अपना फोटो न मिला हो तो मुझसे संपर्क कर सकते हैं, शायद मैं उन्हें उनका चित्र दे पाऊं। मेरे पास डॉ. नामवर सिंह और डॉ. विष्णु कांत शास्त्री के घुट-घुट कर बतियाते हुए चित्र हैं। शिवानी जी के ऐसे चित्र हैं जिन्हें पाकर डॉ. मृणाल पांडे खुश हो सकती हैं।

तो, छठे विश्व हिन्दी सम्मेलन में मैंने फोटोग्राफर की हैसियत से भाग लिया। और वहीं से मेरी रुचि सम्मेलनों में बढ़ी। लगा जैसे यह है हिंदी का एक अद्भुत मेला, एक कुंभ। जहां आप अपनी हिन्दीगत, व्यावहारिक, सांस्कृतिक भड़ांस निकाल सकते हैं। कह सकते हैं, सुन सकते हैं और अपनी कलंगी में एक पंख जोड़ सकते हैं- देखा हम भी गए थे कुंभ करने, हम भी वहां थे।

वहां मैंने देखा कि आयोजक प्रिय पद्मेश गुप्ता, तितीक्षा शाह, उषा राजे सक्सेना, के़.बी़.एल़. सक्सेना, कृष्ण कुमार, महेन्द्र वर्मा और ब्रज गोयल परेशान थे क्योंकि सम्मेलन में ‘पांच बुलाए पंद्रह आए’, मुहावरा बेमानी हो गया। वहां तो पांच सौ से ज़्यादा आ गए। इतने प्रतिभागियों की व्यवस्था कैसे हो? कहां टिकाया जाए? कहां खिलाया जाए? लेकिन मैंने देखा कि नौजवान अगर किसी चीज़ में लग जाएं तो हर समस्या हल हो सकती है। बड़ी ही निष्ठा से उन लोगों ने अधिकांश के ठहरने, खाने और मनोरंजन का इंतजाम किया। सारा पैसा भारत सरकार ने दिया हो ऐसा तो नहीं था। उन्होंने अपने-अपने संसाधनों और सम्पर्कों का इस्तेमाल किया। किसी से भोजन स्पौन्सर कराया किसी से स्टेशनरी। स्वयं कितना करते! जहां से फोकट में मिल सकता था, हिन्दी के हित में लिया। किस से ले रहे हैं इस पर ध्यान नहीं दिया। एक भोजन सत्यनारायण मंदिर में क्या हो गया, भारत के अख़बारों में कोहराम मच गया कि देखिए सम्मेलन का स्वरूप धार्मिक है, इसे कट्टरवादी दक्षिण पंथी शक्तियों ने हथिया रखा है।

मैं समझता हूं कि अपनी-अपनी विचारधाराएं अपने-अपने साथ हैं, लेकिन हिंदी के मामले को लेकर दक्षिण-पंथी और वाम-पंथी होकर नहीं सोचना चाहिए। हिन्दी के लिए न कोई पक्ष हो और न प्रतिपक्ष, हिन्दी तो सबकी है। जो सरकार में हैं उन्हें भी हिंदी के हित में होना चाहिए, जो विपक्ष में हैं उन्हें भी। वस्तुत: हिंदी को एक ऐसी भाषा के रूप में विश्व में स्थापित करना है जो एक ओर हमारे देश के लोकतांत्रिक मूल्यों की वाहिका बने दूसरी ओर हमारी साझा संस्कृति की संवाहिका।

सातवें का 'सम्मेलन समाचार'

अगला यानी सातवां विश्व हिन्दी सम्मेलन दो हज़ार तीन में सूरीनाम में हुआ। सम्मेलन में जो काम मुझे दिया गया, उसमें मुझे श्रम तो ख़ूब करना पड़ा, लेकिन आनंद भी बहुत आया। पिछले विश्व हिन्दी सम्मेलनों में प्रायः मुझे लगता था कि मैं इससे ज़्यादा कुछ कर सकता हूं। कविसम्मेलन तो एक रात में कुछ घंटों का मामला होता है और सम्मेलन चलता है तीन-चार दिन। बाकी समय में क्या करिए! सिर्फ प्रतिभागी बनकर फाइलें उठाए-उठाए घूमने में भला क्या मज़ा!

