Sunday, February 28, 2010

होली पर विशेष



मेल मिलाप कि अकेले विलाप


कॉलोनी की बहुमंज़िला इमारतों के बीच बने पार्क की एक बेंच पर बैठे दो बुज़ुर्गों में से पहले बुज़ुर्ग ने कहा— ‘आज हमारी बातचीत का विषय क्या होगा?’ दूसरे ने निर्विकार भाव से उत्तर दिया— ‘विषय विकार मिटाओ, होली की बात करो होली की। पहला बुज़ुर्ग मायूस मुद्रा में बोला— ‘चलो होली पर ही चर्चा कर लेते हैं।’ दूसरे ने निराशा में कहा— ‘चर्चा क्या करते हैं, आजकल होली पर लोग खुलकर खर्चा ही नहीं करते। पहले हम पर्चा बनाया करते थे, अपने कस्बे के नामी-गिरामी लोगों को शीर्षक-टाइटल दिया करते थे। आजकल न चर्चा है, न खर्चा है, न पर्चा है। होली को हम मेल-मिलाप का त्योहार मानते थे। अब वह अकेले विलाप का होकर रह गया है।’
‘तुम बड़ी निराशा भरी बातें करते हो यार! होली पर हुलास की बातें करो, उल्लास की बातें करो।’
‘हुलास और उल्लास तो तब आए जब कोई हम पर रंग डाले! इतनी देर से बैठे हैं, मलाल तो इस बात का है कि न किसी ने रंग डाला न गुलाल मला।’
दोनो बुढ़ऊ घर से निकल आये थे, क्योंकि उनकी औलादें होली के दिन भी अपने कारोबार में लगी थीं, घर के नौजवान कम्प्यूटर में आंखें गड़ाए हुए थे। कॉलोनी में दस पॉकेट हैं, हर पॉकेट में चार-चार ब्लॉक हैं। हर ब्लॉक ने अपनी होली का अलग-अलग आयोजन किया था। थोड़ी देर के लिए घर से निकलेंगे, रंग-गुलाल मलेंगे और जलेबी-कचौड़ी खाकर पन्द्रह मिनट में घर लौट आएंगे। इस तरह होली मन जाएगी।
‘अरे भैया, ये भी कोई होली है? अपने-अपने परकोटे में मना ली? आज मौका है सबसे मिलने का, उन सबको सुनाओ गाली, जिन्होंने पिछले साल किसी भी रूप में तुम पर तानी थी दुनाली। घर पर रहो तो लोगों को बुलाओ और सजाओ गुलाल और गुंजिया की थाली। दूर करो गिले-शिकवे। सूखे-सूखे रहने में क्या है, गीले-गीले रहो!’
‘क्या वक्त आ गया है बरख़ुरदार कि आज आदमी आदमी से बात करने में डरता है। पहले पूरा गांव, पूरा कस्बा, ढोल नगाड़े, खड़ताल-मंजीरे लेकर गली-गली घूमता था। लेकिन अब मिज़ाज बदल गया है। सोसायटी के लोग फुल वॉल्यूम में फिल्मी गाने लगाते हैं। दूसरों को शरीक नहीं करते। तरंग आई तो घर में ही नाचते गाते हैं। मनाते तो हैं त्योहार, लेकिन बदल गये हैं आचार-व्यवहार। महंगाई की मार भी उल्लास को पंचर कर देती है।’
दूसरे बुज़ुर्ग ने कहा— ‘चलो विषय बदलते हैं।’
‘क्यों बदलें विषय? सीनियर सिटीजन हो गए तो क्या जरूरी है कि सिर्फ दुख की बात करें। दुःख जीवन का स्थाई भाव नहीं होता। होली सुख का त्योहार है। इस महानगरीय जीवन शैली में हम कितने संकुचित होते जा रहे हैं। पड़ोसी के साथ भी होली खेलने में घबराते हैं। हां कुछ लोग हैं जो दमदारी से होली मनाते हैं, वे रंग डालने के बज़ाय रंगदारी ज्यादा दिखाते हैं।’
पार्क के दूसरे कोने में दूसरी बेंच पर दो नौजवान बैठे थे। एक चुप था दूसरा बोले जा रहा था। उसका मानना था कि हमारे संबंधों को कोई एक ओज़ोन लेयर बचाती थी। हम सारे देशवासी उसके कवच में झूमते गाते थे, त्योहार मनाते थे। अब व्यक्ति से लेकर देश तक जितनी भी ओज़ोन लेयर हैं उनमें छेद हो गए हैं। मौहब्बत की ऐसी पिचकारी चाहिए जो हर ओज़ोन लेयर को रिपेयर कर दे। वह बोले जा रहा था—

