Monday, March 01, 2010

होली पर विशेष

तू भी रह और महंगाई को भी रहने दे

कुछ मुद्दे ऐसे होते हैं जो कभी बासी नहीं होते, अच्छे-ख़ासे बने रहते हैं। पैंतीस साल पहले जब मैं डीटीसी की बसों में, झोला कंधे पर टांगे, यात्रा किया करता था, उन दिनों भी महंगाई बढ़ रही थी। आज भी उसकी बढ़त जारी है। बस में चढ़ते समय एक विचार ज़ेहन में आया था और कुछ लाइनें मैंने बस में ही गढ़ ली थीं—
बड़ी देर के बाद जब बस आई,
तो सारी भीड़
दरवाजे की तरफ धाई।
सब कोशिश कर रहे थे
इसलिए कोई नहीं चढ़ पा रहा था,
और पीछे खड़े एक आदमी को
बड़ा गुस्सा आ रहा था।
बोला--
अरे क्यों शर्माते हो
लुगाई की तरह,
चढ़ जाओ
चढ़ जाओ
महंगाई की तरह।

बस में धक्के खाते और धकियाते हुए तेज़ी से चढ़ना उस समय एक कौशल हुआ करता था, और महंगाई भी बड़े कौशल से चढ़ रही थी। अलग-अलग समय पर अलग चीजों के दाम बढ़ते रहे। मुई प्याज के बढ़ते दामों के कारण तो दिल्ली में सरकार ही बदल गई थी। उन दिनों मैंने प्याज का एक पहाड़ा लिखा था—

प्याज़ एकम प्याज़,
प्याज़ एकम प्याज़।

प्याज़ दूनी दिन दूनी,
कीमत इसकी दिन दूनी।

प्याज़ तीया कुछ ना कीया,
रोई जनता कुछ ना कीया।

प्याज़ चौके खाली,
सबके चौके खाली।

प्याज़ पंजे गर्दन कस,
पंजे इसके गर्दन कस।

प्याज़ छक्के छूटे,
सबके छक्के छूटे।

प्याज़ सत्ते सत्ता कांपी,
इस चुनाव में सत्ता कांपी।

प्याज़ अट्ठे कट्टम कट्टे,
खाली बोरे खाली कट्टे।

प्याज़ निम्मा किसका जिम्मा,
किसका जिम्मा किसका जिम्मा।

प्याज़ धाम बढ़ गए दाम,
बढ़ गए दाम बढ़ गए दाम।

जिस प्याज़ को
हम समझते थे मामूली,
उससे बहुत पीछे छूट गए
सेब, संतरा, बैंगन, मूली।

प्याज़ ने बता दिया कि
जनता नेता सब
उसके बस में हैं आज,
बहुत भाव खा रही है
इन दिनों प्याज़।

प्याज के साथ घर में सब्जियों में भी कटौती होने लगी। पप्पू अपने टिफिन के लिए परेशान रहने लगा कि कहां तो मम्मी चार-चार तरह की चीजें रख कर स्कूल भेजा करती थी, अब अचार रखने में भी समस्या आने लगी। जो नजारा सामने आया वह एक कुंडलिया छंद में बदल गया—
मम्मी से कहने लगा, पप्पू हो लाचार,
तुमने मेरे टिफिन में रक्खा नहीं अचार।
रक्खा नहीं अचार, रोटियां दोनों रूखी,
उतरी नहीं गले से मेरे, सब्ज़ी सूखी।
होली पर मां की आंखों में आई नम्मी,
टिफिन चाट गई सुरसा, महंगाई की मम्मी।

जब-जब सरकार को नीचा दिखाना होता है या चुनाव आना होता है तब महंगाई ऐजेण्डे में कूद कर सबसे ऊपर जा बैठती है। बढ़ी महंगाई के कारण आम आदमी को राहत देने के लिए लुभावने बजट बनाए जाते हैं। वह मौका भी होली का था जब मैंने पिछली सरकार के रहते चुनावों और बजट के समय एक कुण्डलिया छंद बनाया था--

गाई सबने आरती, हो गई जय जय कार,
दोऊ हाथ उलीच कर, खूब किया उपकार।
खूब किया उपकार, बजट है वोट-बटोरू,
ढोल नगाड़ों में गुमसुम गरीब की जोरू।
क्या कर लेंगे यदि अपनी सरकार न आई,
अगली गवरमैंट ही झेलेगी महंगाई।

बहरहाल फिर होली आ गई है। किस तरह का रोना? होली का त्यौहार है कुछ ऐसी स्थितियों का होना, जिसमें दुःख में सुख मनाओ, रोते-रोते भी गाओ। मौका ऐसा है कि जिसे भी गरियाना हो गाते हुए गालियां सुनाओ। सर र र र करती हुई गालियां उसके कान में अर र र र कर देंगी। सोचने को मजबूर तो करेंगी। तो आइए, बैठ जाइए। गाइए हमारे साथ सर र र र। ये सर र र र कहीं जोगीड़ा के रूप में, कहीं कबीरा के रूप में पूरे हिन्दी अंचलों में गाई जाती है। उठाइए ढोलक और हो जाइए तैयार। समझिए स्वयं को नारी। चलिए गाते हैं--

