Monday, March 29, 2010

नासमझी की समझदारी

है बहुत पुरानी, बहुत पुरानी, बहुत पुरानी गाथा, जब किसी पहली अप्रैल को एथैंस नामक नगर में एक हादसा हुआ था। एथैंस में चार यार थे। उनमें से एक समझता था कि उसके अन्दर सबसे ज्यादा इंटेलिजैंस है। उसके अन्दर माइंड की सर्वाधिक प्रेजैंस है। बस अपनी एक्सिलैंस दिखाने का जुनून रहता था, लेकिन उसमें टॉलरैंस की कमी थी। इस कारण उसका अपने तीनों मित्रों से डिफरैंस और डिस्टैंस बना रहता था। ज्ञानाभिमान के कारण कॉन्फिडैंस से लबरेज़ होकर हर बात पर कांफ्रैंस करता था। डिफैंस उसका औज़ार होता था और तीनों यार डिस्टरबैंस के शिकार होते थे। जब वो बोलता था, तीनों साइलैंस की चादर ओढ़ लेते थे। वे तीनों मानते थे कि स्वयं को ज्ञानी समझना नॉनसैंस है। कॉमनसैंस का अभाव है। सुनते हैं कि उन तीन नासमझ यारों ने उसके दिमाग का बैलैंस ठीक करने के लिए एक योजना बनाई।
तीनों ने अपनी-अपनी तरह से उसे बताया कि रात में उनके सपनों में एक दिव्य रूप देवी प्रकट हुई। उसने हम तीनों को बताया कि एक अप्रैल की रात को पहाड़ की चोटी पर एक ऐसी दिव्य ज्योति प्रकट होगी जिससे तुम जो मांगोगे, मिलेगा। हम जानते हैं कि तुम सबसे ज्यादा बुद्धिमान हो, लेकिन यदि तुम और अधिक ज्ञान चाहते हो तो पहाड़ी पर चलो।
ज्ञानी अहंकारी था। जो मित्र ज्यादा बोल रहा था उससे उसने कहा— मैं सब कुछ जानता हूं। मुझसे कोई भी प्रश्न पूछ, उत्तर दूंगा। हवा पे पूछ या आग पे पूछ, बगिया पे पूछ या बाग पे पूछ, ताल पे पूछ तड़ाग पे पूछ, चिड़िया पे पूछ चिराग़ पे पूछ, काशी पे पूछ प्रयाग पे पूछ, सब्ज़ी पे पूछ या साग पे पूछ, फूल पे पूछ पराग पे पूछ, अजगर पे पूछ या नाग पे पूछ, धब्बे पे पूछ या दाग पे पूछ, साबुन पे पूछ या झाग पे पूछ, होली पे पूछ या फाग पे पूछ, गाने पे पूछ या राग पे पूछ, भीमपलासी विहाग पे पूछ, शादी पे पूछ सुहाग पे पूछ, उत्तर तुझको ना दे पाया तो अगले ही मिनट मुंड़ा मेरी मूंछ।
तीनों ने सोचा इसकी मूंछ मुंड़ाने का अच्छा मौका है। माना कि तुम परम ज्ञानी हो, पर हम तुम्हारे शुभचिंतक हैं, चाहते हैं कि तुम परमातिपरम ज्ञानी हो जाओ। वह परमाति-परमातिपरम महाज्ञानी महा अज्ञान के साथ चोटी पर पहुंच गया। तीनों यारों ने पूरे शहर को भी तमाशा देखने के लिए इकट्ठा कर लिया। रात आई, चांद आया। तारे आए, ख़ूब सारे आए। हवा चली, मस्ती में पेड़ झूमे। नदी का पानी बिना किसी बुद्धिमानी के अविरल गति से कल-कल ध्वनि करता बहता रहा। सब प्रकृति का आनन्द ले रहे थे और वह अहंकारी ज्ञानी परमातिपरम ज्ञानी होने के लिए दिव्य ज्योति के चक्कर में था। ज्योति कहां आनी थी, नहीं आई। पौ फटी तो वह भी फट पड़ा— झूठे हो तुम लोग! तीनों हंसे, तीनों के साथ शहर हंसा और समझदारी के सामने नासमझी हंसी और तब शायद पहली बार उससे कहा होगा कि तुम्हें अप्रैल फूल बनाया जा चुका है। मूंछ मुंड़ा लो। हम देखते हैं कि सारे रोमन चेहरे मूंछ विहीन दिखाई देते हैं। सबने मान लिया कि वे ज्ञानी नहीं हैं। इसीलिए उनकी संस्कृति महान मानी जाती है। हां, कुछ रोमन वृद्ध मूंछ दाढ़ी समेत जरूर दिखाई देते हैं पर वे समझदारी और नासमझी से ऊपर उठ चुके होंगे।
