Tuesday, April 05, 2011

और जब तू सामने होती है

(आंखें अंग-प्रत्यंग में और जीवन की हर जंग में हैं, लेकिन.....)

चलता हूं तो खुली रखता हूं

पैरों की आंखें,

फिसलता हूं तो खुली रखता हूं

हथेलियों की आंखें।

टाइप करते वक्त खुली रखता हूं

अपनी उंगलियों के शिकंजों की आंखें,

ड्राइव करते वक्त खुली रखता हूं

पैर के पंजों की आंखें।

पलटता हूं तो खुली रखता हूं

पीठ की आंखें,

गिरता हूं तो खुली रखता हूं

पूरी देह की आंखें।

मजदूरी करता हूं तो खुली रखता हूं

पेट की आंखें,

कुछ तय करता हूं तो खुली रखता हूं

रेट की आंखें।

बुराइयां होती हैं तो खुली रखता हूं

कान की आंखें,

पड़ौसियों के लिए खुली रखता हूं

मकान की आंखें।

रसोई में कुछ होता है तो खोल लेता हूं

नाक की आंखें,

अपमान की संभावना में खोल लेता हूं

अपनी साख की आंखें।

ज्ञान की कामना में खोलता हूं

अंदर की पुस्तक की आंखें,

क्रोधित होता हूं तो खोल लेता हूं

मस्तक की आंखें।

लेकिन! बारिश में बंद करनी पड़ती हैं

खोपड़ी की आंखें,

और जब तू सामने होती है

तो खुली होने के बावजूद

बंद हो जाती हैं सारी

हां सारी... सचमुच सारी आंखें।

7 comments:

Khare A said...

kay baat he, guru, baki jagha to khuli rakhi "aankhe", aur jab asli cheez samne aayi to "band kar li aankhe". ye kaun sa prayog he guru shresth. tanik vistar se samjhaiyega...... ab ye aankhe jo band ho rahi hain wo kisko dekhakr ho rahi hain, ye bhi balaiyega, maja aaya, hamen to aankhe khol kar padhi aapki ye chutili si kavita...

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

ये आंखें आप के जिस्म की ज़ुबान है जो उन्हें देख कर बंद हो जाती हैं:)

प्रवीण पाण्डेय said...

आँखें में क्यों नहीं दिखती मेरी आँखें।

Harshkant tripathi"Pawan" said...

सारी आँखों का एक साथ बंद हो जाना???????????? अच्छा है जी.

Ashok Chakradhar said...

थैंक्यू दोस्तो

Asha Joglekar said...

क्या वाकई, या सारी की सारी खुल जाती हैं आँखों की आँखों के साथ ।

leena savadia said...

kya baat hai sirji aapki kavita pad kar ho jate hum nihal