पति-पत्नी में बिलकुल नहीं बनती है, बिना बात ठनती है। खिड़की से निकलती हैं आरोपों की बदबूदार हवाएं, नन्हें पौधों जैसे बच्चे खाद-पानी का इंतज़ाम किससे करवाएं? होते रहते हैं शिकवे-शिकायतों के कंटीले हमले, सूख गए हैं मधुर संबंधों के गमले। नाली से निकलता है घरेलू पचड़ों के कचरों का मैला पानी, नीरस हो गई है ज़िंदगानी। संबंध लगभग विच्छेद हो गया है, घर की ओज़ोन लेयर में छेद हो गया है।
सब्ज़ी मंडी से ताज़ी सब्ज़ी लाए गुप्ता जी तो खन्ना जी मुरझा गए, पांडे जी कृपलानी के फ्रिज को आंखों ही आंखों में खा गए। जाफ़री के नए-नए सोफे को काट गई कपूर साहब की नज़रों की कुल्हाड़ी, सुलगती ही रहती है मिसेज़ लोढ़ा की ईर्ष्या की काठ की हांडी।
सोने का सैट दिखाया सरला आंटी ने तो कट के रह गईं मिसेज़ बतरा, उनकी इच्छाओं की क्यारी में नहीं बरसता है ऊपर की कमाई के पानी का एक भी क़तरा। मेहता जी का जब से प्रमोशन हुआ है, शर्मा जी के अंदर कई बार ज़बर्दस्त भूक्षरण हुआ है। बीहड़ हो गई है आपस की राम राम, बंजर हो गई है नमस्ते दुआ सलाम। बस ठूंठ जैसा एक मकसदविहीन सवाल है- 'क्या हाल है?' जवाब को भी जैसे अकाल ने छुआ है, मुर्दनी अंदाज़ में- 'आपकी दुआ है।'
अधिकांश लोग नहीं करते हैं चंदा देकर एसोसिएशन की सिंचाई, सैक्रेट्री प्रैसीडेंट करते रहते हैं एक दूसरे की खिंचाई। खुल्लमखुल्ला मतभेद हो गया है, कॉलोनी की ओज़ोन लेयर में छेद हो गया है।
बरगद जैसे बूढ़े बाबा को मार दिया बनवारी ने बुढ़वा मंगल के दंगल में, रमतू भटकता है काले कोटों वाली कचहरी के जले हुए जंगल में। अभावों की धूल और अशिक्षा के धुएं से काले पड़ गए हैं गांव के कपोत, सूख गए हैं चौधरियों की उदारता के सारे जल स्रोत। उद्योग चाट गए हैं छोटे-मोटे धंधे, कमज़ोर हो गए हैं बैलों के कंधे। छुट्टल घूमता है सरपंच का बिलौटा, रामदयाल मानसून की तरह शहर से नहीं लौटा।
सुजलां सुफलां शस्य श्यामलां धरती जैसी अल्हड़ थी श्यामा। सब कुछ हो गया लेकिन न शोर हुआ न हंगामा। दिल दरक गया है लाखों हैक्टेअर, परती धरती की तरह श्यामा का चेहरा सफेद हो गया है, गांव की ओज़ोन लेयर में छेद हो गया है।
जंगल कटे का सरमाया है, और बाक़ी सीमेंट की माया है कि इमारतें हो रही हैं हट्टी-कट्टी, उनसे अमरबेल जैसी लिपटी हैं झोंपड़पट्टी। गुमसुम गौरैया नहीं गाती है प्रभातियां, दफ्तरी वन्य-जीवन में दुर्लभ हो गई हैं ईमानदार प्रजातियां। एडल्ट मूवी देखता है चिरंजीवी, संस्कृति को चर रहा है केबिल टी.वी.। ए.सी. और कूलर में खुलती नहीं हैं खिडक़ियां, जलाऊ लकड़ी का संकट है इसलिए जलाई जाती हैं लडक़ियां। लीपापोती के लिए थाने की मेहरबानी है, म्युनिसपैलिटी के निजी नल में रिश्वत का पानी है। ईमानदारी का अकाल पड़ गया है, उन्माद के उद्योग के प्रदूषित कचरे से सद्भाव की नदी का पानी सड़ गया है। सदाचार, दुराचार, शिष्टाचार, भ्रष्टाचार, इन सारे शब्दों में अभेद हो गया है, शहर की ओज़ोन लेयर में छेद हो गया है।
काग़ज़ों पर खुद गई हैं नहरें, ड्रांइग-रूम में उठ रही हैं लहरें। राजनीति में सदाशय अनाथ है, चिपको आंदोलन कुर्सी के साथ है। इतने खोदे, इतने खोदे कि खो दिए राष्ट्रीय मूल्यों के पहाड़, पनप रहे हैं मारामारी के झाड़-झंखाड़। लाल सुर्ख़ बहती है हिंसा की नदी, ऐसे चल रही है इक्कीसवीं सदी।
अरे, ये कैसा वक्त आया है, मीडिया में एकता के अकाल की छाया है। हो रही है राष्ट्रीय सपनों की गैरकानूनी चराई, चल रही है धर्म के ठेकेदारों की चतुराई। नफरत रेगिस्तान की तरह छाती पर चढ़ रही है, आबादी का आंतक बढ़ रहा है और आतंक की आबादी बढ़ रही है। भावनाओं का आवेग प्रदूषित हो गया है, आंखों तक का पानी दूषित हो गया है।
'हिंदू मुस्लिम सिख ईसाई, आपस में हैं भाई-भाई।' सचमुच हैं भई, सचमुच हैं, लेकिन दिलों में दरारें आ गई हैं, आपस में भेद हो गया है, देश की ओज़ोन लेयर में छेद हो गया है।
वैसे घर की ओज़ोन लेयर है- कॉलोनी, मोहल्ला या गांव। गांव की ओज़ोन लेयर है- शहर। शहर की ओज़ोन लेयर है- देश। देश की ओज़ोन लेयर है- दुनिया। और मुझे इसी बात का ख़ेद है, कि हर ओज़ोन लेयर के छेद है। लाओ कोई ऐसी पिचकारी जो मदद करे हमारी। प्रांतीयता की हालत यहां तक आ गई है कि राष्ट्र से बड़ा महाराष्ट्र हो गया है।

