Thursday, June 14, 2007

सिल से सिलीकॉन तक संदेशों के सिलसिले

आपके दोनों हाथों में नन्हा सा मोबाइल है। दोनों अंगूठे अपने अनूठे अंदाज़ में द्रुत गति से एसएमएस संदेश टाइप कर रहे हैं। मैसेज सैंड कर लीजिए, फिर मैं आपको एक दृश्य दिखाता हूं।

दृश्य क्या होगा अभी मुझे मालूम नहीं है, पर कुछ इस तरह का हो सकता है..... जैसे, मान लीजिए.... कुंभकर्ण चश्मा लगा कर सो रहा है। सॉरी, चश्मा नहीं, स्पैक्टिकल्स... और वहां खर्राटों का महारौरव हो रहा है। अगेन सॉरी, स्पैक्टिकल्स भी नहीं, स्पैक्टिकलश! कुम्भकर्ण के युग में चश्मा और स्पैक्टिकल्स थोड़े ही हो सकते हैं! स्पैक्टिकलश हो सकते हैं। स्पैक्टिकलश यानी, आंखों पर रखे हुए दो पारदर्शी कलश! तभी रावण का याहू याहू मार्का मैसेंजर अपनी टिंग ध्वनि से कुम्भकर्ण को डिस्टर्बित कर देता है। कुम्भकर्ण की मूंछें भैंस की पूंछ की तरह झटके से पीछे आती हैं और स्पैक्टिकलश के दोनों कलश फूट जाते हैं। कुम्भकर्ण की आंखों की कोरों से पानी बहने लगता है। ऐसा लग सकता है कि कुम्भकर्ण रो रहा है।
कमाल है, कुम्भकर्ण रो रहा है और आप हंस रहे हैं! अरे! आपके अंगूठे तो फिर सक्रिय हो गए! अब किसे एसएमएस कर रहे हैं? मैं आपको एक शानदार दृश्य दिखाने वाला हूं, और आप...। खैर, वह दृश्य इस कुछ तरह का भी हो सकता है...... जैसे, गदाधारी भीम द्रुपदसुता की प्रतीक्षा में अत्यधिक उतावले और लगभग-लगभग बावले होते हुए बार-बार अपने उसी हाथ में बंधी रिस्टवाच देखते हैं जिसमें कि गदा है। सॉरी, रिस्टवाच नहीं, शिष्ट-समय-वाचिका.... लेकिन नियति में भी जाने क्या बदा है! द्रुपदसुता अन्यत्र व्यस्त हैं। गदाधारी भीम का हौटमेल संदेश नहीं जा पा रहा है। सॉरी, हौट-मेल संदेश नहीं, ऊष्ण-मिलन संदेश। वे अपनी शिष्ट-समय-वाचिका को कलाई से उतार कर पत्थर पर रख देते हैं और गदा के एक प्रहार से उसे चूर-चूर कर देते हैं।
समय चूर-चूर हो गया। बड़ी सुई चोट खाकर छोटी हो गई और छोटी फैल कर बड़ी। कांटे बिखर गए और काल गड्ड-मड्ड हो गया। भाषाएं एक दूसरे में गुंथ गईं। शब्द नए-नए रूप अख्तियार करने लगे। वह पत्थर भी चटक गया जिस पर शिष्ट-समय-वाचिका रखी थी। प्रस्तर-संधि से आने लगीं एक नए दृश्य की आवाज़ें। वो दृश्य सुनाता हूं आपको। मोबाइल एक तरफ रखकर आप कान से देखिए।
अब से पांच हज़ार वर्ष पहले का
अपूर्व वैदिक ज़माना,
मौसम वसंताना।

उस युग में एक युगल गल कर रहा था आपस में। अभी अतीत में चलिए जहां से वर्तमान में ले आऊंगा वापस मैं।

तो, सघन आम्र-वृक्ष-कुंज,
ऊपर एक डाली लुंज-पुंज।

नीचे बैठे थे आर्य चिराग्यवल्क और उनकी पत्नी विचित्रलेखा कि अचानक उन्होंने देखा...... क्या देखा? देखा कि हाथ-गाड़ी को ठेलते हुए पोस्टमैनाचार्य आ रहे हैं। हाथगाड़ी पर पत्थर की बड़ी-बड़ी सिल ला रहे हैं। पत्थर की वे सिल वस्तुत: उस युग की चिट्ठियां हैं। चिराग्यवल्क ने आवाज़ लगाई--

-- पोस्टमैनाचार्य! भंते, भो तात! क्या हमारा कोई लैटर्य है?
-- हां है, आपका एक लैटर्य! आर्य चिराग्यवल्क, आप पहुंचें अपने सदन पर। वहीं करूंगा लैटर्य डिलीवरायमान।
-- आयुष्मान, आयुष्मान! क्यों करते कष्ट, समय नष्ट। लैटर्य यहीं डिलीवरित करें। कार्य त्वरित करें।
-- भंते! लेकिन, किन्तु, परन्ते! लैटर्य आपको ही उठाना होगा, स्वयं।
-- स्वीकार्यम्‌ स्वीकार्यम्‌। किसका लैटर्य है पता करें! आर्या विचित्रलेखा! लैटर्य उठाने में सहायता करें। ...पोस्टमैनाचार्य, वैसे तो आपको न करता विवश। पर सदन पर ही छोड़ आया हूं अपने स्पैक्टिकलश। लैटर्य पढ़ने में असुविधा है। आप पढ़ दें... कोई दुविधा है?