आई० सी० सी० आर० ने मेरे सामने एक प्रस्तावनुमा सवाल रखा कि क्या मैं सम्मेलन के दौरान, प्रतिदिन, एक चार पेज की न्यूज़-बुलेटिन निकाल सकता हूं? सुनकर मैं तो परम प्रसन्न हो गया। उत्साह से भरकर मैंने कहा- 'जी, चार पृष्ठ क्या, मैं प्रतिदिन सोलह-पृष्ठीय समाचारपत्र निकाल दूंगा। मेरे पास अपना लैपटॉप है। साथ में डिजिटल कैमरा, जिससे मैं तस्वीरें खींचकर सीधे कंप्यूटर पर डाउनलोड कर सकता हूं। स्कैनिंग का कोई झंझट नहीं। एक टाइपिस्ट मिल जाए तो अच्छा है, वैसे मुझे टाइपिंग भी आती है। पेजमेकर और फोटोशॉप का पिछले कुछ वर्षों से इस्तेमाल कर रहा हूं। चित्र बना सकता हूं, बाइंडिंग भी जानता हूं। ये सब तो मैं जानता हूं कि जानता हूं, लोगों का मानना है कि मैं लिख भी लेता हूं।'

बहरहाल, प्रस्ताव पाकर मैं उल्लास से भरा हुआ था। एक चुनौतीपूर्ण कार्य मिला तो मैं अपनी पूर्व तैयारियों के साथ इस सम्मेलन में गया। मुझे ख़ुशी है यह बताते हुए कि पांच तारीख़ से लेकर दस तारीख़ तक श्री घनशाम दास, अनिल जोशी, राजमणि, के. बी. एल. सक्सेना और भुत सारे साथियों के सकर्मक सहयोग से मैंने न्यूज़-बुलेटिन के पांच अंक निकाले। नाम रखा 'सम्मेलन समाचार'। पांच जून को 'सम्मेलन समाचार' का स्वागतांक निकाला, छः जून को निकाला उद्घाटन के समाचारों को प्राथमिकता देते हुए। कोई दस पेज का, कोई बारह पेज का, कोई चौदह पेज का। सामग्री हर दिन आवश्यकता से अधिक होती थी। सोचते थे कि बची हुई सामग्री को अंतिम दिन के 'विदाई अंक' में डाल देंगे। ये पांच अंक निकालकर मुझे बहुत-बहुत आनंद आया। आनंद आया रिपोर्टिंग का, फोटोग्राफी का, पेज-सैटिंग का, प्रस्तुति-कला का, नई टीम के गठन का, घनघोर श्रम का और थकान का।

मेरे अचानक जन्मे इस उत्साह और उल्लास के पीछे कुछ कारण और भी थे। पहला तो यह कि मैं विगत सम्मेलन की अख़बारी रिपोर्टों से मन ही मन थोड़ा खिन्न था। मुझे वे एकांगी लगी थीं। अगर मैं उस सम्मेलन में नहीं गया होता तो मुझे क्या पता चलता कि सचमुच क्या हुआ! मैं तो अख़बारों की रिपोर्ट को ही अंतिम मान लेता। लेकिन मैं तो वहां था। सब कुछ मैंने देखा था, सुना था। और सब कुछ वैसा नहीं था जैसा कि कुछ ख़ास अख़बारों में बताया गया था। मैंने उस सम्मेलन में लगभग दस रोल फोटो खींचे। व्यक्तिगत वितरण के अतिरिक्त वे कहीं छपे नहीं। तब मन करता था कि इन चित्रों के साथ एक विस्तृत रिपोर्ट बनाऊं ताकि सम्मेलन की पूरी झांकी दिखा सकूं। उस दबी हुई कामना को पूरा होने का मौका मिला तो फिर मैं ख़ुश क्यों न होता।

