इस संसार के भारत नामक देश में ससुर नामक मनुष्यों की दो प्रजातियां पाई जाती हैं। पहली प्रजाति, लड़की का ससुर और दूसरी, लड़के का ससुर। कहा जाता है कि यदि दहेज का लालची न हो तो लड़की का ससुर अपनी बहू को बेटी मानता है। सास अपनी बहू को क्या मानती है यह बताने की आवश्यकता नहीं है। इस विषय पर ऐसे बहुत सारे अश्रुधारा-प्रवाहिक धारावाहिक चल रहे हैं, जिनसे सास-बहू के सांस्कृतिक संबंधों पर आवश्यकता से अधिक प्रकाश नहीं, अँधेरा डाला जा चुका है। चर्चा करना ही व्यर्थ है। कुछ भी हो, सास की तुलना में ससुर अपनी बहू को ज़्यादा बेटी मानता है। माफ करिएगा।
दूसरी ओर लड़के का ससुर है। यदि उस ससुर के अपने लड़के न हों तो वह दामाद को अपना लड़का मान सकता है। लेकिन अगर उसके अपने लड़के हैं और उसे उनके हितों की रक्षा करनी है तो दामाद पुत्रवत् न लगेगा तो दुश्मन भी न लगेगा। एक मधुर-मनोहारी सम्बंध उनके बीच में बना रह सकता है बशर्ते दोनों के बीच एक सुरक्षित दूरी बनी रहे। एक कहावत है--
दूर जमाई आवक भावक, पास जमाई आधा,
घर जमाई गधा बराबर, जित चाहे धर लादा।
प्रेमचन्द ने कायाकल्प में लिखा है-- ‘ससुराल की रोटियां मीठी मालूम होती हैं, पर उनसे बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है’। प्रेमचन्द की यह बात मनुष्यों पर लागू होती है, भगवानों पर नहीं। भगवान शिव और विष्णु दोनों अपनी-अपनी ससुरालों में आज तक रोटी तोड़ रहे हैं। उनकी बुद्धि भी ठीकठाक मानी जाती है, तभी तो संसार को ऐनी हाउ चला रहे हैं।
असारे खलु संसारे सारं श्वशुर मन्दिरम्।
हरो हिमालये शेते, हरि: शेते महोदधौ॥
अर्थात्, इस संसार में श्वशुर का मन्दिर (ससुराल ही) सार है। देखो, महादेव जी हिमालय में रहते हैं और श्री हरि क्षीरसागर में शयन करते हैं।
ससुर का विकट अथवा निकट स्वरूप तब दिखाई देता है जब दामाद घर में पूर्ण रूप से प्रवेश करने की कामना रखे। वहीं बसने की गोपनीय तमन्ना रखे। काका हाथरसी ने ऐसे दामादों के लिए ससुर की ओर से लिखा था--
बड़ा भयंकर जीव है, इस जग में दामाद,
सास-ससुर को चूस कर, कर देता बरबाद।
कितना भी दे दीजिए, तृप्त न हो यह शख्स,
तो फिर यह दामाद है अथवा लैटर-बक्स।
अथवा लैटर-बक्स, मुसीबत गले लगा ली,
नित्य डालते रहो, किंतु ख़ाली का ख़ाली।
कह काका कवि, ससुर नरक में सीधा जाता,
मृत्यु समय यदि, दर्शन दे जाए जामाता।
यह तो कमाल हो गया! ऐसी घृणा तो किसी संस्कृति में न दिखेगी। दामाद अगर मृत्यु समय उपस्थित है तो उसे नरक मिलेगा। यह धारणा पूरे हिन्दू समाज में आज भी घुसपैठ किए हुए है। मुझे लगता है इसके मूल में सम्पत्ति और विरासत का मामला है। यह षड्यंत्र बेटों ने प्रारंभ किया होगा कि कहीं मरते-मरते पिताजी जीजा जी को जी से न लगा लें। हमारे हिस्से का उन्हें न थमा दें। दामाद को अत्यधिक चाहने वाला ससुर भी अंतिम समय में उसके दर्शनों से बचता है। औलाद ने जीते-जी नरक दिखा दिया, दामाद कहीं परलोक भी न बिगाड़ दे। ससुर कितना भी सुरीला क्यों न हो, दामाद नुकीला दिखाई देता है। आर्थिक पारिवारिक समीकरणों में साले-साली के मधुर लगने वाले सम्बंध भी गले तक गाली के हो जाते हैं।
