—चचा, लिख दी, भेज दी, छप गई। ताज़ा कविता याद थोड़े ही रहती है।
—अरे, हमेऊं बताय दै लल्ला!

—चचा, कविता में पूछा गया था कि दो अप्रैल ग्यारह का इंडिया गेट और नौ अप्रैल ग्यारह का जंतर-मंतर। बताइए इनमें क्या समानताएं थीं और क्या है अंतर? हमने कहा अच्छा है आपका प्रश्न, समानता ये है कि दोनों में था जीत का जश्न। फिर खोपड़ी की खपरैल में दो और नौ अप्रैल के बारे में और बातें आती रहीं। दो को जीत का जश्न इसलिए मनाया गया क्योंकि कोशिश सफल हुई थी देश में वर्ल्ड कप लाने की, और दूसरा नौ तारीख को इसलिए मनाया गया क्योंकि समझा गया जैसे कोशिश सफल हो गई देश के कप से भ्रष्टाचार को भगाने की। दोनों में अकस्मात युवा वर्ग सामने आया समूचा, दोनों में तिरंगा हुआ ऊंचा, लेकिन चचा दोनों में उल्लास और आवेग का मिला-जुला मिश्रण था। दोनों को बारीक़ी से समझना ज़रूरी है।
—अरे, तू तो कबता सुना, भासन मती झाड़।
—मैंने कविता में आगे यही तो कहा था कि दोनों स्थानों पर हाई था भावनाओं का वोल्टेज। दोनों को मिली चकाचक मीडिया कवरेज। दोनो टीआरपी बढ़ाऊ थे। मोबाइल कम्पनियों के मुनाफ़े गजबढाऊ थे।
—जे लायौ न हकीकत!
—चचा हक़ीकत ये है कि मैं अपनी कविता में हक़ीकत ही लाता हूं। मैंने कहा कि युवा ऊर्जा के साथ खड़ी थी हर पीढ़ी। दोनों मैदान समतल, बिना सीढ़ी।
—सो कैसै भैया?
—इसलिए चचा, कि भीड़ जुटाने के लिए न तो बस लाई गईं और न मचान बनाए गए। कोई पूर्व-प्रायोजन नहीं हुआ। जंतर-मंतर पर लगभग रोज़ाना धरने-प्रदर्शन होते हैं। कभी बाल मज़दूरी उन्मूलन के लिए, कभी नारी उत्पीड़न के ख़िलाफ़। दस-पन्द्रह बुद्धिजीवी झोला टांगे वहां आ जाते थे। प्रैस वालों की निगाह पड़ी, पड़ी, न पड़ी, लेकिन यहां तो भीड़ जुट गई बहुत बड़ी। मीडिया के कारण भीड़ आई, भीड़ के कारण मीडिया आया। सब कुछ अप्रत्याशित सा लगा। जिन लोगों ने भी अन्ना को ये राय दी, वे देश को बहुत गहराई से समझने वाले लोग थे। वे जानते थे कि नौजवानों की भावनाओं को कैसे उद्रेकित किया जा सकता है। उस्ताद थे टेलीविजन के रणनीतिज्ञ। उस्ताद थे कुचले हुए राजनीतिज्ञ। बड़े उस्तादानांदाज़ में जोड़-घटाना हुआ। चूंकि भ्रष्टाचार है हमारे देश की एक पावन-पवित्र-पुनीत सचाई, इसीलिए नई पीढ़ी जज़्बात में आई। उसको आना ही था। दोनों मैदान समतल थे। समतल इसलिए बताए कि पहले में उल्लास का सरलीकरण था दूसरे में आवेग का सरलीकरण और ये सारा का सारा ग़रीब के लिए एक जटिल समीकरण था।
—फिरकित्ती भासन दैन लग्यौ!

—चचा, तुम समझे ही नहीं! मैं भाषण में कविता और कविता में भाषणबाज़ी करता हूं। समानता तो बता दीं, अंतर ये था कि दो अप्रैल को क्रिकेट के बहाने भरपूर नर्तन का मौका था और नौ को सरकार का बाउंड्री में अन्ना का परिवर्तनकामी चौका था। अन्ना ने कोई छक्का नहीं मारा। सरकार की बाउंड्री में ही रहकर, चौका मारकर, चौंका दिया चार दिन में, वरना सरकार के चौका-चूल्हा बन्द होने की नौबत आ जाती। सरकार जानती है कि अच्छा नर्तन और सच्चा परिवर्तन युवा पीढ़ी ही कर सकती है, इसलिए समझदारी से काम लिया। अकड़ की जकड़बन्दी छोड़ दी। कपिल जी भी ठीक कहते हैं कि यह बिल देश की सारी समस्याएं तो नहीं सुलझा देगा। कोई भी बिल पास होगा, संविधान के दायरे में रहकर ही तो होगा। लोकपाल और जनलोकपाल के ऊपर भी कोई होगा कि नहीं। ऊपर रहेगा संविधान। और ये अन्ना हजारे, क्यों लगते हैं प्यारे? इसलिए कि सबको लगता है कि जितना धवल उनकी टोपी और कुर्ते का रंग है, उतना ही दूध धुला उनका अंतर-बहिरंग है। टीवी में सबने देखा कि अन्ना की टोपी पर कुछ मक्खियां बैठ जाती हैं, इसलिए मैं उनसे कहूंगा कि सारे ‘वाम’देवों, ‘राम’देवों, ‘नाम’देवों, ‘दाम’देवों, ‘काम’देवों और ‘तामझाम’देवों से बचना! ऐसी हो तुम्हारी व्यूह-रचना।
—सन ग्यारह की नौ और दो अपरैल की बात सुन लईं, अब नौ दो ग्यारै है जा।
6 comments:
इन दिनों के बारे में कविता भविष्य लिखेगा।
यदि कब्ता नाहि सुनान ह तो हो जा नौ दो ग्यारह :)
"सरकार की बाउंड्री में ही रहकर, चौका मारकर, चौंका दिया चार दिन में, वरना सरकार के चौका-चूल्हा बन्द होने की नौबत आ जाती। "
ek dam styeek nishana sadha he gurudev, farak to bahut he gurudev 2 april aur 9 april me, 2 april me to hum vishwa vijeta bani gaye, par ei jo 9 april he na, hamau to lag rahe he ki e salli kahi 1st april , khisak kar 9 april to nhi hui gavi!
is lekh ke liye shubh kaamnaaye
aap ko graphic era university ke parisar me suna tha .kripaya mere blog rahgeer ko ek bar padhe.....
खुल गयी कुछ ऑंखें है ,
ख़त्म हुई सी खुमारी है ,
हर कोने में छुपा कोई साया है ,
एक बड़े उजाले कि तैयारी है
......nishchint rahiye ujala kara kar hi dum lenge
"रामदेवों से बच कर रहना" से आपका क्या तात्पर्य था ???
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