आखिरी-आखिरी क्षण तक आफरीं-आफरीं होता रहा। मरहूम नुसरत फतह अली खान साहेब के गाने की तरह। बड़ी देर तक संगीत का प्रील्यूड, फिर लम्बे-लम्बे आलाप, उसके बाद सरगम के बोल, फिर आफरीं-आफरीं वे स्वयं गाएंगे, फिर गाएगी उनकी मंडली-- आफरीं-आफरीं, आफरीं-आफरीं। अंतरा कब आएगा खान साहब? यों आप अनंत काल तक आफरीं-आफरीं करते रहिए, सुरीला लगेगा, पर अंतरे पर आइए, अंतराल कम रह गया है।
तेरह जुलाई से सम्मेलन होना है। अभी आलाप ही चल रहा है। कौन जाएगा? कौन नहीं जा पाएगा। कौन मौन प्रतीक्षा में रत है? कौन महा प्रकार से रत है। किसमें नामों की सरगम में हेर-फेर करने-कराने की महारत है। वीज़ा कैसे लगेगा? टिकिट कहां से आएगी? आफरीं-आफरीं। आरोह के साथ एक अवरोह आया। राष्ट्रपति का चुनाव होना है। कोई भी मंत्री या सांसद अमरीका नहीं जा सकता। बिना नेताओं के सम्मेलन में क्या रौनक रहेगी। आफरीं-आफरीं। नेपाल, तिब्बत, भूटान, मॉरीशस जाना होता तो ऐसे झमेले न आते। जाना अमरीका है। किसका सफेद पासपोर्ट किसका नीला। अमरीका देश है नखरीला। जिनका वीज़ा नहीं लगा उनके लिए अखरीला। इसमें किसका दोष? ये तो ऊपर वाला जाने या ऊपर वाले जानें, लेकिन जैसी पूर्व तैयारियां मैंने पहले सम्मेलनों में देखीं वैसी इस बार दिख नहीं रही थीं। हालांकि यह भी सच है कि सम्मेलन प्रारंभ होने के बाद जैसी अफरा-तफरियां दूसरी जगह देखीं वैसी यहां नहीं दिखीं। पूर्व तैयारियों में कमी जरूर नज़र आई हो लेकिन सम्मेलन के दौरान अपूर्व तैयारियां थीं और तीन दिन तक सारी चीज़ें कायदे से सम्पन्न हुईं।
मुझे निकालना है ‘सम्मेलन समाचार’ हर दिन वहां की गतिविधियों का ब्यौरा देने वाला एक सोलह पृष्ठीय रंगीन समाचार-पत्र। उसी दिन के समाचार, उसी दिन। ‘सांध्य टाइम्स’ की तरह। तकनीकी सुविधाएं आने के बाद ऐसा काम करना अब कोई चमत्कार नहीं रह गया है। डिजिटल कैमरा हो, दो-तीन कम्प्यूटर और साथ में काम करने वाले दो-तीन निष्णात साथी हों, तो हो सकता है। लेकिन मेरे साथ विडंबना यह थी कि मेरे साथ काम करने वाले जो दो-तीन थे, उनका 10 जुलाई तक वीज़ा ही नहीं लगा था, मामला अधर में था। मधु गोस्वामी जी से कहा तो नहीं, लेकिन मैंने सोच रखा था कि अगर मेरे सहयोगियों को वीज़ा न मिला तो हाथ खड़े कर दूंगा। क्या फरक पड़ जाएगा अगर ‘सम्मेलन समाचार’ न निकला। मैं हर सत्र में शिरकत करूंगा। इस तटस्थ भाव से अपने साथियों को छोड़कर, ‘सम्मेलन समाचार’ के लिए सामग्री संकलन के उद्देश्य से दस तारीख को अकेला अमरीका के लिए निकल लिया। शेष लोग ग्यारह और बारह को आने वाले थे।