कई बार जब दाल में कंकड़ी आ जाती है तो मुंह में किरकिराहट भर जाती है। लेकिन जैसा मैंने बचपन से देखा है हम दाल नहीं फेंकते कंकड़ी थूक देते हैं। पल दो पल खाना बनाने वाले पर नाराज़ होते हैं और भूल जाते हैं। छठे विश्व हिन्दी सम्मेलन के मामले में दाल-भात का तो ज़िक्र नहीं हुआ, कंकड़ी पुराण पर रोदन चलता रहा। मैं जानता था कि दाल में एक-दो कंकड़ियां थीं लेकिन भोजन सुस्वादु था। ज़माने ने तो यही जाना कि सारा गुड़-गोबर था।

एक और भी पीड़ा थी मेरी। इस पीड़ा को वर्तमान पत्रकारिता से मेरी शिकायत भी माना जा सकता है कि प्रायः सारे अख़बार दृश्य के एक बहुत बड़े हिस्से को अनदेखा कर देते हैं। ऐसे जैसे- 'मूंदहु नयन कतहुं कछु नांही'। पत्रकारिता निर्णयात्मक ज़्यादा हो जाती है विवरणात्मक कम। पाठकों का अधिकार है कि पहले उन्हें सम्पूर्ण दृश्य दिखाया जाए। मुझे लगा कि मुझे यह मौका मिल रहा है। सो अंदर ही अंदर बहुत प्रसन्न था।

तीसरी बात ये कि जामिआ मिल्लिया इस्लामिया के हिन्दी विभाग में हम पिछले दो दशक से किसी न किसी रूप में पत्रकारिता पढ़ाते आ रहे थे। यह अवसर था जब मुझे पत्रकारिता के सैद्धांतिक पक्ष के साथ व्यावहारिक प्रयोग करने का अवसर मिल रहा था। 'सम्मेलन समाचार' प्रतिदिन शाम को छापना बड़ा रोमांचकारी लगा। सोचा, पहले ये काम कर दिया जाए फिर विद्यार्थियों को उदाहरण के रूप में दिखाया जाए। कह सकता हूं कि 'सम्मेलन समाचार' की परिकल्पना से मेरे अंदर का विद्यार्थी सजग हो गया जो मेरे अंदर के गुरु को बहुत सारे नंबर लाकर दिखाना चाहता था। यानि मेरा उत्साह मेरे अंदर के विद्यार्थी का उत्साह था।

चौथा कारण भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। पिछले सात-आठ साल से कम्प्यूटर के साहचर्य में रहते रहते यह बात शिद्दत से महसूस होने लगी कि नई सूचना प्रौद्योगिकी का पूरा-पूरा लाभ अभी हम हिन्दी में नहीं उठा पा रहे हैं। कम्प्यूटर और नई तकनीकों के प्रति हम सहज नहीं हो पाए हैं और न ही समझ पाए हैं कि कम्प्यूटर कलम जैसा ही एक औज़ार है जो आपकी क्रियाशीलता को कई गुना बढ़ा देता है। प्रतिदिन अख़बार निकालने के पीछे मुझे अपने कम्प्यूटर जैसे साथी पर बड़ा भरोसा था। 'सम्मेलन समाचार' के रूप में मैं कम्प्यूटर की क्षमताओं का एक 'डैमो' देना चाहता था।