विचित्रलेखा से न रहा गया। उनके द्वारा कहा गया— ‘ह: ह:, पढ़ने में असुविधा! भूल जाते हैं कि मैं भी हूं आपके साथ। आप कॉंन्वैंटशाला ही कब गए हैं नाथ।‘

चिराग्यवल्क : क्या कहा विचित्रलेखा!
विचित्रलेखा : पोस्टमैनाचार्य, ये सत्य पर किस प्रकार कुपित होते हैं, देखा!
पोस्टमैनाचार्य: ओह, ह: ह: ह:.... भंते, आर्य चिराग्यवल्क! लिखा है-- अत्र कुशलम्‌ तत्रास्तु!
चिराग्यवल्क : आगे पढ़ें।
पोस्टमैनाचार्य: आगे लिखा है- आर्यपुत्र! मदनोत्सव आने वाला है। आर्यपुत्री विचित्रलेखा को अगले पुष्पक विमान से कौशम्बी भेज दें।....
चिराग्यवल्क : बस....बस....बस! क्या शब्द बाण दागे। हम जानते हैं क्या लिखा होगा आगे। इसका उत्तर अभी देते हैं झटपटिया। निकालिए नई पत्र-पटिया! पैन्य है?
पोस्टमैनाचार्य : आर्य, लेखन सामग्री में नहीं कोई दैन्य है, छैनी-हथौड़ित पैन्य है। खट-खट-खटाखट चलेगी हथौड़ी, छैनी अभी सिल पर दौड़ी। बोलिए!
चिराग्यवल्क : लिखिए! तात विचित्र पितार। आप आर्यपुत्री विचित्रलेखा को त्रेता युग में बुला चुके हैं तेतीस बार। अब द्वापर आ गया है।
पोस्टमैनाचार्य: आ गया है।
चिराग्यवल्क : आपका ग्रांडपुत्र फ्यूचरोत्तम आर्यपुत्री को नहीं जाने देगा। आप भी यहीं आ जाइए। मदनोत्सव यहीं पर मनेगा। ....इधर पैट्रोल्य के दाम बढ़ गए हैं। भाव आकाश में चढ़ गए हैं। अतः नहीं आएंगी आर्यपुत्री विचित्रलेखा़....
फ्यूचरोत्तम : जाएंगे जाएंगे, नाना श्री के घर जाएंगे।
चिराग्यवल्क : नहीं जाएंगे! नहीं जाएंगे!! नहीं जाएंगे!!!
फ्यूचरोत्तम : जाएंगे! जाएंगे!! जाएंगे!!!
चिराग्यवल्क : भविष्योत्तम! चैन से नहीं बैठता है घर पे। मारूं चिट्ठी तेरे
सर पे।

पत्थर का पत्र सचमुच अगर सिर पर दे मारा होता तो....? क्या? आप तीसवां एस.एम.एस कर रहे हैं! ओ हो... दुखी हैं! जो उत्तर आया है वह शायद सिल से भी भारी है। आर्यपुत्री नहीं आ रही हैं मिलने। आपकी आवाज़ नहीं सुनी उसके दिल ने! गुल कहीं और जा रहा है खिलने। ऐसा हर युग में होता आया है, कोई बात नहीं।

हर युग में प्रतीक्षाओं के लिए या दीक्षाओं के लिए, शिक्षाओं के लिए या भिक्षाओं के लिए सन्देश दिए-लिए जाते रहे हैं। प्रस्तर युग में छैनी हथौड़ी से शिलाओं पर लिखा गया। छाल युग में कुल्हाड़ी से पेड़ काट-काट कर भोज-पत्रों पर मोरपंखों से लिखा गया। फिर रेशे गलाए गए, कागज़ बनाए गए। कबूतरों के पैरों में चिट्ठियां बांधी गईं। घोड़ों पर या पैदल-पैदल हरकारे भगाए गए। फिर पोस्टकार्ड आए। सब न पढ़ लें इसलिए अंतर्देशीय आए। लिफ़ाफ़े आए। टिकिट लगीं, स्टैम्प छपीं। फिर संचार में नया दूरभाष चमत्कार आया। पतिया न भिजवाइए, सीधे बतियाइए। अब तो इंटरनेट ने सब कुछ सैट कर दिया है। आपके पास कोई और काम ही नहीं रह गया है। बैठे रहिए बारह बाई सोलह की स्क्रीन के आगे। धका-धक दौड़ाए रखिए अपनी उंगलियां को की-बोर्ड पर।