एअर इंडिया की उस फ्लाइट में सम्मेलन में भाग लेने वाले इक्का-दुक्का ही लोग थे। किसी सरकारी उपक्रम की ओर से भेजे गए होंगे। टीवी के कारण वे मुझे जानते थे, मेरा उनसे विशेष परिचय नहीं था। परिचित थीं तो श्रीमती मधु गोस्वामी। उनकी टिकिट बिज़नेस क्लास की थी, अपनी इकोनॉमी क्लास की। उन्होंने अपनी चिर परिचित शालीनता में पहले ही कहा था— ‘मेरी सीट पर आप चले जाइएगा अशोक जी, मैं आपकी सीट पर जाकर सो जाऊंगी।‘ मैंने उनकी सदाशयता के लिए धन्यवाद दिया पर भला उनका प्रस्ताव मान कैसे सकता था। वे बिज़नेस क्लास में चली गईं और स्थायी समिति के इस अस्थायी सदस्य को इकोनॉमी क्लास में अकेले बैठना पड़ा। याद आए पुराने सम्मेलन। लंदन वाले छठे सम्मेलन में जाते हुए जहाज की कॉकपिट से एक कविसम्मेलन संचालित किया था। सातवें सम्मेलन में सूरीनाम ले जाने वाला पूरा जहाज प्रतिभागियों से भरा हुआ था और हवाई जहाज में ही ‘सम्मेलन समाचार’ की आधी से ज्यादा सामग्री तैयार हो गई थी। हंसी-ठिठोली, इस सीट से उस सीट पर जाना, उस सीट से इस सीट पर किसी को बुलाना। साक्षात्कार लेना, फोटो खींचना। इस बार बैठे हैं मायूस और अकेले बैठे पी रहे हैं संतरे का जूस।
अमरीका में जेएफके एअरपोर्ट पर इंडियन कांसुलेट की ओर से लेने आए मिस्टर बैरी (परिवर्तित नाम)। गाड़ी मधु जी के लिए आई थी और मैं सौभाग्यशाली था कि मुझे उनके साथ होटल तक आने का मौका मिला। जो अन्य दो-तीन लोग होटल तक जाने के लिए वहां थे, उनके लिए कोई गाड़ी नहीं थी। पता नहीं किस तरह अपने आप पहुंचे होंगे। बैरी साहब एक विशुद्ध सरकारी कर्मचारी थे जो अपने अधिकारी को समुचित सम्मान देना जानते थे। मधु जी एक तो लम्बी हवाई-यात्रा के कारण अतिशय थकी हुई थीं, दूसरे बैरी साहब की अतिशय विनम्रता से थोड़े संकोच में थीं, मेरा कोई परिचय नहीं करा पाईं। बैरी साहब ने समझा ये कोई ख़ामखां किस्म का लप्पूझनझन है जो हमारी ऑफिसर की भलमनसाहत का नाजायज़ फायदा उठा रहा है। हवाई अड्डे से लेकर होटल तक मैं बैरी साहब की निगाहों से बरसती हिकारत का शिकार बैठा रहा। मैंने परवाह नहीं की। मुझे चिंता थी मधु जी की जो काफी अस्वस्थ दिख रही थीं।
होटल पेंसिल्वेनिया में पहुंचे। मेरी कल्पना थी कि वहां सम्मेलन के बैनर लगे होंगे, अमरीका में हिंदी देखने को मिलेगी, किसी एक कोने में कोई एक प्रतिभागी सहायता केन्द्र होगा जहां दूतावास के और भारतीय विद्या भवन के लोग मिलेंगे जो गले मिलेंगे। जिनके चेहरों की मुस्कानें कहेंगी-- आओ आओ हिंदी के उन्नायको, आओ। अमरीका की धरती पर होने वाले हिन्दी सम्मेलन में स्वागत है तुम्हारा। फिर हमें बिना किसी प्रतीक्षा के होटल के कमरे की चाबी थमा दी जाएगी, हमारा सामान कोई समर्पित कार्यकर्ता ऊपर ले जाने में मदद करेगा। लेकिन वैसा कुछ नहीं हुआ। मधु जी की तबीयत हवाई जहाज में ही ख़राब थी। होटल की लॉबी में बेचारी सिर झुकाए बैठ गईं। बैरी साहब होटल रिसेप्शन की लाइन में लगे, मधु जी का नाम होटल के रिकॉर्ड्स में था, कमरा मिल गया। अपना नाम ही नहीं था।