तीसरी बेंच पर होने वाली बातचीत का मिजाज भी था तो तल्ख पर सुपर होली स्टाइल में था। एक युवा अपनी प्रेमिका को मोहक वाणी में बता रहा था— जैसे कि होली सेना के गुलाल ठाकरे को ही लो। अपनी होली को सबकी होली नहीं मानते! गुलाल ठाकरे का फ़रमान है कि कोई विदेशी हमारे आंगन के पिच पर होली नहीं खेल सकता। खास कर हमारा पड़ोसी देश और कंगारू। कंगारू इसलिए होली नहीं खेल सकते हैं क्योंकि उनकी पूंछ उनके पैर का काम करती है। गुलाल ठाकरे ने कहा है कि हम ऐसे किसी जंतु को नहीं चाहते जो पूंछ से पैर का काम लेता हो। पूंछ पर टिक कर खड़ा होता हो क्योंकि हमारे तो पूंछ है नहीं। जनता भी नहीं पूछ्ती है। गुलाल ठाकरे नहीं समझते कि होली तो रस की खान है। जनता ने भी ‘माई नेम इज रसखान’ फिल्म के प्रदर्शन के समय गुलाल ठाकरे की बातों को ठुकरा दिया। रसखान पर गुलाल ठाकरे कैसे पाबन्दी लगा सकते हैं। हमारे महान कवि हैं। राधा-कृष्ण के प्रेम पर उन्होंने कितने अच्छे सवैया लिखे।
होली के हुरियारों ने, पिचकारी पिचकारों ने, पिचकारों यानी पिच पर खेलने वालों ने गुलाल ठाकरे की बातों को सिरे से ख़ारिज कर दिया। तुम बहुत सूखे हो। तुम्हें रसखान में गोता लगाते हुए और पुरबिया भइयों के साथ फाग गाते हुए गीला होना पड़ेगा। तुम्हारा महत्व तभी तक है, जब तक रंगों का गीलापन बरकरार है। गीलेपन के साथ-साथ हे गुलाल ठाकरे, यदि अपने सूखेपन को बनाए रखोगे तभी लोग तुम्हें झेल पाएंगे। लेकिन तुम जिंदगी की गीली हलचल को खत्म कर दोगे तो होली का पिच मैच के योग्य किस तरह रह पाएगा। दिमागी घिचपिच मत बढ़ाओ।
बड़ी देर बाद लड़की बोली— तुम्हारी बातें मन से आधी ही समझ में आती हैं।
लड़का फिर शुरू हो गया— मनसे की समझ में तो बिल्कुल नहीं आतीं। गुलाल ठाकरे अभी भी अड़े हुए हैं, लेकिन होली के हुरियारों ने खेल के मैदान में सभी को आमंत्रित किया है। होली सभी को एक साथ मिलने-बैठने बतियाने का सुख देती है। गुलाल की तरह गुलाल ठाकरे का दबदबा बढ़ाने के लिए अभरक के चमकीले कण मनसे आ मिले हैं। राकापां भी कांपा गुलाल ठाकरे के सामने। दस मनपथ से आवाज आई कि भाई, ये बात अच्छी नहीं है कि इधर की खाओ मलाई, और उधर बढ़ाओ चिकनाई।
भैया गुलाल ठाकरे! एक बात का ख्याल रखना कि होली की शुरुआत ब्रज से हुई। भोजपुरी अंचल में होली गाई जाती है। बुंदेलखंड में ईसुरी के फाग जब ढोलक पर बजते हैं, तो आसमान भी झूमता है और धरती भी नाचती है। बनारस में होली गायन के दौरान गिरिजा देवी कजरी चैती गाती हैं तो गंगा का पानी हिलोरें लेता है। सबको बड़ी भाती हैं। लेकिन गुलाल ठाकरे! तुम्हारे महान राष्ट्र में जब ये पुरवैये प्रवेश करते हैं तो राष्ट्र से ज्यादा बड़ा महान-राष्ट्र हो जाता है तुम्हारा। तुम होली खेलने का मौका देने से वंचित कर देना चाहते हो। सबको होली मनाने दो। खइके पान बनारस वाला गाने दो। भंग का घोटा लगाने दो। ठुमका लगाने दो। क्या हुआ जो बिग एबीसीडी कुछ करना चाहते हैं! बिग ए से बिग जेड तक मस्ती जाए, गुलाल ठाकरे को न सताए।
होली में जितनी तरह के रंग प्रयोग में लाए जाते हैं, उतने ही रंग-गोत्र-वर्ण के लोग भारत में बसते हैं।
होली पर बरसाने में लुकाठी का प्रेमपूर्ण इस्तेमाल होता है। मान लो सचिन ने एक मन की सच्ची बात कह दी कि मैं तो होली के सब रंगों से मिलकर बनने वाले अपने देश का पहले हूं, प्रांतीय लुकाठी का बाद में, तो क्या गलत किया? हे गुलाल ठाकरे! होली पर सोच-समझ कर बयान देना।
गुलाल ठाकरे ने अपने सिंहासन पर बैठ कर रंग-बिरंगे हुरियारों की सारी बातें सुनीं और कहा कि अब मैं अपने सूखेपन के विरुद्ध लड़ूंगा। दरअसल जब से मातुश्री गईं हैं, होली मैं स्वयं नहीं खेल पाता हूं। गीलापन मेरे जीवन से चला गया है। मैं भारत के सभी रंगों को प्यार करता था, लेकिन लोग कहते हैं कि दंगों को प्यार करने लगा। दरअसल, यह मुझसे नहीं देखा जाता कि दूसरे जोड़े रस-रंग मनाएं और हम अकेले में आंसू बहाएं। इसलिए, मैं स्वयं से कहता हूं कि स्थितियों का सामना करो, सामना के जरिए किसी दूसरे का साम-दाम-दण्ड-भेद मत बिगाड़ो।
बाला बोली— उलझा-उलझा कर सुलझी-सुलझी बातें करने का कौशल तुम्हें खूब आता है, पर बाय-द-वे बता दूं कि पार्क में बिठाकर मुझे बोर कर रहे हो। होली मनानी है तो चलो यहां से। जितने तुम्हारे दोस्त हैं उनके यहां चलेंगे। फिर मैं ले चलूंगी अपनी सहेलियों के यहां।
बालक बोला— चलो, पहले तुम्हारी सहेलियों के यहां चलते हैं।