कई बार ऐसा हुआ कि टाइप करने तक का समय नहीं मिला। डिजिटल कैमरे ने अलादीन के जिन्न की तरह हुकुम बजाया। आठ जून को सायंकालीन सत्र के बाद सम्मेलन में गए बारह सांसदों ने ‘सूरीनाम संकल्प’ के रूप में एक प्रस्ताव का प्रारूप बनाया। लिखा था— ‘सूरीनाम में आयोजित सातवें विश्व हिन्दी सम्मेलन में भारतीय संसद की ओर से अधिकृत रूप से उपस्थित हुए संसद सदस्यों का यह प्रतिनिधि मंडल विश्व हिन्दी सम्मेलन के समग्र परिवेश का अध्ययन करने के पश्चात भारत सरकार से यह आग्रह करता है कि संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी को आधिकारिक भाषा की मान्यता दिलाने के लिए संसद एक संकल्प पारित करे और उसे शीघ्रातिशीघ्र क्रियान्वित करने के लिए आवश्यक क़दम उठाए’। संकल्प के नीचे सर्वश्री लक्ष्मी पांडे, नवल किशोर राय, बालकवि बैरागी, वरलु, दीना नाथ मिश्र, सरला माहेश्वरी, एपीजे, राम रघुनाथ चौधरी और सत्यव्रत चतुर्वेदी के हस्ताक्षर थे। पत्र का चित्र खींचा, आधा घंटे बाद अंक लोगों के हाथ में था।

अलग ताप-तेवर से होगा आठवां
प्रथम सम्मेलन को हुए बीत गए बरस बाईस। सात सम्मेलन हो चुके, चीज़ें होने लगी पारदर्शी। आंकड़े अब बदल चुके हैं। कमोवेश ये बात साफ है कि आठवां विश्व हिन्दी सम्मेलन कुछ अलग ताप, तेवर और मिजाज़ का होना चाहिए। इसके आयोजनकर्ताओं के संकल्प भी छिपे नहीं हैं, साफ हैं। विदेश राज्यमंत्री आनंद शर्मा के निजि घनत्वपूर्ण रुचि लेने के कारण सम्मेलन की तैयारियां एक सार्थक दिशा लेने का प्रयास रही हैं। यह बात पता चलती है विश्व हिन्दी सम्मेलन की वेबसाइट www.vishwahindi.com से जिसका मीडिया लॉन्च उन्नीस मार्च को हुआ था। यह वेबसाइट श्री बालेन्दु शर्मा दाधीच के नेतृत्व में तैयार हुई है। वेबसाइट तो पिछले सम्मेलन में भी बनी थी पर ये वाली बात न थी।
इस बार आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन की आधिकारिक वेबसाइट पूरी तरह यूनिकोड में बनी है और नवीनतम तकनीक पर आधारित है। इस की विषय वस्तु में निरंतर विस्तार होता रहेगा। इस वेबसाइट के चार खंड हैं। पहला खंड है सूचनात्मक, दूसरे में ऐतिहासिक महत्व की संदर्भ सामग्री है, तीसरा खंड पाठकों के साथ सम्पर्क की सुविधा प्रदान करता है यानी इंटरऐक्टिव है, चौथा डायनमिक खंड है जो निरंतर अपडैट होता रहेगा। लिखित चित्रात्मक और दृश्य श्रव्यात्मक सामग्री के अतिरिक्त इसमें ऐसी पी.डी.एफ फाइल भी होंगी जिन्हें डाउनलोड किया जा सकता है। यह वेबसाइट प्रतिदिन अपडैट होती है। स्थान की कोई समस्या नहीं है।

आज अगर किसी को जानना है कि आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलनों में क्या होने जा रहा है, शेष सात सम्मेलनों में क्या हुआ था। कितने सत्र होंगे, उनका विषय क्या है तो कृपया अपने कम्प्यूटर खोलें, नेट पर जाएं और सेट कर लें।