शायद ये बताया न जा सका हो कि मैं भी इसी उड़ान से आऊंगा। प्रतिभागियों को ग्यारह और बारह तारीख को आना था। बहरहाल, बैरी साहब लगे बड़बडा़ने। यह एक नया संकट आया। वे शायद समझते थे कि ये हमारी ऑफिसर के साथ जोंक सा चिपका हुआ है, होटल तक भी आ गया है, बाकी जहां इसको जाना होगा, इसका ठिकाना होगा, चला जाएगा। जब मधु जी से बैरी साहब को पता चला कि मुझे भी इसी होटल में ठहरना है और उन्होंने पाया कि वहां मेरा नाम कहीं नहीं है और अब मुझे कमरा दिलाने के लिए उन्हें कांसुलेट फोन करना पड़ेगा, फैक्स मंगाना पड़ेगा या ई-मेल कराना पड़ेगा और तब तक पता नहीं कितनी लाइनों में लगना पड़ेगा तो हुज़ूर की बत्ती बुझ गई। शानदार बात ये कि वे अपना आवेश छिपा भी नहीं रहे थे— ‘मैं तो फायनेंस का आदमी हूं। आज कहां फंस गया? ये मेरा काम नहीं है।‘ सरकारी कर्मचारी आम तौर से दफ्तर का समय होने के बाद एक मिनट भी रुकने में जितना विह्वल हो जाता है उससे दस गुना विह्वल हो गए बैरी साहब। मैं भी उनको बैरी नज़र आने लगा। पर वे तो मुझे अपनी नैया की अकेली पतवार नज़र आ रहे थे। भैया मेरे! पेंसिल्वेनिया नामक नैया तक ले आया है, तो पार भी लगा दे।
डेढ़-दो घंटे हमें लॉबी में बैठना पड़ा होगा। मधु जी की शालीनता यह कि वे बहुत समय तक बैठी रहीं। कमरे की चाबी पाने के बाद भी ऊपर नहीं गईं। देर अधिक होने लगी तो बोलीं—‘आइए अशोक जी सामान मेरे कमरे में रख दीजिए।‘ फिर कुछ और लोग भी मिल गए थे, जो आई सी सी आर और मंत्रालय की ओर से हमसे पहले ही वहां आए हुए थे। उन्हें प्रदर्शनियां सजानी थीं। आई सी सी आर के पदम तलवार और अजय गुप्ता, मंत्रालय के विनोद, उदय और मधु सेठी। बैरी साहब लाइन में लगे हुए थे। ज़ाहिर है मुझे कोस रहे होंगे। बेचारे! पर सच कहूं, मुझे उनसे सहानुभूति नहीं हो रही थी। वे अपनी निगाहों, आहों और कराहों से मुझे बहुत सता चुके थे। जो हो, मधु जी के कमरे में रखा सामान और इधर-उधर कमरों में शरण लेते हुए कुछ घंटे बिताए। मैं भूल चुका था कि बैरी साहब लाइन में लगे हैं मेरे लिए। याद आते ही मैं पंद्रहवीं मंज़िल से नीचे आया लॉबी में। बैरी साहब कमरे की चाबी लिए हुए मुझे ढूंढ रहे से। देखते ही बरस पड़े। वे आप से तुम तक आ चुके थे— ‘कहां थे? तुम्हें तलाशते हुए एक घंटा हो गया। कमाल है। किस तरह तुम्हारा काम कराया है, है कोई अंदाज़ा? रात भर लॉबी में पड़े रहते। ऑफिस में सबकी छुट्टी हो चुकी है और मैं यहां अटका हुआ हूं। ग़लती हो गई जो मैंने कह दिया एअरपोर्ट चला जाऊंगा। मैं फायनैंस का आदमी हूं, मुझे क्या मतलब इन सारे कामों से? ये पकड़ो कमरे की चाबी’। मैं अवाक उन्हें सुनता रहा। कहता भी तो ‘शुक्रिया’ के अलावा क्या कहता। वहां से निकल कर भी वे मुझे गालियां देते गए होंगे। मेरे कारण वे अटक गए थे, सम्मेलन में लगभग अंत तक अगर कोई व्यक्ति मुझसे नाराज, रूठा और टूटा नजर आया तो वे थे मियां बैरी। अल्लाह करें कि वो उन्हें इतनी शक्ति हासिल हो कि मेरे प्रति उनके मन में जो क्रोध आया होगा, उससे उन्हें निजात मिले। एक दिन तो सभी को ऊपर जाना है, मैं भी जाऊंगा, वे भी जाएंगे। जब वे ऊपर जाएं तो सुकून से जाएं।