ससुर बनना पिता बनने से बिल्कुल भिन्न है। पिता बनने में जहां आप प्रकृति की नियामत के रूप में अपने बालकों को प्राप्त करते हैं। ससुर उस प्राप्ति को गैर प्राकृतिक लेकिन पारंपरिक और सांस्कृतिक रूप से प्राप्त करता है। जो बालक दामाद बन कर अथवा बालिका बहू बनकर उसके घर में आए वे प्रकृति ने नहीं दिए, प्रकृति की आवश्यकताओं ने दिए। वे लोग महान होते हैं जो प्राकृतिक प्राप्ति और पारंपरिक प्राप्ति में भेद नहीं करते। औलाद और बहू-दामाद दोनों को समान प्यार देते हैं। आदरास्पद होते हैं। ऊंच-नीच को ढकने के लिए चादरास्पद हो जाते हैं और रक्त सम्बंध न होने के बावजूद फादरास्पद बने रहते हैं। बहरहाल, अन्य सम्बंधों की तुलना में यह सम्बंध मधुर होता है।
गावों में प्राय: कम उम्र में ही ससुर बनने का अवसर मिल जाता है। दामाद दोस्त बन जाते हैं लेकिन बहुएं बेचारी घबराई रहती है। किसी अनुभवी और पारदर्शी लोक-कवि ने कहा था –
‘जिधर बहू कौ पीसनौ, उधर ससुर की खाट।
निवरत आवै पीसनौ, खिसकत आवै खाट’।
बहू चक्की पीस रही है, पुत्र गया हुआ है खेत पर और ससुर घर पर हुक्का गुड़गुड़ा रहे हैं। जैसे-जैसे पीसना खत्म हो रहा है, वैसे-वैसे ससुर जी अपनी खाट खिसकाते ला रहे हैं।
हमारे समाज के पारिवारिक परकोटों में कितने दैहिक अपराध होते हैं, उसका लेखा-जोखा उपलब्ध करना असंभव है। प्रतिष्ठा और झूठी मर्यादाओं की दुहाई के कारण महिलाएं प्राय: बोलती नहीं हैं। मामले को दफन करने के चक्कर में कई बार बहू के लिए कफ़न खरीदना पड़ जाता है। बहुएं आत्महत्या करती हुई पाई जाती हैं न कि दामाद।
ससुर की भूमिका महत्वपूर्ण रहती है। मैंने पहले ही कहा कि ससुर दो प्रकार के होते हैं-- एक लड़के का और एक लड़की का। लड़के का ससुर है अधिक मानवीय होता है और लड़की का ससुर होते ही न जाने कौन सी हमारी परंपराएं हैं जो उसके ज़हन को प्रदूषित कर देती हैं। लड़की के ससुर को लड़के के ससुर जैसा बनना चाहिए। ऐसा मैं मानता हूं। ससुर लोग ऐसा मानेंगे तो स्वर्ग में जाएंगे, अगर स्वर्ग कहीं होता हो।
दूसरी ओर लड़के का ससुर है। यदि उस ससुर के अपने लड़के न हों तो वह दामाद को अपना लड़का मान सकता है। लेकिन अगर उसके अपने लड़के हैं और उसे उनके हितों की रक्षा करनी है तो दामाद पुत्रवत् न लगेगा तो दुश्मन भी न लगेगा। एक मधुर-मनोहारी सम्बंध उनके बीच में बना रह सकता है बशर्ते दोनों के बीच एक सुरक्षित दूरी बनी रहे। एक कहावत है--
दूर जमाई आवक भावक, पास जमाई आधा,
घर जमाई गधा बराबर, जित चाहे धर लादा।
प्रेमचन्द ने कायाकल्प में लिखा है-- ‘ससुराल की रोटियां मीठी मालूम होती हैं, पर उनसे बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है’। प्रेमचन्द की यह बात मनुष्यों पर लागू होती है, भगवानों पर नहीं। भगवान शिव और विष्णु दोनों अपनी-अपनी ससुरालों में आज तक रोटी तोड़ रहे हैं। उनकी बुद्धि भी ठीकठाक मानी जाती है, तभी तो संसार को ऐनी हाउ चला रहे हैं।
असारे खलु संसारे सारं श्वशुर मन्दिरम्।
हरो हिमालये शेते, हरि: शेते महोदधौ॥
अर्थात्, इस संसार में श्वशुर का मन्दिर (ससुराल ही) सार है। देखो, महादेव जी हिमालय में रहते हैं और श्री हरि क्षीरसागर में शयन करते हैं।
ससुर का विकट अथवा निकट स्वरूप तब दिखाई देता है जब दामाद घर में पूर्ण रूप से प्रवेश करने की कामना रखे। वहीं बसने की गोपनीय तमन्ना रखे। काका हाथरसी ने ऐसे दामादों के लिए ससुर की ओर से लिखा था--
बड़ा भयंकर जीव है, इस जग में दामाद,