अंतरराष्ट्रीय और क्षेत्रीय हिन्दी सम्मेलन
विदेश मंत्रालय ने प्रारंभ से इसकी ज़िम्मेदारी उठाई है। जिस देश में सम्मेलन होता है वहां का कोई एक स्थानीय निकाय मेज़बानी करता है और विदेश मंत्रालय उसे न केवल वित्तीय सहायता देता है बल्कि आयोजन में सकर्मक रूप से सक्रिय रहता है। पिछले छ:-सात बरस में अनेक देशों से इस प्रकार की मांग उठी कि अगला विश्व हिन्दी सम्मेलन उनके देश में कराया जाए।

विश्व हिन्दी सम्मेलन मान लीजिए किसी देश के अनुरोध पर वहां नहीं किया गया तो उन लोगों ने अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन आयोजित कर लिए। त्रिनिदाद में एक बार विश्व हिन्दी सम्मेलन हुआ था। दोबारा न हो सका तो वहां के विश्वविद्यालय ने 2002 में अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन का आयोजन किया। इसी प्रकार कुछ देशों की मांग पर विदेश मंत्रालय ने कहा कि हम विश्व हिन्दी सम्मेलन तो नहीं करा सकते पर क्षेत्रीय हिन्दी सम्मेलन करा सकते हैं। पिछले दो वर्षों में अबूधाबी, दुबई, जापान, आस्ट्रेलिया और मॉस्को में हिन्दी सम्मेलन हुए। ये समझिए कि महाकुंभ से पहले होने वाले अर्द्धकुंभ थे। महाकुंभ में तसल्ली से बात करने का मौका शायद न मिले पर क्षेत्रीय सम्मेलनों ने इसमें एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

जितने भी क्षेत्रीय सम्मेलन हुए उनमें हिन्दी शिक्षण को लेकर गंभीर चर्चाएं हुईं। जापान के क्षेत्रीय सम्मेलन में नाट्य विधा रेखांकित हुई। वहां मिज़ोकामी और तनाका ने नाटकों के माध्यम से हिन्दी को फैलाया है। उज़्बेकिस्तान के लोग भारतीय धारावाहिकों से हिन्दी को संवर्धित कर रहे हैं। डॉ. फैज़ुल्लायेव ने रामानंद सागर की रामायण का रूसी में अनुवाद किया और पूरा धारावाहिक लोगों ने बड़े मज़े से देखा। कहना न होगा कि फिल्मी गीत, फिल्मी संवाद और धारावाहिकों ने हिन्दी को सम्पूर्ण विश्व की भाषा बना दिया है।



आठवां विश्व हिन्दी सम्मेलन
तेरह जुलाई को संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय के परिसर में प्रात: दस बजे उद्घाटन होगा फिर चलेंगे नौ समानांतर शैक्षिक सत्र। शैक्षिक सत्रों के विषय हैं-- संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी, विदेशों में हिंदी शिक्षण समस्याएं और समाधान, विदेशों में हिंदी साहित्य सृजन (प्रवासी हिंदी साहित्य), हिंदी के प्रचार-प्रसार में सूचना प्रौद्योगिकी की भूमिका, वैश्वीकरण, मीडिया और हिंदी, हिंदी के प्रचार प्रसार में हिंदी फिल्मों की भूमिका, हिंदी, युवा पीढ़ी और ज्ञान-विज्ञान, हिंदी भाषा और साहित्य- विभिन्न आयाम, साहित्य में अनुवाद की भूमिका, हिंदी और बाल साहित्य और देवनागरी लिपि। समापन सत्र में देश और विदेश के हिंदी विद्वानों का सम्मान किया जाएगा तथा पुराने अधूरे संकल्पों को दोहराया जाएगा, नए संकल्प पारित किए जाएंगे। इस बार सम्मेलन आयोजित करने की ज़िम्मेदारी पहले से ज़्यादा बड़ी है। भारतीय विद्या भवन के निदेशक डा. पी. जयरमन प्राणपण से व्यवस्थाओं में जुट गए हैं।