अगले दिन ग्यारह तारीख को निकले मुआयना करने। भारतीय विद्या भवन में जयरामन जी के नेतृत्व में लगे हुए थे पांच-लोग, डिब्बों से निकाल रहे थे स्मारिकाएं। हमने खींच डालीं फोटो। अनूप भार्गव आ गए। वे एफटीआई के प्रांगण में ले गए जहां सब कुछ होना था। हेमंत दरबारी, पदम तलवार, बालेन्दु दाधीच और अजय गुप्ता स्थानीय लोगों के साथ प्रदर्शनियों की तैयारियों में लगे थे। केटी मर्फी एम्फी थिएटर देखा, हैफ्ट हॉल भी देखा। बड़े-बड़े सभागार, खाली-खाली कुर्सियां। मैं कल्पना करने लगा कि जब ये कुर्सियां हिन्दी-प्रेमियों से भरी होंगी तो कितना भव्य लगेगा। हिंदी पर चर्चाएं होंगी। इतने बड़े सभागारों में सेमिनार तो भारत में भी नहीं होते। चर्चाओं के नाम पर आप सौ-डेढ़ सौ लोग इकट्ठा कर लीजिए, बहुत बड़ी बात है। इतने सारे लोग शैक्षिक सत्र में चर्चाएं सुनेंगे एक अलग तरह की अनुभूति होगी।
फैशन इंस्टीट्यूट से पेंसिल्वेनिया होटल मात्र तीन मिनट का रास्ता है और दो बार फुटपाथ पार करना होता है। पेंसिल्वेनिया, मुख्य सड़कों में से एक सड़क पर, मुख्य होटलों में से एक होटल। चौबीस घंटे की चहल-पहल, चारों ओर लाइट्स, बड़े-बड़े पोस्टर्स, इलैक्ट्रॉनिक होर्डिंग्स। सड़क पर वही लोग बतियाते दिखते थे जो प्रेमी युगल के रूप में होते थे, अन्यथा किसी को किसी से कोई मतलब नहीं। तरह-तरह के चेहरे। गोरे, सांवले, काले, भूरे, गोल, लम्बे, चपटे, फूले, पिचके चेहरे। अगर इन सारे लोगों को किसी निर्जन भूमि पर खड़ा करके पूछें कि ये किस देश के नागरिक हैं तो कोई नहीं बता सकता कि ये किस देश के हैं। क्योंकि अमरीका में हर देश के लोग हैं।
एक बात और आपको बताना चाहता हूं जिस समय बैरी साहब लाइन में लगे थे उस समय मैं बालेन्दू दाधीच के साथ थोड़ी देर के लिए बाहर भी आया था। फोटोग्राफी के इरादे से। कुछ चित्र मैंने उनके खींचे तो कुछ उन्होंने मेरे। कुछ हम दोनों ने चारो तरफ के। एक दृश्य जिसने मुझे कुछ सोचने को बाध्य किया वो था पेंसिल्वेनिया होटल से तीन-चार इमारत आगे कोने के एक भवन पर नीली निओन लाइट्स में फ्यूज़ टीवी लिखा था। ये तो मैं नहीं जानता कि उस भवन के अंदर क्या था। रेस्तराँ हो, बार हो या संपूर्ण फ्यूज़ टीवी का ही कार्यालय हो, फ्यूज़ के मामले में कन्फ्यूज हूं, पर मैंने देखा कि उसके बाहर कभी-कभी एक कैमरा मैन अपने सहायक के साथ बैठा रहता था जो आते-जाते लोगों का साक्षात्कार लेता था। कभी कुछ गिटार-वादक वहां गाते-बजाते थे और आने जाने वालों को लुभाते रहते थे। पर आने जाने वालों को लुभाने वाले वे वादक नहीं थे, लाइट्स थीं जो फुटपाथ पर तैर रही थी। ‘फ्यूज़’ लिखा हुआ ऊपर दीवार से आता था और फुटपाथ पर एक आयाताकार यात्रा करता हुआ फिर ऊपर चला जाता था। फुटपाथ पर चलने वाले उस चलते फिरते ‘फ्यूज़ टीवी’ पर पैर रखकर आगे निकल जाते थे। विज्ञापन की टैक्स्ट बदलती रहती थी। यही तो तकनीकों का चमत्कार है।