दीखै उजलौ उजलौ अभी, निगोड़े पर र र र,
दूंगी सान कीच में कान-मरोड़े अर र र र।
कै होरी सर र र र।

बन गई महंगाई इक लाठी, तन पै कस कै मारी रे,
बढ़ि गए दाम सबहि चीजन के, म्हौं ते निकसैं गारी रे।
होरी पै महंगाई आज, दुखी है घर र र र।
कै होरी सर र र र।

महंगाई बढ़ती है तो बाई प्रोडक्ट के रूप में दूसरी चीजें भी बढ़ जाती हैं। दहेज के रेट अकल्पनीय रूप से बढ़ रहे हैं। हमारे पास तो गाली गाने का मौका है—

दूल्हा बेच, रुपैया खैंचे, जामें हया न आई रे,
छोरी बारे के बारे में, जामें दया न आई रे।
पीटौ खूब नासपीटे कूं, बोलै गर र र र,
कै होरी सर र र र।

महंगाई ही बढ़ाती है जात-पांत की भावना। आप पूछेंगे ऐसा कैसे? हम बताते हैं आपको कि ऐसे—
डारौ जात-पांत कौ जहर, भंग जो तैनें घोटी रे,
नंगे कू नंगौ का करैं, खुल गई तेरी लंगोटी रे।
नेता बन मेंढक टर्रायं, टेंटुआ टर र र र,
कै होरी सर र र र।

सामाजिक संबंधों के साथ-साथ प्रेम संबंध भी दरकने लगते हैं। कभी प्रेमिका तो कभी प्रेमी दूसरी तरफ सरकने लगते हैं। ऐसे सरकने वाले तू भी सुन ले—

छेड़ै भली कली गलियन में, जानैं भली चलाई रे,
तोकूं छोड़ गैर के संग, भग गई तेरी लुगाई रे।
डारै दूजी कोई न घास, धूर में चर र र र,
कै होरी सर र र र।

उधार लेना बन जाता है मजबूरी, लेकिन चुकाना थोड़े ही है जरूरी। होलिका दहन के समय लाला के बहीखाते किस काम आएंगे। पहले ही बता दिया है, लाला सुन ले—

भूली मूल, ब्याज भई भूल, दई दिन दून कमाई रे,
लाला ये लै ठैंगा देख, कि दिंगे एक न पाई रे।
बही-खातौ होरी में डार, चाहे जो भर र र र,
कै होरी सर र र र।

अब अकेले की आमदनी से काम नहीं चलता। घर की नारियों को भी काम पर जाना होता है। बहु घर से निकलती है तो सासू का मनुआ रोता है। सासू तेरे लिए भी कुछ मीठे बोल हैं—

सासू बहू है गई धांसू, आंसू मती बहावै री,
घर ते भोर भए की खिसकी, खिसकी तेरी उड़ावै री।
बल बच गए, मगर रस्सी तौ गई जर र र र,
कै होरी सर र र र।
नारी काम पर जाए और नर घर बैठ कर मौज करे, ऐसे नजारे भी कम नहीं हैं। ऐसे लोगों की गाली पाचन शक्ति बड़ी प्रबल होती है, फिर भी कहने में क्या हर्ज है—

गारी हजम करीं हलुआ सी, ललुआ लाज न आई रे,
तोकूं बैठी रोट खबाय, बहुरिया आज न आई रे।
नारी सच्चेई आज अगारी, पिट गए नर र र र।
कै होरी सर र र र।

महंगाई स्वयं एक नारी है, पिटेगी कैसे? महिला सशक्तीकरण के दौर में महंगाई से घबराना नहीं है। दो ही तरीके हैं या तो लड़ो या ज़्यादा काम करो।

जो मेहनत करी, तेरा पेशा रहेगा,
न रेशम सही, तेरा रेशा रहेगा।
अभी करले पूरे, सभी काम अपने,
तू क्या सोचता है, हमेशा रहेगा।

और प्यारे जब तू ही नहीं रहेगा तो महंगाई कहां रहेगी, इसलिए अच्छा ये है कि तू भी रह और महंगाई को भी रहने दे।

3 comments:

डॉ टी एस दराल said...

वाह वाह अशोक जी। आज तो फुर्सत में मालामाल कर दिया आपने ।
एक से एक मनोरंजक रचनाएँ। आभार।

Rahul Priyadarshi 'MISHRA' said...

बस ये सुन लीजिये....मिजाज खुश हो गया.....

KESHVENDRA IAS said...

Chakradhar saheb..bahut hi sunder vyanya hai Mahngai ke upar...badhai ho.