हर सत्र में दस बोलने वाले भी रखे जाएं तो नब्बे तो वक्ता ही हो गए। वे कितना बोलेंगे यह इस पर निर्भर करता है कि हिन्दी के समाज में उनकी हैसियत कितनी है। कितने ही लोगों को टोका जा सकता है, बीच में रोका जा सकता है। कितनी ही आत्माएं कुलबुलाती रह जाएंगी, जिनको बोलने का अवसर नहीं मिल पाएगा। प्रतिभागी बनकर सुनने में भी क्या बुराई है। अनुमान है कि लगभग चार-पांच सौ लोग तो भारत से ही इस सम्मेलन में भाग लेने जाएंगे।

संसार का मुश्किल से ही ऐसा कोई देश होगा जहां कोई हिन्दीभाषी न हो। हिन्दी के विकास में सरकार और स्वैच्छिक संस्थाओं से अधिक योगदान आज बाज़ार और मनोरंजन कर्मियों का है। संभवत: यही सोच कर आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन का केन्द्रीय विषय रखा गया है- ‘विश्व मंच पर हिन्दी’।

सम्मेलन की तिथियां उद्घाटित होने के बाद से विश्वभर के हिन्दी-सेवियों में हलचल है। कौन नहीं चाहेगा अमरीका घूमना, कौन नहीं चाहेगा हिन्दी-सेवियों की जमात में शामिल होना और अपना किसी भी प्रकार का योगदान देना। अमरीका जाने का किराया और वहां ठहरने का खर्चा कम नहीं है फिर भी लोग उत्साहित हैं। देखते हैं यह उत्साह न्यूयार्क पहुंच कर हिन्दी के पक्ष में किस प्रकार का रूपाकार लेगा।

विश्व हिन्दी सम्मेलन के बारे में इतना कहना चाहूंगा कि अब यह सम्मेलन हिन्दी का एक पर्व बनता जा रहा है। एक ऐसा मेला जहां हम दुनिया भर के हिन्दी वाले हंसते-खिलखिलाते हैं, मिलते-मिलाते हैं। एक ऐसा अवसर जब हिन्दी की विभिन्न प्रकार की बोली-शैलियां जीने वाले लोगों का आपस में मिलन होता है। भाषा किसी समाज में विभिन्न जीवन-शैलियों की जनक होती है- ये कोई ऐसी बात नहीं है जो लोगों को पता न हो। सब जानते हैं कि हमारे देश में अलग-अलग रंग, गोत्र, जाति, वर्ण और धर्म के लोग एक ही भाषा बोलते हैं। भाषा तो बोलने वालों के समुदाय की सतत निर्झरिणी है। एक समाज जिस भाषा में गुफ़्तगू करता है, जिसमें एक दूसरे से सम्प्रेषित होता है वो उस समाज की साझेदारी होती है।

विषयों का निर्धारण हो चुका है, खुला निमंत्रण है हिन्दी सेवियों को कि वे अपने विचार भेजें। उन आलेखों के चयन में कोई चूक न हो और हमारा मीडिया अन्यथा न ले क्योंकि अन्यथा लेने के सिवाय उसे विशेष आता नहीं है। सत्प्रयत्नों को रेखांकित कर देंगे तो गेन नहीं कर पाएंगे क्योंकि बारगेन नहीं कर पाएंग़े। अपनी रणनीति बदलें और प्रयत्नों को सैल्यूट करें और देखें कि आगे क्या होता है।

5 comments:

संजय बेंगाणी said...

अब तक हुए हिन्दी विश्व सम्मेलनो के बारे में अच्छा परिचय दिया.
साधूवाद.

विष्णु बैरागी said...