हमने अपने देश में मुगल-ए-आजम में एक शीशमहल देखा। शेरो-शायरी में शीशे के मकानों का ज़िक्र सुना। शीशे लगे होते थे छत में या दीवार में। धरती पर शीशे नृत्यांगना की परीक्षा लेने के लिए तोड़ कर डाले जाते थे। जब हमारे यहां रंगीन फिल्में आना शुरू हुईं, तो फ्लोर के नीचे से भी लाइट्स दिखीं। देखकर हैरानी होती थी कि अरे कैसा कांच है जो डांस करने से टूटता ही नहीं। अब तो छोड़े-बड़े समारोहों में फैंसी लाइट्स और डीजे के कार्यक्रमों में ऐसे छोटे-छोटे फ्लोर बनाए जाने लगे हैं, जिनमें नीचे लाइट जलती हैं। पर यहां तो फुटपाथ पर वर्ण तैर रहे थे, लिखावट तैर रही थी, कंप्यूटर की कमांड से कोई भी टैक्स्ट फुटपाथ पर तैराई जा सकती थी। मैं सोचने लगा कि अगर हिंदी में कुछ लिखा होता तो कितना अच्छा होता। हिंदी नीचे से ऊपर जाती, ऊपर से नीचे आती, लेकिन फिर सोचा अगर हिंदी में ‘हिंदी’ लिखा होता तो क्या मैं फुटपाथ पर उसके ऊपर पैर रखकर जा सकता था? जैसे कि फुटपाथ पर सभी लोग ‘फ्यूज़ टीवी’ पर पैर रखकर जा रहे थे। नहीं, नहीं जा सकता था। मैं बचाकर चलता, मैं ‘हिंदी’ पर पैर नहीं रख सकता था। उसे दीवार पर चढ़ते हुए घंटों देख सकता था।
पेंसिल्वेनिया होटल आने तक, जिसमें कि केवल सौ मीटर की दूरी थी, मैंने सोचा कि हिंदी के मामले में हमारे दृष्टिकोण इसी प्रकार के हैं। या तो हम इसको इतना नीचा करके देखते हैं कि फुटपाथ पर पैरों तले आ जाए या उसे इतना ऊंचा चढ़ा देते हैं कि गर्दन ऊंची करनी पड़े और वह आपकी पकड़ में ही न आए। दो अतिवादी छोरों में जीते हैं हमारा लोग। हिंदी सम्मेलन भी इन दो अतिवादों का शिकार रहा। मुझे लगा कि बहुत सारे लोग वहां ऐसे थे जो आए तो हिंदी के लिए थे पर शायद उसे फुटपाथ की भाषा से ज्यादा नहीं मानते, दूसरे वे लोग जो उसे महानताओं की ऊंचाइयों में और अकल्पनीय क्षमताओं के साथ देखते हैं।
पेंसिल्वेनिया होटल आ गया। अब नई खेप आई है भारत से। हाय-तौबा। बुकिंग के बावजूद कमरे नहीं मिल रहे, व्यवस्था देखने वाला कोई नहीं। वहां भारतीय विद्या भवन और कांसुलेट के लोगों को होना चाहिए था। थे भी। रहे भी, लेकिन सामूहिक आक्रामकता से घबरा किसी कोने में या होटल के पोर्च में निरपेक्ष, निर्विकार। इतने लोगों को एक साथ कैसे संभालते! मैं जिन एक दो से परिचित था उनसे बतियाने लगा।
-- कुछ तो व्यवस्था हो ही सकती थी यहां। आप एक बैनर ही लगवा देते। अपनी भाषा में। एक हैल्प-डैस्क होती। अपने लोगों से अपनी भाषा में बात करते। अगर कहा जाता तीन घंटे प्रतीक्षा करनी है तो करते। किसी को कुछ भी नहीं मालूम है। सहायता क्यों नहीं की जा रही?
