Friday, August 03, 2007

जंगल-गाथा: पार्ट-वन



एक नन्हा मेमना
और उसकी मां बकरी,
जा रहे थे जंगल में
राह थी संकरी।
अचानक
सामने से
आ गया एक शेर,
लेकिन अब तक तो
हो चुकी थी बहुत देर।
भागने का नहीं था
कोई भी रस्ता,
बकरी और मेमने की
हालत ख़स्ता।
उधर शेर के कदम
धरती नापें,
इधर ये दोनों थर-थर कांपें।
अब तो शेर आ गया
एकदम सामने,
बकरी लगी जैसे-तैसे
बच्चे को थामने।
छिटक कर बोला
बकरी का बच्चा-
शेर अंकल!
क्या तुम हमें खा जाओगे
एकदम कच्चा
शेर मुस्कुराया,
उसने अपना भारी पंजा
मेमने के सिर पर फिराया-
हे बकरी कुल गौरव,
आयुष्मान भव!
चिरायु भव!
दीर्घायु भव!
कर कलरव!
हो उत्सव!
साबुत रहें तेरे सब अवयव।
आशीष देता ये पशु-पुंगव-शेर
कि अब नहीं होगा कोई अंधेर।
उछलो, कूदो, नाचो
और जियो हंसते-हंसते
अच्छा बकरी मैया नमस्ते!
इतना कहकर शेर
कर गया प्रस्थान,
बकरी हैरान-
बेटा ताजुब है,
भला ये शेर किसी पर
रहम खाने वाला है,
लगता है जंगल में
चुनाव आने वाला है।

17 comments:

संजय बेंगाणी said...

क्या बात है!
बहुत दिनो बाद चिट्ठाजगत पर आगमन हुआ मगर पुरे रंग के साथ. खुब व्यंग्य किया है.

kamlesh madaan said...

बचपन से आज तक आप्को दूरदर्शन पर देखता आया हूँ. आपका ब्लाँग पड्कर वो दिन याद आ गये. क्या आपको याद आये?
आपसे जुडने का ख्याल ही रोमांचित कर देने वाला है लेकिन आप नारद से जुडे रहें अच्छा लगेगा !

Udan Tashtari said...

बहुत बढ़िया. मजा आ गया, भाई साहब.

--समीर लाल

पंकज सुबीर said...

आदरणीय उस दिन श्री पवन जैन जी ने भोपाल में आपसे बात करवाई मैं धन्‍य हुआ। आपको सुनकर बड़ी हुई पीढ़ी का हूं अत: आपसे मिलकर तो न जने क्‍या हो । वैसे मैं भी एक कवि हूं कवि सम्‍मेलनों में जाता रहता हूं । मेरी कहानियां कादम्बिनी हंस वागर्थ ज्ञानोदय आदि में प्रकाशित होती रहती हैं । अप्रेल कादम्बिनी और मई ज्ञानोदय में मेरी कहानियां हैं । मेरा अपना ब्‍लाग http://subeerin.blogspot.com हैं आप कभी देखियेगा पवन जी के कुछ लेख हैं वहां पर । मेरा अंतरताना पता है subeerin@gmail.com इस पते से आपको कुछ पत्र भी भेजे हैं । आप संगणक के लिये हिंदी में कार्य कर रहे हैं बहुत अच्‍छा है । एक कवि सम्‍मेलन की भूमिका बंध रही है अगर बजट ने साथ दिया तो आपको याद करूंगा हो सके तो आपका चलित दूरभाष क्रमांक देने का कष्‍ट करें । आपका ही अनुज
पंकज सुबीर सीहोर

विष्णु बैरागी said...

अशोकजी,

आप देर से भी आए और दुरूस्‍त भी नहीं आए । आठवें विश्‍व हिन्‍दी सम्‍मेलन के ठीक बाद से आपका चिटृठा देख रहा हूं कि वहां की कथाएं, अन्‍तर्कथाएं पढने को मिलेंगी । लेकिन आप आए भी तो उन सबके बिना ।

आपकी कविताएं तो अनुपम होती ही हैं लेकिन आपका गद्य भी कम कमाल नहीं करता ।

विश्‍व हिन्‍दी सम्‍मेलन के अपने अनुभव परोसिए । अत्‍यधिक आतुरता से प्रतीक्षा है ।

ePandit said...