'विश्‍‍‍व हिन्‍दी सम्‍मेलन सिलसिले' आलेख पूरा पढने में बहुत ही धैर्य रख्‍ना पडा लेकिन आनन्‍द आ गया ।

अंग्रेजी चूंकि रोजगार की भाषा बन गई है इसलिए लोग रोटी पहले लपक रहे हैं, मां को पीछे छोड रहे हैं । हिन्‍दी को पीठ पर ढोने के बजाय यदि पेट से जोड दिया जाए तो तस्‍वीर बदलने में पलक झपकने जितना ही समय लगेगा ।

'सम्‍मेलन' से अलग हटकर बात करें तो आपके लेख ने मूल समस्‍या रेखांकित कर दी है । 'नई सूचना प्रौद्योगिकी का लाभ अभी हम हिन्‍दी में नहीं उठा पा रहे हैं । कम्‍प्‍यूटर और नई तकनीकों के प्रति हम सहज नहीं हो पाए हैं और न ही समझ पाए हैं कि कम्‍प्‍यूटर कलम जैसा ही एक औजार है जो आपकी क्रियाशीलता को कई गुना बढा देता है ।' लेख का यह अंश समस्‍या का पूरा समाधान है । लोगों को पता ही नहीं है कि यूनीकोड के माध्‍यम से हिन्‍दी प्रत्‍येक कम्‍प्‍यूटर में अपनी सम्‍पूर्णता से उपलब्‍ध है । आने वाला समय कम्‍प्‍यूटर का ही है । लिहाजा, कम्‍प्‍यूटर को हिन्‍दी औजार के रूप में परिचित और प्रचारित करने पर जोर दिया जाना चाहिए । मैं ने अभी अभी ब्‍नाग विश्‍‍व में प्रवेश किया है । यद्यपित काम कर रहा हूं लेकिन सच मानिए 'यूनीकोड' का अर्थ नहीं जानता । मेरे उस्‍ताद श्री रवि रतलामी पग-पग पर पथ-प्रदर्शन कर देते हैं और मेरी गाडी चल रही है ।
नगरों, कस्‍बो, देहोतों में चल रहे कम्‍प्‍यूटर कोचिंग केन्‍द्रों पर यदि यह जानकारी प्रमुखता से प्रदर्शित की जाए तो सच मानिए, हिन्‍दी और कम्‍प्‍यूटर पर्याय बन जाएं । अभी तो जो लोग अंग्रेजी का ए भी नहीं जानते वे उतावले होकर कम्‍प्‍यूटर पर अंग्रेजी मे ठक-ठक करने को विवश और अभिशप्‍त हैं ।
आपने समस्‍या की जड बता दी है । इसके निदान के क्रियान्‍वयन को भी अभियान बनाने पर विचार कीजिए । केवल आग्रह नहीं कर रहा हूं, मेरे योग्‍य काम बताइएगा । ऐसे अभियान से जुड कर आत्‍म सन्‍तोष मिलेगा ।

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

अशोक जी,
लवस्कार !

आपका उत्साह बकरार रहे !
बृहत ब्योरा प्रस्तुत करने पर ,
बहुत बहुत बधाई !

कृपया मेरी रीपोर्ट "आँठवा -८वाँ विश्व हिन्दी सम्मेलन " पर, भी देखियेगा :

http://lavanyam-antarman.blogspot.com/2007/06/blog-post.html
लवस्कार,
स ~ स्नेह
लावण्या

जयप्रकाश मानस said...

पद्य तो बहुत सुना है मैं आपकी । मैं इधर बहुत दिनों से आपकी गद्य रचनाएं ढूँढ़ रहा था । मजा आ गया साहब आज ।
www.srijangatha.com

अभिनव said...

आदरणीय गुरुदेव,
(मैंने आपसे विधिवत शिक्षा भले ही न प्राप्त की हो परंतु सीखा बहुत है, अतः इस संबोधन का प्रयोग कर रहा हूँ।)
पूरा लेख पढ़ लिया है। तथा फ्लाइट के टिकट भी बुक करा लिए हैं।
अब तो बस सत्तू बांध कर हडसन के किनारे आपका आशीर्वाद प्राप्त करेंगे।