बहरहाल, अतिशय की समझदारी परास्त हो गई। दरअसल सारी समस्याओं की जड़ समझदारी ही होती है। ओढ़ी हुई समझदारी। बस समझ-समझ के हम भी समझ को कुछ समझ लें क्योंकि समझ को समझने में ही समझदारी है, लेकिन याद रखें कि समझदारी उसके पास है जिसकी नासमझी से यारी है।
तो एक अप्रैल कोई मूर्ख बनाने का दिन नहीं है, बल्कि नासमझी की समझदारी दिखाने का दिन है। नासमझी एक बहुत बड़ी समझ है जिसकी हम उपेक्षा करते हैं। सारी परेशानियां समझदारी से उत्पन्न होती हैं। जिन बच्चों ने मूर्खता में अपनी तरफ से समझदारी दिखाते हुए आत्महत्या का रास्ता अपनाया। कितना गलत किया। यही कामना रही होगी कि समझदारी की तलाश में और और अधिक अंक लाने के लिए पता नहीं हम और कितना पढ़ लें कि माता-पिता की इच्छाएं पूरी कर सकें। अरे बने रहते नासमझ जैसे तो बने तो रहते। जितनी समझ थी उसी के हिसाब से काम चलाते। न बन पाते इंजीनियर, डॉक्टर, वकील, वैज्ञानिक तो अपना कोई और हुनर दिखाते। ज़िंदगी के साथ ज्यादा समझदारी दिखाते हुए, ज़िंदगी का, समाज का और अपना नुकसान तो नहीं करते। जीवन में रेस करते, रेस को जीवन तो न बनाते।
भारत में अंग्रेज़ आए तो एक अप्रैल का विचार लाए। वे अपने घर-परिवार और क्लबों में एक अप्रैल का मजे का खेल खेलते रहे, लेकिन जितने समय भारत में रहे कुटिलता से हमें मूर्ख बनाते रहे। हमारे देश में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने देखा कि अंग्रेज़ लोग बहुत मूर्ख बना रहे हैं— ’अंग्रेज राज सुख साज, सजै सब भारी, पै धन विदेश चलि जात, यहै अति ख्वारी।’ अंग्रेज़ तो अंग्रेज़ हमारे अपने शहर बनारस में पंडे लोग तीर्थ-यात्रियों को मूर्ख बना रहे हैं, ठग रहे हैं। शायद अंग्रेज़ी के शब्दकोश में पहला हिन्दी शब्द ‘ठग’ ही आया होगा। ठग बनारस के प्रसिद्ध होते हैं। जहां तक सुनने में आया है, भारतवासियों के बीच किसी भारतवासी द्वारा पहली अप्रैल को व्यापक स्तर पर मनाने की शुरुआत भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने बनारस में की थी। वे कई वर्ष तक पहली अप्रैल को कुछ न कुछ एथैंस जैसे प्रयोग करते रहे। तब लोग जानते नहीं थे कि उस दिन पहली अप्रैल है।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के कुछ वाक़ये मैंने सुने हैं। एक बार हुआ यह कि उन्होंने शहर में पर्चा बंटवा दिया कि आज एक गोरी मेम खड़ाऊं पहन कर, जल पर चलते हुए गंगा पार करेगी। यह विलायती जादू देखना हो तो चले आओ गंगा के घाट पर। भोली जनता उमड़ पड़ी। एक साहित्यकार-कलाकार को चाहिए क्या? श्रोता और दर्शक। अपनी किसी अंग्रेज़ महिला मित्र को उन्होंने जनता के सामने प्रस्तुत भी कर दिया। वह खड़ाऊं पहन कर, घाट पर चार चक्कर लगाने के बाद, मूढ़े पर बैठ गई। मेम भी थी, उसके पैरों में खड़ाऊं भी थीं। दर्शक सोचते रहे कि अब यह जल पर चल कर जलवा दिखाएगी। खड़ाऊं पहन कर उस पार जाएगी, लेकिन बड़ी चतुराई से भारतेन्दु बाबू ने उसको गायब कर दिया। जनता में शोर मचा होगा, हाहाकार हुआ होगा। मेम कहां गई? भारतेन्दु बाबू ने धीरज बंधाया होगा— आएगी, आएगी, मेम जरूर आएगी! गंगा पार करके