पत्थर की एक सिल को पत्र बनाने में हफ्तों नहीं महीनों लगते थे। उसको एक जगह से दूसरे स्थान तक पहुंचाने में महीनों नहीं बरसों लगते थे। लम्बे इंतेज़ार और चौड़ी बेकरारी के बाद जब वह सिल आती थी तो अतीत से भविष्य को जोड़ने का एक सिलसिला बनती थी। और अब सिलीकॉन युग में, जब आप हर पल एक दूसरे को उपलब्ध हैं, तो न तो कोई सघन प्रतीक्षा है न कोई मगन सिलसिला है। न कोई तिलमिलाहट है न कोई दिलमिलावट है। सिर्फ एक दैहिक वर्तमान है।

मीलों की दूरियों के बाद जो मिलन का आनन्द होता था अब सुलभ-सहज मिलन के कारण दिलों की दूरियों में बदल गया है। दिव्य है टैक्नोलोजी की सुविधा, लेकिन बढ़ा रही है नई दुविधा। अफसोस कि ये चिप संवेदनों को कर रही है चिपचिपा। एमएमएस शर्मनैस में कुछ तो रखें छिपछिपा। चिप से आने वाले संदेश चिपचिपे संबंधों में बदल रहे हैं। पत्थर युग के पत्थरों की तरह मज़बूत नहीं रहे हैं। पत्थर की अहिल्या वर्षों की प्रतीक्षा के बाद नारी बन गई थी। आज की नारी प्रतीक्षा विहीनता में पत्थर बनती जा रही है। गलत कहा हो तो माफ करना। मुझ मेहतर का काम है साफ करना।

9 comments:

Divine India said...

Hello Sir,
कल पहली दफा आपका ब्लाग सर्च में मिला देख कर मन पुल्कित हो गया की जिनकी रचना को कभी किताबों में पढ़कर इस डर से बंद कर देते थे कि अगर नहीं लिखते तो कितना अच्छा होता परीक्षा में कम-से-कम एक भाग तो कम होता…।
मगर अब वह दुविधा परिपक्व अवश्था में पहुंच गई है…तो अब यह लेखनी सुकून का साधन भी और समाजिक क्रिया पर नये दृष्टिकोंण का विकास भी है…
यहाँ कहने की यह आवश्यकता नहीं है कि इस को रचना पढ़ने के बाद कैसा महसूस कर रहा हूँ…।

संजय बेंगाणी said...

अद्भुत रचना.
मजा आया.

Atul Sharma said...

लेख की शुरुआत में था हास। पढ़ते रहे समझ कर परिहास। जब समापन होने आया तो चुभी हमें भी फाँस।

राजीव रंजन प्रसाद said...

अशोक जी..

रचना ने इतना आनंदित किया कि मुस्कुराहट अब तक विराजमान है। मैं कथ्य से अधिक आपकी भाषा से प्रभावित हूँ। शब्दों को गढने, उन्हें नव रूप प्रदान करनें और फिर प्रचलित करने में आपकी दक्षता को को हिन्दी के प्रति सशक्त योगदान कहा जायेगा। व्यंग्य निश्चित एक पैनी विधा है किंतु इस रचना की यदि बात करूं तो एक स्तरीय हास्य के भीतर छुपे हुए व्यंग्य से पाठक बोझिल भी नहीं हो सकता और..घाव भी गंभीर।

*** राजीव रंजन प्रसाद

Vikash said...

आपकी रचनायें कई जगहों पर पढी हैं। इतने महान साहित्यकार को ब्लोग पर देखकर सुखद आश्चर्य हुआ। प्रणाम स्वीकार करें।

डा.अरविन्द चतुर्वेदी Dr.Arvind Chaturvedi said...

कुछ तो है जो आपकी रचनाओं,भावनाओं, समीक्षाओं आदि आदि मेँ परिलक्षितस्य है.
आपका चाक्रधर्य इतना चकलस्सीय होगा इसका परिकल्पनाया जाना भी दुरूह्तमत्व की श्रेणी मेँ रखनीय है.
वाह भई वाह
अरविन्द चतुर्वेदी
भारतीयम्

कच्चा चिट्ठा said...

आइइला तात! बहुत बढ़िया है।
मज़ा आ गया पढ़ कर। वाह-वाह!
बहरहाल हमारा ये लैटर्य स्वीकार करें।

काकेश said...

आपने तो सिलीकॉन के नये सिलसिले बना दिये.अच्छे हैं...

Satyendra Prasad Srivastava said...

मजा आ गया। आपकी लेखनी को सलाम