-- सब को सब कुछ मालूम है। अशोक जी ये अमरीका है। यहां एक तो बैनर आदि का चलन नहीं है, दूसरे लॉबी में जो रिसेप्शन है, वही हैल्प-डैस्क है। जब आपके बारे में सारी जानकारियां यहां दी जा चुकी हैं तो प्रतीक्षा कीजिए। लाइन में लगिए। यहां लाइन में लगने का धैर्य सीखना होगा। यहां एक स्वावलंबन होता है अशोक जी, व्यक्ति अपने आप सब कुछ करता है, बैसाखियों की आवश्यकता नहीं होती यहां।
-- दोस्त ये बैसाखियों का मामला नहीं है। ये तो आवभगत का मामला है। हिंदी के इतने विद्वान आए हैं। ये अपने देश के सबसे स्वाभिमानी लोगों में से हैं। इनकी आवभगत, मेजबानी में कमी नहीं आनी चाहिए।
-- स्वाभिमान तो है अशोक जी, लेकिन अविवेकी स्वाभिमान है। विवेक कहता है कि आप इक्कीसवीं सदी के नागरिक हैं। आपके लिए तमाम सारी सुविधाएं मुहैया की गई हैं। जब आप कमरे में जाएंगे तो आपको आनंद आएगा। बहुत अच्छे कमरे यहां बुक गए गए हैं। सेटल होते होते थोड़ा समय तो लगेगा।
मैं सामने थे दो शब्द-युग्म। एक ‘हृदयहीन स्वावलंबन’ और दूसरा ‘अविवेकी स्वाभिमान’। बारह की रात तक सब कुछ ठीक हो गया। सबके सींग कहीं न कहीं समा गए। तेरह की सुबह संयुक्त राष्ट्र संघ के सभागार में जाने के लिए सभी मुस्कानों से भरपूर, बेफिक्र, कंधे पर थैला लटकाए हुए।
उसके बाद क्या हुआ, हुजूर इसके लिए आपको पढ़ना पड़ेगा ‘सम्मेलन समाचार समग्र’। जाते-जाते एक बात और बता दूं। जो सज्जन एअरपोर्ट पर लेने आए थे, यानी अपने बैरी साहब, वे तीसरे दिन स्थायी समिति के सदस्यों को दैनिक भत्ते का लिफ़ाफ़ा बांट रहे थे। मेरे पास आए। बड़ी मुहब्बत से बोले— ‘ये लीजिए अशोक साहब! बड़ी मेहनत कर रहे हैं। लिफ़ाफ़ा थामिए और दस्तखत कीजिए।‘ मैंने कहा— ‘शुक्रिया ज़ुबैरी (अपरिवर्तित नाम) साहब! बहुत-बहुत धन्यवाद’!
Sunday, August 26, 2007
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5 comments:
ऐसा लगा हम भी आपके साथ अमरीका घूम कर आ गये. यही आपके शब्दों की ताकत है. गद्य हो या पद्य. मजा तो अनिवार्य है ही.
आपकी लेखनी का अपना स्टाइल है जो बहुत कुछ थोड़े में कह देता है…।
तीन दिन के अवकाश (विवाह की वर्षगांठ के उपलक्ष्य में) एवं कम्प्यूटर पर वायरस के अटैक के कारण टिप्पणी नहीं कर पाने का क्षमापार्थी हूँ. मगर आपको पढ़ रहा हूँ. अच्छा लग रहा है.
-ब्लेंक पोस्ट भी सब कुछ कह गई, भाई साहब,.
‘सम्मेलन समाचार’ को कई दिन तक एक एक कर देखा। आँखों देखा हाल -सा लगा। हिंदी के संदर्भ में महापुरुषों के कथन वाला जो भाग था ,इच्छा हुई कि इसे ज्यों का त्यों डेस्कटॊप पर वालपेपर-सा लगा कर सहेज लिया जाए। पर ऐसा कोई प्रावधान नहीं मिला। अभी तक यह लालसा शेष रह गई है।
आज उसी क्रम में इसे भी पढ़ा। सारी सामग्री के लिए धन्यवाद।
बढिया और दिलचस्प लगा , हिन्दी सम्मेलन को एक बार फ़िर से देखना । अगली कड़ियों का इंतज़ार रहेगा ।
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