Tuesday, October 19, 2010

चंपू चक दे फट्टे

—चौं रे चम्पू! सबते मधुर और सबते ख़तरनाक चीज कौन सी ऐ, बता।
—परीक्षा लेते रहते हो चचा! अपने एकदम ताजा अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि सबसे मधुर और सबसे ख़तरनाक होती है भोर की बेला में यानी सुबह साढ़े चार से साढ़े पांच के बीच आने वाली चार सैकिण्ड की झपकी। संसार में सबसे ज्यादा सड़क दुर्घटनाएं इसी काल में होती हैं। यह झपकी देर से किए गए भोजन और थकान के कारण आती है। इतनी मधुर होती है कि इसका रोकना असम्भव सा हो जाता है। परिणाम ख़तरनाक होते हैं। मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ दो दिन पहले।
—का भयौ तेरे संग?
—मैं गया था कानपुर एक कविसम्मेलन में। कानपुर की देर तक कविसम्मेलन चलने की परम्परा देखते हुए मैंने अपना आरक्षण ए.सी. प्रथम श्रेणी में कराया, पांच बजकर अठारह मिनट पर चलने वाली स्यालदाह राजधानी से। कुछ कवियों को ढाई बजे वाली राजधानी एक्सप्रेस से राजधानी लौटना था। संचालक सुरेंद्र शर्मा का आरक्षण भी उसी में था, सो दो बजे ही कार्यक्रम समाप्त करवा दिया उनकी रेल ने। हमें थे तीन घंटे और झेलने। खैर जी, पांच बजकर पांच मिनट पर अपन प्लेटफॉर्म नम्बर वन पर थे। सूचना बोर्ड बता रहा था कि गाड़ी इसी प्लेटफॉर्म पर ही पांच बजकर तेरह मिनट पर आएगी। मैं अपनी अटैची और एक छोटा बैग अपने पैरों के पास रखकर एक बेंच पर बैठ गया। पांच बजकर नौ मिनट पर मुझे वही पांच सेकिण्ड वाली झपकी आई। इस बीच घोषणा हुई कि तेईस तेरह स्यालदाह राजधानी प्लेटफॉर्म वन के स्थान पर दो पर आ रही है और चचा मैं वह उदघोषणा सुनने से चूक गया। गाड़ी मेरे सामने समय पर आई और मेरे सामने ही निकल गई। कुली से पूछा कि है कोई गाड़ी दिल्ली के लिए? उसने बताया तीन नम्बर प्लेटफॉर्म पर खड़ी भुवनेश्वर राजधानी दिल्ली जाएगी। मैं लबड़-धबड़ सीढ़ियां चढ़ और उतर कर प्लेटफॉर्म तीन पर आया। अधिकांश डिब्बों के दरवाजे बंद थे। चार-पांच लोगों से घिरे एक टीटी महोदय झल्लाते हुए बता रहे थे कि किसी क्लास में कोई जगह नहीं है। वेटिंग टिकिट वाले चढ़ने की कोशिश न करें। अचानक एक नौजवान ने मेरा सामान लिया और पैंट्रीकार में ऊपर चढ़ गया। वह मेरा प्रशंसक एक वेटर था।
—बन गयौ तेरौ काम!
—हां चचा बन गया। पैंट्रीकार में रात्रिकालीन सेवाओं के बाद वेटरों के सोने के लिए पुराने थ्री टायर डिब्बे जैसे लकड़ी के फट्टे लगे होते हैं। मेरा प्रेमी वेटर मुझे बिठाकर टीटी महोदय को ढूंढने निकला। तभी एक दूसरा वेटर नींद से उठा और सामान सहित मुझे देखकर कहने लगा, नहीं-नहीं, यहां नहीं बैठ सकते, उतर जाइए। मैंने मजाक में कहा भैया मैं यात्री नहीं हूं पैंट्रीकार में नई-नई नौकरी लगी है, बताओ किस डिब्बे में चाय पहुंचानी है? वह कंफ्यूज हो गया। दूसरे वेटर उठे उनमें से दो-तीन मुझे पहचान गए। एक कहने लगा, सर ऊपर आराम से लेट जाइए। मैं ऊपर चढ़कर लकड़ी के फट्टे पर लेट गया।
—चम्पू! तेरी तौ चक दे फट्टे है गई।
—ए.सी. प्रथम श्रेणी में उत्कृष्ट कोटि की व्यावसासिक सेवाएं मिलती हैं, लेकिन पैंट्रीकार के फट्टे पर जो प्यार मिला उसका वर्णन करना मुश्किल है चचा। बीस साल पुराने दिन याद आ गए जब रेलगाड़ी में आरक्षण ना होने पर फट्टे पर बैठ कर रात निकाली जाती थी। लेटने को मिल जाए तो बल्ले-बल्ले हो जाती थी। मुझे ए.सी. प्रथम श्रेणी से ज्यादा मजा आया चचा। टीटी महोदय भी पुराने प्रेमी निकले। उनके हाथ में कानपुर से लिया हुआ अख़बार था जिसमें दीपप्रज्ज्वलन के समय मंत्री जी के साथ खड़े आपके चम्पू की तस्वीर भी थी। मैंने उन्हे टिकिट दिखाई और नई बनाने का अनुरोध किया। वे मुस्कुराते हुए बोले बना देंगे, पर अभी आप बी-सिक्स में मेरी बर्थ पर जाकर सो जाइए। मैंने कहा चला जाऊंगा, अभी अपने वेटर मित्रों का आतिथ्य प्राप्त कर लूं। मेरे लिए बिना चीनी की चाय आने वाली है। लेकिन चचा चाय आने से पहले ही मैं ऐसी मधुर झपकी का शिकार हुआ जो नींद में बदल गई। सपने में क्या कर रहा था पता है?
—बता!
—यात्रियों को भोजन परोस रहा था।

7 comments:

Khare A said...

जय हो गुरु श्रेष्ठ जी कि
मजा आ गया , लाइफ टाइम एक्स्पीरिएंस बतला दिया गुरु जी
एक दम धारा प्रवाह , मैं तो एक ही सांसन में पढ़ गयो गुरु जी
मजा आगया

Parul kanani said...

:)jindagi aise hi anubhawon se khushgawaar bhi ho jati hai :)

Anand Rathore said...

bahut badhuya..maja aa gaya..

डॉ टी एस दराल said...

बड़ा मजेदार अनुभव रहा यह भी ।
वैसे मैं अक्सर सोचता हूँ कि ये कवि लोग इतनी मुश्किल और खतरों से भरी नाईट ड्यूटी क्यों करते हैं ?
अशोक जी , समय मिले तो इस पर लिखियेगा ज़रूर ।

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

‘—मैं गया था कानपुर एक कविसम्मेलन में। ’

अब तेरा क्या होगा कालिया :)

vijai Rajbali Mathur said...

Purani kahavat hai -JAHAN NA PAHUNCHE RAVI VAHAN PAHUNCHE KAVI.
Dr. saheb isiliye Ashok ji ne bhi sachche pyar ka anand liya.

Unknown said...

प्रेम की सच्ची कीमत सिर्फ कवि हीं जानता है। मज़ा आ गया पढ़ कर। मालूम नहीं था कि आप चिट्ठाकारी भी करते हैं।
गौतम कुमार