मजेदार, पहले कविता अजीब स‌ी लगी लेकिन अंत पढ़कर होंठों पर मुस्कान आ गई।

कटारे said...

आदरणीय अशोक चक्रधर जी नमस्कार । बहुत अच्छी कविता पढ़कर लगा कि सचमुच चुनाव आने वाला है। इसी संदर्भ में कुछ पंक्तियाँ आपको समर्पित हैं।
हर तरफ है तनाव क्या कहिये
आ गये फिर चुनाव क्या कहिये।
उनको भेजा था चुनके सालों को
आ गये उलटे पांव क्या कहिये ।
जिनको पूछा कभी न दमड़ी में
बढ़ गये उनके भाव क्या कहिये.
जोड़कर हाँथ आज मुसकाते
कितना मीठा स्वभाव क्या कहिये।
ईद पर मोह जैसा बकरे से
वैसा हमसे लगाव क्या कहिये।
जब भी मिलते हैं गले मिलते हैं
मन में जखते दुराव क्या कहिये।
http://www.vipannbudhi.blogspot.com
मेरा ब्लाग भी देखने की कृपा करें
धन्यवाद
शास्त्री नित्यगोपाल कटारे

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत बढिया! आज आप को यहाँ देख मन प्रसन्न हो गया । हम तो हमेशा आप को टी वी पर ही सुनते/देखते रहे हैं । बहुत बढिया रचना लिखी है। सचमुच हमारे नेता शॆर से कम थोड़े हैं ।बधाई।

sanjay patel said...

आदरणीय अशोक भाई...
अपने पोल खोलक यंत्र से न्यूयार्क की पोल खोलिये न.ज़रा हम हिन्दी वालों को आपके सुदर्शन चक्र का रंग भी तो देखने को मिले.

बसंत आर्य said...

what to say Ashokji, this whole poetry was presented in great laughter chalange by MAHA CHOR Perfomer Bhagvant Man. Aaskaran Atal has filed case against lifting his poetry in this programm in Mumbai. Please You too do something

Rajesh Roshan said...

क्या कटाक्ष है :)

प्रवीण परिहार said...

बहुत बढीया।
ताजुब है कि जंगल में भी शहर का कानून चलता है।

डॉ. अजीत कुमार said...

शायद वो सर्दियों की ही एक सुहानी सुबह थी....
पड़ा था मैं भी नाजुक से पत्तों पे ओस कि एक बूँद की मानिंद...
वहीँ बगल में , सुन रहा था शेर की सारी बातें।
और पास में वो पोल खोलक यन्त्र का नया version भी तो था...
तभी सूं-सूं की आवाज़ मैंने महसूस की।
शेर की गुर्राहट ? पर शेर तो खामोश था ...
प्यार मेमने से जता रहा था।
शायद मुँह में आते लार को,
अन्दर ही गटक जा रहा था....
मैंने सुना," बेटा, जिंदा रह, जब तक चुनाव होते हैं,
खुश रह, जबतक चुनाव होते हैं ,
क्योंकि तुम्हें ही तो निरावरण हो जाना है,
हमारे दरबारियों के सामने ,
सदेह नहीं वरन...
टुकडों में, प्लेटों मे सज जाना है.....

Poonam Agrawal said...

Bahut badhiya kataksh hai.sateek vaar kiya hai.
Apko ek lambe arse se sunte aaye hain.Iam a big fan of u.
Thoda sa main bhee likh leti huin .
Kabhi padiyegaa.Mera blog hai
poonamjainagrawal.blogspot.com

Yatish Jain said...

आपकी कविताओ का जायका आज भी वैसा है जुबा पर जैसा बचपन मे हुआ करता था, ब्लोगर पे आपकी उपस्थिती देख कर एसा लगा जैसे आप अभी भी ज़मीन के इन्सान हो. हम तो बचपन से ही आपके पन्खे है. कभी फुर्सत मिले तो आईयेगा हमारी भी गली, आपकी आलोचना हमे कुछ मार्ग दर्शन दे तो हम धन्य हो जायेगे...
www.yatishjain.com

Unknown said...

YEH KAVITA BAHUT ACCHI HAI.
MAZA AA GAYA.



SAGAR and SAKSHI JINDAL

राजीव तनेजा said...

बहुत बढिया कटाक्ष.....आज के नेताओं पर...

चुनाव का बिगुल बजे सही...

इनके चेहरे के भाव...
आचार-विचार सब बदल जाते हैँ...