सास-ससुर को चूस कर, कर देता बरबाद।
कितना भी दे दीजिए, तृप्त न हो यह शख्स,
तो फिर यह दामाद है अथवा लैटर-बक्स।
अथवा लैटर-बक्स, मुसीबत गले लगा ली,
नित्य डालते रहो, किंतु ख़ाली का ख़ाली।
कह काका कवि, ससुर नरक में सीधा जाता,
मृत्यु समय यदि, दर्शन दे जाए जामाता।
यह तो कमाल हो गया! ऐसी घृणा तो किसी संस्कृति में न दिखेगी। दामाद अगर मृत्यु समय उपस्थित है तो उसे नरक मिलेगा। यह धारणा पूरे हिन्दू समाज में आज भी घुसपैठ किए हुए है। मुझे लगता है इसके मूल में सम्पत्ति और विरासत का मामला है। यह षड्यंत्र बेटों ने प्रारंभ किया होगा कि कहीं मरते-मरते पिताजी जीजा जी को जी से न लगा लें। हमारे हिस्से का उन्हें न थमा दें। दामाद को अत्यधिक चाहने वाला ससुर भी अंतिम समय में उसके दर्शनों से बचता है। औलाद ने जीते-जी नरक दिखा दिया, दामाद कहीं परलोक भी न बिगाड़ दे। ससुर कितना भी सुरीला क्यों न हो, दामाद नुकीला दिखाई देता है। आर्थिक पारिवारिक समीकरणों में साले-साली के मधुर लगने वाले सम्बंध भी गले तक गाली के हो जाते हैं।
ससुर बनना पिता बनने से बिल्कुल भिन्न है। पिता बनने में जहां आप प्रकृति की नियामत के रूप में अपने बालकों को प्राप्त करते हैं। ससुर उस प्राप्ति को गैर प्राकृतिक लेकिन पारंपरिक और सांस्कृतिक रूप से प्राप्त करता है। जो बालक दामाद बन कर अथवा बालिका बहू बनकर उसके घर में आए वे प्रकृति ने नहीं दिए, प्रकृति की आवश्यकताओं ने दिए। वे लोग महान होते हैं जो प्राकृतिक प्राप्ति और पारंपरिक प्राप्ति में भेद नहीं करते। औलाद और बहू-दामाद दोनों को समान प्यार देते हैं। आदरास्पद होते हैं। ऊंच-नीच को ढकने के लिए चादरास्पद हो जाते हैं और रक्त सम्बंध न होने के बावजूद फादरास्पद बने रहते हैं। बहरहाल, अन्य सम्बंधों की तुलना में यह सम्बंध मधुर होता है।
गावों में प्राय: कम उम्र में ही ससुर बनने का अवसर मिल जाता है। दामाद दोस्त बन जाते हैं लेकिन बहुएं बेचारी घबराई रहती है। किसी अनुभवी और पारदर्शी लोक-कवि ने कहा था –
‘जिधर बहू कौ पीसनौ, उधर ससुर की खाट।
निवरत आवै पीसनौ, खिसकत आवै खाट’।
बहू चक्की पीस रही है, पुत्र गया हुआ है खेत पर और ससुर घर पर हुक्का गुड़गुड़ा रहे हैं। जैसे-जैसे पीसना खत्म हो रहा है, वैसे-वैसे ससुर जी अपनी खाट खिसकाते ला रहे हैं।
हमारे समाज के पारिवारिक परकोटों में कितने दैहिक अपराध होते हैं, उसका लेखा-जोखा उपलब्ध करना असंभव है। प्रतिष्ठा और झूठी मर्यादाओं की दुहाई के कारण महिलाएं प्राय: बोलती नहीं हैं। मामले को दफन करने के चक्कर में कई बार बहू के लिए कफ़न खरीदना पड़ जाता है। बहुएं आत्महत्या करती हुई पाई जाती हैं न कि दामाद।
ससुर की भूमिका महत्वपूर्ण रहती है। मैंने पहले ही कहा कि ससुर दो प्रकार के होते हैं-- एक लड़के का और एक लड़की का। लड़के का ससुर है अधिक मानवीय होता है और लड़की का ससुर होते ही न जाने कौन सी हमारी परंपराएं हैं जो उसके ज़हन को प्रदूषित कर देती हैं। लड़की के ससुर को लड़के के ससुर जैसा बनना चाहिए। ऐसा मैं मानता हूं। ससुर लोग ऐसा मानेंगे तो स्वर्ग में जाएंगे, अगर स्वर्ग कहीं होता हो।
--अशोक चक्रधर
10 comments:
गुरुदेव, आज तो आपकी चर्चा मात्र ससुर तक ही रह गई. असल मेँ कुछ ससुर स-सुर न होकर असुर हो जाते हैँ.