3 comments:

डॉ टी एस दराल said...

होली पर बहुत सही बातें कहीं हैं आपने ।
बहरहाल , अभी तो सब होली के रंग में रंगे हैं।
और होली त्यौहार है --

रंगों का , उमंगों का
खाने खिलाने का , हंसने हंसाने का
मिलने मिलाने का , और सबको
प्रेम से गले लगाने का ।

होली की हार्दिक शुभकामनायें, अशोक जी ।

दीपक 'मशाल' said...

sir aapse vishesh aagrah hai...
इस बार रंग लगाना तो.. ऐसा रंग लगाना.. के ताउम्र ना छूटे..
ना हिन्दू पहिचाना जाये ना मुसलमाँ.. ऐसा रंग लगाना..
लहू का रंग तो अन्दर ही रह जाता है.. जब तक पहचाना जाये सड़कों पे बह जाता है..
कोई बाहर का पक्का रंग लगाना..
के बस इंसां पहचाना जाये.. ना हिन्दू पहचाना जाये..
ना मुसलमाँ पहचाना जाये.. बस इंसां पहचाना जाये..
इस बार.. ऐसा रंग लगाना...
(और आज पहली बार ब्लॉग पर बुला रहा हूँ.. शायद आपकी भी टांग खींची हो मैंने होली में..)

होली की उतनी शुभ कामनाएं जितनी मैंने और आपने मिलके भी ना बांटी हों...

Ashok Chakradhar said...

दराल, दीपक और द टाइगर,
मैंने सही लिखा है अगर
और आपको ठीकठाक लगा है,
तो इसका मतलब है आपके मन में
होली की आस्था से प्यार जगा है।
होली की मंगलकामनाएं।