—चौं रे चम्पू! हमाई बगीची-कमैटी नै सोची ऐ कै तोय बगीचीसिरी की उपाधी दई जाय, तोय कोई आपत्ती तौ नायं?
—आपत्ति क्यों होगी चचा? लिख कर दिए देता हूं।
—लिखे कौ कोई भरोसा नायं रे! कल्ल कूं पलट जाय कै बगीची के पुरस्कार में का धरौ ऐ, मैं तौ उद्यान-पीठ कौ पुरस्कार लुंगो। हमाई बगीची की तौ थू-थू है जायगी।
—चचा, मैंने आज तक कोई सम्मान नहीं ठुकराया। मौहब्बत कोई ठुकराने की चीज है? आप बगीचीश्री बना कर मेरी अवहेलना तो नहीं कर रहे न! आपने मेरे प्रति अनास्था तो नहीं जताई! ज़िल्लत, तिरस्कार, तौहीन, मानहानि, अवमानना, बेअदबी और फ़जीहत तो नहीं कर रहे! मैं क्यों स्वीकार नहीं करूंगा? जो देंगे, सो सिर माथे! लेकिन इतना बता दूं चचा, सम्मान मैंने कभी ख़रीदा नहीं है। जो मान देता है, ज़िम्मेदारी भी बढ़ा देता है कि मेरे पास उस सम्मान के योग्य ज्ञान भी हो। आजकल लोग ख़ुद को सम्मानित कराने के लिए पचास तरह के गुंताड़े बिठाते हैं। आप तो आशीर्वाद दें कि जीवन में कभी ऐसा काम न करूं जो अपमान दे। मेरी पत्नी ने एक बार कहा था—
मैंने समझाया था, तुमने माना नहीं
अब सुनूंगी मैं कोई बहाना नहीं।
कुछ उठाने की ख़ातिर झुके ठीक है,
पर क़लम अपनी नीचे गिराना नहीं।
—बहूरानी समझदार ऐ! जे बता, तैनैं कबहुं कोई सम्मान लौटायौ ऊ ऐ का?
—ना चचा ना! मैंने कभी कोई सम्मान नहीं लौटाया। सम्मान देने वाला इसलिए सम्मान देता है कि उसके मन में आपके प्रति आदर-भाव है। वह आप में आस्था रखता है। आपकी इज़्जत करता है, लिहाज़ करता है। आपके प्रति श्रद्धा और समादर की भावना है उसके मन में। सारी भीड़ में से उन्हें आपका चेहरा दिखा। उन्होंने नवाज़ा, मैंने स्वीकार किया।
—तो लल्ला जे बता, सम्मान ठुकराइबे वारे की का मानसिकता होय?
—हवा और हंसी में अनीति घुसी हुई है। आदमी अपना लाभ-अलाभ देखता है। सम्मान अगर घोषित हो गया तो एक प्रकार से मिल ही गया, लेकिन यदि अस्वीकार कर दिया तो आप अपनी और अपने गढ़े हुए समाज की नज़र में और ज्यादा सम्मानित हो गए। दोहरा-तिहरा सम्मान हो गया। बहाने कुछ भी बना लो लेकिन मैं समझता हूं कि ठुकराने का निर्णय, अधिक लाभ उठाने की कामना से उत्पन्न होता है। ले भी लिया और नहीं भी लिया। लेकर बड़े हो गए, नहीं लेकर और बड़े हो गए।
—तेरे हिसाब ते हर सम्मान स्वीकार कन्नौ चइऐ?
—मैंने ऐसा नहीं कहा चचा। कुछ संस्थाएं योग्य और नामी व्यक्ति को सम्मानित करके खुद को सम्मानित करती रहती हैं। यह भी होता है। ऐसी संस्थाओं को चलाने वाले सोचते हैं कि साहित्यकार कलाकार सम्मान के भूखे होते हैं, दौड़े-दौड़े चले आएंगे।
—फिर ठुकराइबे में का हर्ज ऐ?
—अब यह तो ये लोकतंत्र है चचा! अपने-अपने विवेक की बात है। बहुतों ने पद्मभूषण ठुकरा दिया, पद्मश्री ठुकरा दी। पर मैं दूसरी बात कह रहा हूं। उन लोगों की जो अपनी नज़र में अपने आपको ज्यादा बड़ी संस्था मानते हैं और सम्मानों और सम्मान देने वालों का स्वीकृति देने के बावजूद अनादर करते हैं। वे उन भावनाओं रौंद देते हैं जो आपके प्रति शुद्ध पद्धति से जन्मीं। अरे, जिन्होंने आपको किसी भी रूप में पूजनीय, माननीय, मोहतरम, वन्दनीय, वरेण्य माना, आपके सत्कार्यों को सम्मान के योग्य पाया, आपकी स्तुति गाई, उनका अपमान कैसे कर सकते हो? एक बार ठुकरा दोगे तो दूसरे भी सौ बार सोचेंगे कि हमने अगर इसको महान बना दिया तो वह तुम्हें बौना सिद्ध करने पर आमादा हो जाएगा।
—कछू उकसाइबे वारे ऊ तौ हौंय लल्ला।
—बिल्कुल होते हैं चचा। निहित स्वार्थी लोगों के बहकावे में आकर उन लोगों के प्यार को ठुकरा देते हैं जिन्होंने आपको सिर माथे चढ़ाया। कहां तक रोओ। इसलिए सम्मान के लेने और देने की चिंता छोड़ कर आराम से बांह का तकिया बना कर सोओ। बाई-द-वे बगीचीश्री कब दे रहे हो? निश्चित तिथि बताओ। बहुत बिज़ी हूं आजकल। बगीचीश्री का कोई ड्रेस कोड हो तो वो भी बता दो। लंगोट पहन कर भी आ सकता हूं। उसे अश्लील तो नहीं मानोगे?
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6 comments:
आप के ब्लॉग पे टिप्पड़ी करना, सूरज को दिया दिखाने जैसा होगा. न रे बाबा न. ये काम मुझसे न होगा. आप से तो मुझे लिखने के प्रेरणा मिलते है.
आप का आशीर्वाद चाहिये.
पुरस्कार न लेने की मानसिकता और स्वयं को बड़ा बताने की मानसिकता पर आपका व्यंग्य पढ़ा। आज ही एक अन्य ब्लाग पर पुरस्कार नहीं लेने वाले और देने वाले पर थू थू करती भाषा भी पढ़ी। साहित्य क्षेत्र में पुरस्कारों की रस्साकशी से और अध्यक्ष पदों की चाहत ने साहित्यकार को समाज के सामने नंगा कर दिया है।
majedar aur saamajik vyangya...
sir ji waah !
चक्रधर जी नमस्कार,
आप को तो नमस्कार ही कर सकते हैं।क्योंकि जिस रचनाकार को बचपन से दूरदर्शन पर कई बार सुना-देखा हो,अब उस पर टिप्पणी करना शोभा नहीं देता।आप कैसे हैं ? अब तो उस तरह के प्रोग्राम बस यादों में सिमट कर रह गये हैं..... है न ?
अच्छी प्रस्तुति के लिये बहुत बहुत बधाई....
:)
टिप्पणी तो क्या दें बस आपको पढ पढ कर ही तोकुछ लिखना सीखा है और सुन सुन कर ही कुछ बोलना सीखा है.
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