दिखाएगी। तब तक लो, मेरा यह नाटक देखो ‘अंधेर नगरी चौपट्ट राजा’। मेरा दूसरा नाटक देखो— ‘विषस्य विषमौषधम्’। उन्होंने अपनी कविताएं भी सुनाईं होंगी। किसी प्रलोभन में जनता को रोकना आसान होता है। लेकिन, न मेम आई, न खड़ाऊं-वॉक हुई। कहते हैं कि भारतेन्दु बाबू ने कहा— कुछ तो बुद्धि का उपयोग करो। तुम जान लो, मैंने तुम्हें अप्रैल फूल बनाया है। इतने सारे लोग एक साथ मूर्ख बने। अपनी नासमझी पर गर्व करते हुए हंसे होंगे और उन्होंने बड़े उल्लास और उत्साह के साथ मनाई होगी एक अप्रैल।
कहते हैं कि लोग अगले वर्ष तक भूल गए और फिर से एक अप्रैल आ गई। इस बार भारतेन्दु बाबू ने सोचा कि थोड़ा सा सबक़ पंडों को भी सिखाना चाहिए जो यहां आने वाले तीर्थ-यात्रियों को ठगते हैं। उन्होंने बड़े-बड़े पंडों को बजरे पर भोज का न्यौता दिया। बजरा प्रायः सभी जानते होंगे बनारस में दुमंज़िला नाव को कहते हैं। ऊपर की मंजिल पर रसिक लोग महफ़िलें सजाते हैं और नीचे चाकर लोग उनकी सेवा के उपादान सजाते हैं। पंडों से कहा गया कि भोर से लेकर सूर्यास्त तक आपको बजरे पर ही रहना है। आपका भरपूर आतिथ्य किया जाएगा। दिव्य भोजन दिया जाएगा। सूर्यास्त के बाद जब आप वापस जाएंगे तो अंगवस्त्र, दक्षिणा आदि से आपको सम्मानित भी किया जाएगा। पंडे अफरा-तफरी में चढ़ गए बजरे की ऊपर वाली मंजिल पर। प्रसन्न वदन, गोल तोंद, किलोल और आमोद। नाश्ते का समय बीत चुका था, लेकिन नीचे से पकवानों की सुगंधि आ रही थी। पंडितगण एक-दूसरे को सांत्वना देने लगे— भई बन रहा है, समय लगता है। धैर्य रखो, प्रतीक्षा करो। दोपहर होने को आई। भोजन नहीं लगा। अब तो पंडों की भूखी अंतड़ियां हाहाकार करने लगीं। किसी ने नीचे जाकर देखा तो पाया कि वहां न तो कोई पकवान था न कोई खाने-पीने का सामान था। एक भट्टी थी और एक पहलवान था। पहलवान एक लोटे से गर्म भट्टी के ऊपर घी के छींटे मार रहा था, जिसके कारण पकवानों जैसी सुगंध उठ रही थी। सारे के सारे कुपित। ये हमारे साथ क्या धोखा किया गया है? बजरा मोड़ो! मल्लाहों ने मना किया— बजरा सूर्यास्त से पहले नहीं मुड़ेगा। बाबू साहब की आज्ञा नहीं है। उन तोंदिल पंडों में से जो तैरना जानते रहे होंगे, कूद कर घाट पर पहुंच गए होंगे, लेकिन अधिकांश तो लूटना जानते थे, तैरना कहां जानते थे।
सूर्यास्त के समय भूखे ब्राह्मणों को जब घाट पर लाया गया। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने उनके आगे दंडौती की और कहा कि आपने कभी ये सोचा है कि हमारे नगर में दूर-दूर से आने वाले यात्रियों के साथ कैसा व्यवहार किया जाता है। आप लोग उन्हें ठग लेते हैं। वे इस योग्य भी नहीं रहते कि वाहन का खर्च उठा सकें। उनके पास अन्न के दाने भी नहीं होते। भूखे दो-दो तीन-तीन दिन यात्रा करते हैं, क्योंकि उनके पास धन नहीं होता। आपको सोचना चाहिए। आप उनसे उतनी ही दक्षिणा लें कि वे लौट कर वापस घर तो सकुशल जा सकें। और क्षमा करिएगा, ये दुस्साहस मैंने इसलिए किया, क्योंकि आज एक अप्रैल है। उसके बाद धीरे-धीरे भारत में भी एक अप्रैल का दिन लोकप्रिय हुआ। फिल्मी गाने तक आए ‘एप्रिल फूल बनाया, तो उनको गुस्सा आया। मेरा क्या कुसूर, जमाने का क़ुसूर, जिसने दस्तूर बनाया।’ धीरे-धीरे दस्तूर बना। लोग एक अप्रैल मनाने लगे। लेकिन मेरे ख़्याल से एक अप्रैल पूरे साल मनाया जाना चाहिए। यह नासमझी की समझदारी दिखाने का दिन है। मूर्ख बनाने का नहीं, समाज सुधार का दिन है। अहंकार के परिहार का दिन है।