ससुर के सुर मेँ सुर मिलाना दामाद के लिये घातक तभी होता है, जब उसके साले -सालियां सुरा के प्रभाव मॆँ हों. ससुर भी गम भुलाने के लिये कभी कभी इस रास्ते भटक जाता है और सुरापान करके ससुर से स-सुरा हो जाता है.
घर जमाई तो एक तरह से 'ससुर दास ' होता है. परंतु यदि ससुर पैसेवाला हो तो दौलत की चमक मेँ दामाद भी ससुर दास से सूरदास हो जाता है.
अरविन्द चतुर्वेदी.
भारतीयम्
क्या ससुर पुराण का पाठ हुआ है, आनन्द विभोर हो गए.
साथ में जो ससुर के असुर अवतार की बात की है, उसके बारे में क्या कहें? ससुर पिता न सही पिता समान होता है, फिर जिसकी जैसी मति.
आदरणीय अशोक जी..
व्यंग्य गुदगुदाता रहा। "दूर जमाई आवक भावक" टाईप जवाई ठहरे हम किंतु इत्तिफाक है कि "ससुराल की रोटियां मीठी मालूम होती हैं, पर उनसे बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है"। इस पूरे सच का आधा वाक्य कह कह कर जीवन सुधारा जा सकता है।... :)
हिन्दी ब्लॉग जगत में आप एक पथ-प्रदर्शक की तरह अवतरित हुए है। कई नवोदित परसाईयों को आप की लेखनी के प्रकाश से राह मिल ही जाये।
*** राजीव रंजन प्रसाद
अच्छा लगा पढ़कर ...बधाई
बढ़िया आलेख। आप अपने चिट्ठे को जस्टिफाई ना करें, फायरफॉक्स में नहीं पढ़ा जाता।
राग
गुरुदेव कहा से शुरु किया,और कहा खत्म मजाक मजाक मे सारी कह गये और कहा कुछ नही,ये आप ही कर सकते हो
सोने पे सुहागा काका की भी कविताओ की याद ताजा करादी
शोक का हरण कीजिये भैया अशोक.
मै तो इस दामाद लीला से अभिभूत हूं.
पहले से ले लेता हूं केयर
बना रहूं ससुर जी का डियर
बांग्ला में कहते हैं एक कहावत
मछ्ली और दामाद में तीन दिन बाद
दुर्गंध आने लगती है...
सो निकल लेता हूं ..दो दिन में
लौट आता हूं अपने शहर
यहीं होती है...इत्मीनान से गुज़र-बसर
पर फ़िर भी मान गये आपको गुरूवर
क्या अनछुआ उठाया आपने मैटर
इसीलिये धन्य धन्य आप
सुकवि अशोक चक्रधर
मज़ा आ गया ससुर-पुराण पढ़ कर. बहुत-बहुत धन्यवाद!
चक्रधर जी काफी समय बाद आपका एक व्यंग जो कि ह्दय को छू गया कि आपने अपने व्यंग के माध्यम से समाज का एक कटु सत्य सबके सामने प्रकट कर दिया । उसके लिये हार्दिक धन्यवाद ।
शशिकान्त अवस्थी
पटकापुर कानपुर
Arvind Chaturvedi's comment was really very good and creative !!!!!
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