Wednesday, April 06, 2011

झेल नहीं सकते तो घर बैठिए

चौं रे चम्पू! तैंनै बगीची के पहलवानन कूं किरकिट कौ सौक लगाय कै बुरौ कियौ। जे कोई खेल ऐ?
क्या बात कर दी, चचा! क्रिकेट में सारी ज्ञानेन्द्रियों की सहायता से मनुष्य का हर प्रकार का कौशल काम में आता है। आदमी बुलेट की तरह दौड़ता है। चील की नज़रों से कैच लेता है। बल्ला घुमाने से पहले सचिन की चौकसी देखी है? फील्डर ज़मीन पर रगड़ते हुए या चार कलामुंडी खाते हुए बॉल को रोकता है। बल्ले के बादल से फिर भी रनों की बरसात होती है। ये खेल, खेलों का खेल है। खेलों का राजा है!

हट्ट परे! खेलन कौ राजा! खेलन की रानी हमारी हॉकी! वाय तौ भुलाय दियौ। रनन की नायं, पइसन की बरसात है रई ऐ। जे कोई बात ऐ? हमाए देस में दूसरे खेल ऊ हतें।

ठीक है चचा, लेकिन ये खेल हमारे देश के खेल-प्रेमियों के मन-मस्तिष्क की नस-नाड़ी में समाया हुआ है। अब निन्दा करो तो बहुत सारे प्वाइंट निकल आएंगे। ब्रिटेन का दिया हुआ है। राजे-रजवाड़ों में खेला जाता था। विलासिता के साथ वक्त काटने का तरीक़ा था। दस-दस दिन तक चला करता था लेकिन चचा, अब तो एक दिन में दोनों पार्टी खेल लेती हैं। खेल जितना छोटा होता जा रहा है, उतनी ही इसमें रौनक आती जा रही है। ये विश्व कप था, तुम्हारी बगीची की चाय का चटका हुआ कप थोड़े ही था? ये खेल अब सिर्फ खिलाड़ियों का नहीं, सबका खेल है।

उद्योगपतीन और सट्टेबाजन की लूटनीति कौ! राजनेतान की कूटनीति कौ! खेलन के बीच फूटनीति कौ! नकली कप की झूटनीति कौ! सबकौ खेल ऐ रे!

चचा! तुम नहीं सुधरोगे! क्रिकेट के बहाने पड़ौसी देशों में प्रेम बढ़ा तो अच्छा हुआ ! अपनी कुश्ती से इसकी तुलना मत करना।

अरे, लल्ला! मैं तौ तेरी दीबानगी देखिकै हैरान ऊं!

चचा मेरी दीवानगी तो बच्चों की दीवानगी के साथ है। वे ख़ुश, उनके चेहरे ख़ुश तो मैं ख़ुश। अब वर्ल्ड कप जीतने के बाद रात में कई टीवी चैनलों के बुलावे आए, इंडिया गेट पर आ जाइए प्लीज़। पहुंच गए साहब। हमने भी बधाई में कुंडली छंद के छक्के लगाना शुरू कर दिया। सच बताऊं मैंने दिल्ली में ऐसा नज़ारा पहले कभी नहीं देखा जिसमें युवाओं के जत्थे के जत्थे बाहर निकलकर भारत का झण्डा फहरा रहे हों और अपने भारतीय होने का गर्व से नारा लगा रहे हों।

पहली बार देखा बिना उत्तेजना का ट्रैफिक ज़ाम। जो जहां था, वहीं चीखते-चिल्लाते, नाचते-गाते आनन्द ले रहा था। और ये कोई दिल्ली की ही बात हो, ऐसा भी नहीं। पूरे देश में जश्न का माहौल था।

पूरी रात लोग सोए नहीं। टीआरपी के सारे रिकॉर्ड टूट गए। करोड़ों दर्शकों ने मैच देखा। मैच के दौरान सड़कें ख़ाली थीं। और उस दौरान अपराध नहीं हुए पर कुछ अभिभावकों में चिंताजन्य अपराध-भावना ज़रूर मचलती रही।

सो कैसै?

यही कि बच्चों को कैसे ठोक-पीट कर घर लाएं। मुझे ठाकुर साब मिले थे उस दिन। फंस गए थे ट्रैफिक में। बड़े परेशान थे। कह रहे थे युवा पीढ़ी में भटकाव आ गया है। कहीं का बताते हैं, कहीं जाते हैं। घर वाले रोकें तो उनके लिए कठोर भाषा। ठाकुर साहब को बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा था कि लड़के-लड़कियां हाथ मिला कर, गले मिल-मिल कर बधाई दें। उनका तो मन कर रहा था कि एक-एक में दो-दो थप्पड़ मार कर घर भेज दें।

बो ठैरे ठाकुर साब!

चचा, खेल के दौरान देश में अपराध का ग्राफ़ सत्तर फीसदी नीचे गिर गया और ठाकुर साहब बच्चों की ख़ुशी में शामिल होने के स्थान पर हंड्रैड परसेंट अपराधी मानसिकता में रहे थे। बताइए, इतने बड़े बच्चों पर कोई हाथ उठा सकता है! मैने कहा, दबी-ढकी बेवफ़ाई, आपके ज़माने में थी ज़्यादा हाई। युवाओं के मन मिले के मेले को परमात्मा भी नहीं रोक सकता ठाकुर साहब! इसलिए, पहली बात तो ये कि अपने घिनौने आक्रामक विचार के लिए नई पीढ़ी से माफ़ी मांगिए, दूसरी, ज़माने के बदलाव को समझने की कोशिश करिए और तीसरी ये कि झेल नहीं सकते तो घर बैठिए।

2 comments:

Jaidev Jonwal said...

Guru Ji ko Parnaam.
ye World Cup ka josh hi kuch aisa tha ki jo jaha tha wahi ruk gaya or traffic to kya logo ki saasein tak ruk gayi jab tak india ne final naa jeet liya.

World champion banne par aapko saare hindustan ko dhero bhadhaiya.
Apka Jonwal..

mridula pradhan said...

bahut achchi post hai.