एक अप्रैल नए आर्थिक वर्ष को शुरू करता है। इकत्तीस मार्च तक हम सब चीजें समेट देते हैं, बही-खाते लपेट लेते हैं। नए सिरे से नए बजट के साथ, अपने नए फण्ड्स के लिए नए फण्डे शुरू कर देते हैं। जो लड़कियां ज़्यादा समझदारी दिखाते हुए शादी में विलम्ब कर रही हैं, जल्दी कर लें। लहंगे बहुत महंगे होने वाले हैं।
सारी परेशानियां होती हैं समझदारी से। ये राजनेता बहुत ज्यादा समझदारी दिखाते हैं। अमर सिंह ने जरूरत से ज्यादा समझदारी दिखा दी। उनकी समझदारी ने उनको कहीं का नहीं छोड़ा। मुलायम सिंह ने भी समझदारी दिखा दी। वे भी न दिखाते। नासमझी से काम लेते तो मौहब्बत की गलबहियां बनी रहतीं। न ये टूटते, न वे फूटते और न तुम्हें तीसरे मोर्चे वाले लूटते। कपिल सिब्बल को धन्यवाद देना चाहिए कि उन्होंने ज़्यादा समझदारी दिखाए बिना कह दिया कि देश को आठ सौ विश्वविद्यालय और पैंतीस हज़ार कॉलिज चाहिए। बजट देखें बजट देखने वाले, अपनी ज़रूरत बताने में क्या जाता है।
साहित्यकार समझदारी दिखाने लगते हैं तब भी दिक़्क़त होती है। भैया पुरस्कार मिल रहे हैं, ले लो। अब तुम ज्यादा ऊंची छोड़ोगे, पुरस्कार से बड़े बनोगे तो कौन तुम्हें बड़ा मानेगा? समझदारी के कारण छोटी-छोटी बातों पर बिदक जाते हो। अरे भैया अपनी नासमझी और प्रेम बनाए रखो। पहली अप्रैल को बदनाम मत करो। यह मूर्ख बनाने का नहीं, मूर्खता से बचने का दिन है। स्वतः उच्छ्वास जो दिल से निकलते हैं, जो हृदय की पुकार होती है, उसका दिन है। यह स्वयं से छेड़खानी का दिन है। चारों खाने चित्त होकर गिरने के बाद चौपट हो जाओ इससे अच्छा है अपने चित्त को चौखटे में रखो। चौखटा ठीक रहेगा, मुस्कराता रहेगा।
पड़ौस में एक-दूसरे से दुआ-सलाम नहीं होती। बातचीत नहीं होती, क्योंकि हर आदमी अपने आपको समझदार मानता है। मेरी गाड़ी तो यहीं पार्क होगी, दूसरे ने अगर यहां पार्क कर दी तो देख लूंगा। अरे भैया थोड़ी देर खड़ी रह लेने दे उसकी गाड़ी। अपनी नासमझी दिखा कि मैंने देखा ही नहीं कि तेरी गाड़ी मेरी पार्किंग में है। तू किसी दूसरी जगह पार्क कर ले। वह तो कह देगा कि जी आज पहली अप्रैल है। अब दो जवाब उसको। तुमने अगर जवाब में गुस्सा दिखाया तो मूर्ख कहलाओगे। मुस्कराने के अलावा कोई रास्ता नहीं है। ठीक है, ठीक है, आज पहली अप्रैल है। खड़ी कर ले अपनी गाड़ी। कल दूसरी जगह लगा लेना। अब कल की कल देखी जाएगी। दो अप्रैल को भी तो एक अप्रैल मना सकते हैं। एक अप्रैल तो ऐसा दिन है जो पूरे साल मनाना चाहिए।

3 comments:

kunwarji's said...

BAHUT KUCH SIKHA DIYA JI AAJ TO AAPNE MURKH BANATE-BANATE......

KUNWAR JI.

Ashutosh said...

bahut acchi baat kahi hai aapne.

अविनाश वाचस्पति said...

हिन्‍दी दिवस की तरह मूर्ख दिवस मनाने का रिवाज है

बुद्धिमान दिवस मनाना क्‍यों नहीं आया आज याद है।